वैज्ञानिकों ने बनाया खाया जाने वाला सेंसर, टीबी का इलाज हो जाएगा आसान

वैज्ञानिकों ने एक ऐसे सेंसर को बनाने में सफलता हासिल की है, जिसे खाया जा सकता है, और जो टीबी के इलाज में क्रांति ला सकता है

By Lalit Maurya

On: Monday 07 October 2019
 

वैज्ञानिकों ने एक ऐसे सरल, लेकिन असरकारक सेंसर बनाने में सफलता हासिल की है, जिसे खाया जा सकता है और यह टीबी (तपेदिक) के इलाज में क्रांति ला सकता है। यह सेंसर रोगी के शरीर में पहुंचकर, उसके द्वारा ली जा रही दवा की निगरानी कर सकता है। जिससे दुनिया भर में लाखों मरीजों की जानें बच सकती हैं । यह शोध अंतराष्ट्रीय जर्नल पीएलओएस मेडीसिन में प्रकाशित हुआ है। इस सेंसर की काबिलियत को समझने के लिए वैज्ञानिकों ने कैलिफोर्निया राज्य में टीबी से ग्रसित 77 रोगियों पर किये अध्ययन में पाया कि सेंसर का उपयोग करने वाले 93 फीसदी मरीजों ने अपनी दवा की खुराक रोजाना समय पर ली थी। जबकि सेंसर के बिना केवल 63 फीसदी रोगियों ने ही अपनी दवा समय पर ली। 

दुनिया में भारत है सबसे अधिक टीबी रोगियों का घर

विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े बताते हैं कि हर साल लगभग 1 करोड़ लोग टीबी से ग्रस्त हो जाते हैं, जबकि अकेले 2017 में 16 लाख लोग टीबी जैसी फेफड़ों की गंभीर बीमारियों का शिकार हो गए थे। 2018 तक भारत, दुनिया में टीबी के सबसे अधिक मरीजों का घर है, जहां हर साल टीबी के 20,74,000 मामले दर्ज किये जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ें दर्शाते हैं कि 2006 से 2014 के बीच इस बीमारी के चलते भारतीय अर्थव्यवस्था को 34,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर का अतिरिक्त बोझ उठाना पड़ा था। टीबी से होने वाली मौतों का बड़ा हिस्सा विकासशील देशों में होता है, जिसका नेतृत्व भारत करता है। गौरतलब है कि लम्बे समय तक सही उपचार नहीं मिलने और बीमारी से ग्रस्त रहने के कारण यह रोग दवा प्रतिरोधी हो जाता है।

कैसे काम करता है यह सेंसर

इस वायरलेस ऑब्जर्वेटेड थेरेपी में रोगी को एक छोटा, गोली के आकार का सेंसर निगलना पड़ता है। जो रोगी के शरीर पर बंधे पैच से जुड़ा रहता है । यह पैच ब्लूटूथ के माध्यम से रोगी के शरीर में मौजूद दवा के स्तर को एक मोबाइल ऐप को भेज देता है। इन आंकड़ों का प्रयोग करके अपने मोबाइल फ़ोन की सहायता से चिकित्सक रियल टाइम में रोगी के लिए आवश्यक दवा की निगरानी कर सकता है । कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय सैन डिएगो में नैदानिक चिकित्सा की प्रोफेसर और इस खोज में अग्रणी भूमिका निभाने वाली वैज्ञानिक सारा ब्राउन ने बताया कि "अगर हम टीबी को जड़ से मिटाने के लिए गंभीर हैं, तो हमें कुछ मूलभूत बातों का ध्यान रखना होगा जैसे कि रोगी को उचित देखभाल देना, जिससे रोगी सफलतापूर्वक अपने इलाज को पूरा कर सकें ।

स्टेलेनबोस्च विश्वविद्यालय में बाल रोग और स्वास्थ्य के प्रोफेसर मार्क कॉटन ने बताया कि उन देशों में जहां तपेदिक का सबसे अधिक खतरा है वहां टेक्नोलॉजी के जरिये टीबी के मामलों में कमी लायी जा सकती है, साथ ही इससे होने वाली मौतों को भी काफी हद तक सीमित किया जा सकता है। उनके अनुसार, हमें भारत और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में टीबी से सबसे ज्यादा खतरा है, वहां इस तकनीक की उपयोगिता का तुरंत मूल्यांकन करने की जरुरत है । क्योंकि भौगोलिक बाधाओं, गरीबी और छुआछूत के चलते इन देशों में इस बीमारी का इलाज आसान नही है। इस तकनीक की सहायता से लाखों मरीजों की जान बचायी जा सकती है, साथ ही यह चिकित्सा के क्षेत्र में क्रांति ला सकता है|

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