पीएमजेएवाई का सच : बीमा का आश्वासन एक सबसे बड़ा भ्रम

प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएमजेएवाई) ने अप्रैल 2020 से जून 2021 के बीच कोविड-19 के उपचार के लिए अस्पतालों में भर्ती केवल 14.25 प्रतिशत लोगों को ही मदद पहुंचाई।

By Shagun, G Ram Mohan, Ranju Dodum, mikkhan33@gmail.com, K A Shaji, Rakesh Kumar Malviya, Gajanan Khergamker, Bhagirath Srivas

On: Thursday 23 December 2021
 

स्वास्थ्य के क्षेत्र में बीमा केंद्रित दृष्टिकोण महामारी के दौरान कितना प्रभावी रहा?  कोरोना काल में बीमाधारकों के अनुभव बताते हैं कि उन्हें वादों के अनुरूप बीमा का लाभ नहीं मिला। ऐसे में क्या सरकार स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे पर फिर से अपना ध्यान केंद्रित करेगी? हम एक लंबी सीरीज के जरिए आपको बीमा के उन अनुभवों और सच्चाईयों से वाकिफ कराएंगे जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत जब थी, तब वह लोगों को नहीं मिला...पढ़िए पहली कड़ी

नोवेल कोरोनावायरस ने केवल हमारी दुनिया में ही उथलपुथल नहीं मचाई है बल्कि इसने हमें खुद को, दुनिया को और यहां तक कि हमारी नीतियों को भी देखने की एक दृष्टि प्रदान की है। इसलिए जब दो शोध संस्थानों पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) और अमेरिका की ड्यूक ग्लोबल हेल्थ इंस्टीट्यूट ने खुलासा किया कि भारत की प्रमुख स्वास्थ्य बीमा योजना सर्वाधिक जरूरत के वक्त नाकाम हो गई तो आश्चर्य नहीं हुआ। यह सरकार द्वारा पूर्णत: वित्त पोषित दुनिया की सबसे बड़ी बीमा योजना भी मानी जाती है।  

इन शोध संस्थानों की ओर से इस साल जुलाई में जारी रिपोर्ट से पता चला है कि 2018 में देश की 40 प्रतिशत निर्धनतम आबादी को 5 लाख के बीमा कवरेज के वादे के साथ शुरू की गई प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएमजेएवाई) ने अप्रैल 2020 से जून 2021 के बीच कोविड-19 के उपचार के लिए अस्पतालों में भर्ती केवल 14.25 प्रतिशत लोगों को ही मदद पहुंचाई।

केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री मनसुख मंडाविया ने 3 दिसंबर को लोकसभा में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में स्वीकार किया कि देशभर में पीएमजेएवाई के तहत कोविड के उपचार के लिए अस्पतालों में भर्ती केवल 0.52 मिलियन (5.20 लाख) मामलों का ही भुगतान किया गया। हालांकि देश में कुल कोविड-19 भर्ती का  कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। लेकिन देशभर में योजना के 165 मिलियन लाभार्थियों के दावे को देखते हुए 0.52 मिलियन का आंकड़ा नगण्य है।

विश्लेषक लंबे समय से सरकारी व निजी बीमा योजनाओं की ऐसी कमियों को लेकर चेताते रहे हैं और सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज के लिए स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को मजबूत करन की पैरवी करते रहे हैं। महामारी ने व्यवस्था की दरारें और चौड़ी कर दी हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि सरकार के थिंक-टैंक नीति आयोग ने अक्टूबर में विनाशकारी आपदा से सबक सीखने के बजाय एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें कहा गया है कि बीमा सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज की दिशा में भारत की प्रगति में तेजी लाने का तरीका है। “हेल्थ इंश्योरेंस फॉर इंडियाज मिसिंग मिडिल” नामक इस रिपोर्ट में कहा गया कि देश की 70 प्रतिशत आबादी किसी न किसी स्वास्थ्य बीमा के दायरे में है। इनमें राज्य सरकार की योजनाएं, सामाजिक बीमा योजनाएं और निजी बीमा शामिल है। रिपोर्ट के अनुसार, 30 प्रतिशत अथवा 400 मिलियन (40 करोड़) लोग बीमा से वंचित हैं। इन्हें “मिसिंग मिडिल” कहा गया है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में स्वास्थ्य पर होने वाला जेब खर्च (आउट ऑफ पॉकेट) 63 प्रतिशत है, जो दुनिया में सबसे अधिक है। इससे भारत की 7 प्रतिशत से अधिक आबादी हर साल गरीबी रेखा से नीचे पहुंच जाती है। रिपोर्ट में इस खर्च को कम करने और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए स्वास्थ्य बीमा प्रदान करने की सिफारिश की गई है।

सरकार द्वारा वित्त पोषित और निजी स्वास्थ्य बीमा योजनाओं की प्रभावशीलता का आकलन करने के लिए डाउन टू अर्थ ने नौ राज्यों की यात्रा की। इन राज्यों में महामारी के दौरान अस्पताल में भर्ती होने की दर अधिक थी। हमने पाया कि सरकारी बीमा योजनाओं में सभी लक्षित समूहों और पात्र व्यक्तियों को शामिल नहीं किया गया है। यहां तक ​​​​कि बीमा योजनाओं के तहत नामांकित लोगों को भी महामारी से लड़ने के लिए अकेला छोड़ दिया गया। उन्हें इलाज में बड़ी मात्रा में पैसा खर्च करना पड़ा। जिन राज्यों में लोगों को अपनी जेब से भुगतान नहीं करना पड़ता था, ऐसे राज्य थे जहां महामारी से निपटने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा तैयार था।

नकदी अब भी जरूरी

अस्पताल भर्ती करने के लिए नकदी मांग रहे हैं। वे ऐसे दस्तावेज पर हस्ताक्षर कराते हैं जिसमें लिखा होता है कि आईसीयू में भर्ती के लिए पीएमजेएवाई प्रभावी नहीं होगा

आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले के दुर्गा समुद्रम गांव की 26 वर्षीय के लहरी याद करती हैं कि उनके परिवार को राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना के तहत कितनी राहत मिली। सरकार ने 2011 की सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना के आधार पर उनके परिवार को योजना के लिए पात्र माना था। पीएमजेएवाई कार्ड के लिए बायोमीट्रिक विवरण जमा करते समय लहरी को बताया गया था कि उसका परिवार अपनी पसंद के किसी भी सरकारी या सूचीबद्ध अस्पताल में बिना पैसा खर्च किए भर्ती होकर इलाज करा सकता है। लहरी अब अपने पति के शेखर की मृत्यु के लिए योजना को जिम्मेदार ठहराती हैं। उनके पति ऑटो-रिक्शा चालक थे और चार सदस्यीय परिवार में अकेले कमाने वाले थे।

कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के दौरान जब शेखर संक्रमण की चपेट में आए, तब लहरी उन्हें लेकर 15 दिनों तक चार अलग-अलग अस्पतालों चक्कर काटती रहीं। वह कहती हैं कि पहले निजी अस्पताल ने अवैध तरीके से सुरक्षा राशि के रूप में 20 हजार रुपए नकद जमा करने को कहा। अगले दिन अस्पताल ने लहरी को सूचित किया कि शेखर का ऑक्सीजन की आपूर्ति बहुत कम है, इसलिए रोगी को दूसरे अस्पताल में स्थानांतरित करना पड़ेगा। 

दूसरे निजी अस्पताल ने भी भर्ती के समय 20,000 रुपए और दो दिन बाद 30,000 रुपए की मांग की। ऐसा न करने पर उन्होंने शेखर को बाहर फेंकने की धमकी दी। लहरी बताती हैं, “हम पहले ही सरकारी अस्पतालों में अपनी किस्मत आजमा चुके थे, लेकिन वहां जगह नहीं थी, इसलिए हमने स्वयंसेवकों के एक व्हाट्सएप समूह से मदद मांगी और हमारा मामला चित्तूर के उपायुक्त तक पहुंच गया। उन्होंने एक अन्य निजी अस्पताल से शेखर को भर्ती करने के लिए कहा।” वह बताती हैं कि तीसरे अस्पताल ने भी पैसे की मांग की तो परिवार ने अस्पताल के पीएमजेएवाई डेस्क पर शिकायत दर्ज कराई। यह योजना कहती है कि सूचीबद्ध अस्पताल द्वारा इलाज से इनकार करने की शिकायतों का छह घंटे के भीतर निपटान करना होगा। लहरी कहती हैं, “अस्पताल पर जुर्माना लगाया गया था। चार दिन के बाद अस्पताल ने शेखर को छुट्टी दे दी, हालांकि उनके ऑक्सीजन का स्तर सामान्य नहीं था।”

इसके बाद परिवार उन्हें चौथे अस्पताल ले गया, जहां वहां शेखर को आईसीयू में भर्ती किया गया। अस्पताल ने भर्ती के लिए शर्त रखी कि वह शेखर के इलाज में पीएमजेएवाई का उपयोग नहीं करेगा। अपनी शर्त मनवाने के लिए उसने हस्ताक्षर भी करवाए। कुछ दिन बाद दिल का दौरा पड़ने से शेखर का निधन हो गया। यह हाल तब है जब योजना की वेबसाइट में कहा गया है, “पीएमजेएवाई का मुख्य उद्देश्य वंचित आबादी को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करना और स्वास्थ्य पर होने वाले जेब खर्च को कम करना है।” फिर भी 15 दिनों में लहरी ने अपने पति को खो दिया था और लगभग 5 लाख रुपए इलाज पर खर्च करने पड़े। इलाज में खर्च हुआ अधिकांश पैसा गैर-संस्थागत कर्ज था। लहरी अब अपने तीन बच्चों के पालन पोषण और कर्ज चुकाने के लिए संघर्ष कर रही हैं।

अगली कड़ी में पढिए कि अस्पताल में बीमा धारको के साथ क्या होता है ?

 

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