बिहार में कालाजार से 10 लोगों की मौत के लिए दोषी कौन?

इससे पहले 2014 में कालाजार से 10 लोगों की मौत हुई थी, लेकिन उसके बाद मौतों का सिलसिला कम हो गया था

By Umesh Kumar Ray

On: Thursday 14 October 2021
 
बिहार के भागलपुर में स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों से कालाजार वाले इलाके की जानकारी लेती कैलिफोर्निया की शोधकर्ता। वे शोध के लिए कालाजार प्रभावित मुसहर बस्ती से तीन बालू मक्खियां पकड़ कर ले गई हैं। फ़ोटो: उमेश कुमार राय

देशभर में कालाजार के हॉटस्पॉट के रूप में कुख्यात बिहार में इस साल अगस्त तक काफी कम मामले दर्ज हुए, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से 10 लोगों की इस बीमारी ने जान ले ली, जो सात सालों में सबसे ज्यादा है।

केंद्रीय स्वास्थ्य परिवार कल्याण मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, इस साल अगस्त तक बिहार में कालाजार के 600 मामले सामने आये और 10 लोगों की मौत हो गई। इसके अलावा झारखंड में कुल 174 मामले सामने आये तथा तीन लोगों की मौत हुई। पश्चिम बंगाल में कालाजार के कुल 837 मामले सामने और एक व्यक्ति की इस बीमारी से जान गई। कालाजार से प्रभावित अन्य राज्यों असम, दिल्ली, केरल, पंजाब, सिक्किम और उत्तराखंड में कालाजार के मामले तो सामने आए, किसी की मौत नहीं हुई है। 

आंकड़े बताते हैं कि साल 2014 में बिहार में कालाजार के कुल 7615 मामले सामने आये थे और 10 लोगों की मौत हुई थी। साल 2015 में कालाजार के 6517 मामले सामने आये थे और पांच लोगों की जान गई थी। इसके बाद 2016, 2017, 2018, 2019 और 2020 में कालाजार के मामले घटते गये और इन सालों में कालाजार से एक भी मौत नहीं हुई, लेकिन इस साल अगस्त तक ही 10 लोगों की मौत हो चुकी है। 

ताजा मामला भागलपुर जिले के कहलगांव प्रखंड की कैरिया पंचायत के मुसहरी टोले का है, जहां पिछले महीने कालाजार से 12 साल के एक बच्चे की मौत हो गई और दो लोग कालाजार से पीड़ित मिले। भागलपुर में कालाजार के मामले अमूमन नहीं होते थे। इस लिहाज से अब कालाजार से प्रभावित जिलों में भागलपुर भी शामिल हो गया।

भागलपुर के सिविल सर्जन डॉ. उमेश शर्मा ने कालाजार से बच्चे की मौत की पुष्टि की और डाउन टू अर्थ को बताया, “मामला सामने आने के बाद इलाके में स्क्रीनिंग कैम्प लगाया गया और रसायन का छिड़काव भी किया गया। स्क्रीनिंग कैम्प में जांच के दौरान कालाजार के दो और मामले मिले। दोनों मरीजों को तुरंत अस्पताल भेजकर इलाज किया गया।

कालाजार के मामले सामने आने के बाद कुछ विदेशी शोधकर्ता भागलपुर गये थे और उन्हें प्रभावित इलाके से तीन मक्खियां पकड़ी और शोध के लिए उन्हें अपने साथ ले गए। शर्मा ने बताया कि भागलपुर में कालाजार का पहले से कोई इतिहास नहीं रहा है। 

आखिर क्यों हुईं इस साल इतनी मौतें?

डाउन टू अर्थ ने बिहार सरकार के स्वास्थ्य विभाग में कालाजार की निगरानी कर रहे विज्ञानी के साथ ही अन्य विशेषज्ञों से बात कर ये जानने की कोशिश की कि आखिर अचानक इस साल कालाजार से इतनी मौतें क्यों हुईंबातचीत में उन्होंने चिकित्सीय लापरवाही, जागरूकता में कमी के साथ ही दवा के ओवरडोज व कोविड-19 की दूसरी लहर में स्वास्थ्य विभाग का कोरोना पर फोकस और दूसरी बीमारियों की अनदेखी को संभावित कारण माना।

कालाजार की निगरानी से जुड़े विज्ञानी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर डाउन टू अर्थ से कहा, “पिछली बार की बैठक में कालाजार से हो रही मौतों को लेकर चर्चा की गई थी। हमलोग किसी ठोस नतीजे पर तो नहीं पहुंच सके, लेकिन दो-तीन संभावित कारणों के बारे में पता चला है।

पहला कारण तो ये मालूम चला कि कालाजार के मामले कम होने से लोगों में जागरूकता घट रही है, जिससे कालाजार के बारे में लोगों को मालूम नहीं चल रहा है। दूसरी वजह ये हो सकती है कि मरीज को कालाजार की दवा का ओवरडोज दे दिया गया हो। प्राइमरी हेल्थ सेंटरों में जहां कालाजार का इलाज हो रहा है, वहां एमबीबीएस चिकित्सकों का अभाव है। इन सेंटरों में आयुष चिकित्सक मरीजों का इलाज कर रहे हैं। उन्हें मालूम नहीं होता है कि कालाजार का कितना डोज देना है, इसलिए संभव है कि वे ज्यादा डोज खिला देते हों। एक अन्य वजह ये भी हो सकती है कि अनजाने में ही मरीजों को कालाजार की दवा का ओवरडोज दे दिया गया होगा।

कालाजार की रोकथाम के लिए सलाहकार के रूप में कई सालों तक वैशाली जिले में काम करने वाले राजीव कुमार ने डाउन टू अर्थ को बताया, “असल कारण तो केसों का अध्ययन करने से ही पता चल पाएगा, लेकिन मुझे लगता है कि कालाजार से पीड़ित व्यक्तियों को कोरोना भी हो गया होगा, जिससे उनकी मौत हो गई होगी, या फिर उन्हें कालाजार के साथ ही दूसरी कोई जानलेवा बीमारी रही होगी।

गौरतलब है कि पहले कालाजार रोग का इलाज एक महीने तक चलता था। बाद में इसे घटाकर चार दिन किया गया। इसके बाद कालाजार का सिंगल डोज विकसित किया गया। साल 2015-2016 से कालाजार के मरीजों को सिंगल डोज दिया जा रहा है। 

ये भी हो सकता है कि किसी व्यक्ति को पहले कालाजार हुआ होगा और उसने सिंगल डोज ले लिया होगा। कालाजार का डोज लेने के बावजूद दो साल तक जांच में रिजल्ट पॉजीटिव आता रहता है, तो संभव है कि ठीक हो चुके व्यक्ति की दोबारा जांच की गई हो। जांच में रिजल्ट पॉजीटिव आने पर उसकी हिस्ट्री जाने बिना कालाजार की दवा दे दी गई हो, जिससे व्यक्ति की मौत हो गई हो,” वे कहते हैं।

राजीव कुमार ने कहा, “कालाजार से इतनी मौतें चिंता की बात है। सरकार को इसकी जांच करनी चाहिए कि आखिरी कैसे इतनी मौतें हुई हैं।”                     

भारत में कालाजार का इतिहास 

कालाजार शरीर के आंतरिक अंगों मसलन लिवर, बोन मैरो आदि पर असर डालती है। ये रोग एक परजीवी से फैलता है। बालू मक्खी इस परजीवी को अपने साथ ले जाती है और जब लोगों को काटती है, तो ये परजीवी लोगों के शरीर में प्रवेश कर जाता है।  बुखार, भूख लगना, थकान, डायरिया, लिवर का बड़ा हो जाना आदि इसके संभावित लक्षण होते हैं।

भारत में कालाजार की दस्तक 19वीं शताब्दी के मध्य में हुई थी। सन् 1854-1875 में पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले के सिविल सर्जन डॉ फ्रेंच ने बर्दवान के कुछ लोगों में कालाजार के लक्षण देखे थे। चूंकि उस वक्त तक कालाजार शब्द चलन में नहीं था और इस रोग के बारे में जानकारी भी नहीं थी, तो उन्होंने इसे बर्दवान फीवर का नाम दे दिया।

सन् 1882 में असम के तुरा में उस समय के सिविल मेडिकल अफसर क्लार्क मैकनॉट ने भी कुछ लोगों में ऐसे ही लक्षण देखे थे। असम के लोगों ने ही इस बीमारी को कालाजार नाम दिया। इसके बाद से समय-समय पर देश के कई इलाकों खास कर उत्तरी पूर्वी क्षेत्रों में इस बीमारी के लक्षण देखने को मिले। 

बिहार में कालाजार

बिहार में साल 1898 में पहली बार कालाजार के मरीज़ मिले थे। उस वक्त डॉ हेरॉल्ड ब्राउन ने बिहार के पूर्णिया जिले में इस बीमारी के लक्षण देखे थे।  

साल 2016 में इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में छपे एक लेख में कहा गया है कि साल 1953 में भारत में मलेरिया की रोकथाम के कार्यक्रम के तहत डीडीटी का छिड़काव शुरू किया गया था। इसके चलते कालाजार के परजीवी भी मर गये थे। इसका फायदा ये हुआ कि 1960 तक कालाजार का प्रकोप लगभग खत्म हो गया था।

लेकिन, जब मलेरिया के कीटाणुओं में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ गई, तो डीडीटी कारगर नहीं रहा, नतीजतन सरकार ने सत्तर के दशक के मध्य से डीडीटी का छिड़काव बंद कर दिया। इससे कालाजार के परजीवी दोबारा अस्तित्व में गए और कालाजार के मामले फिर बढ़ने लगे। 

बिहार में कालाजार के मामले सबसे ज्यादा क्यों हैं, इसकी पुख्ता वजह अब तक नहीं मिल पाई है। लेकिन, मोटे तौर पर माना जाता है कि मिट्टी के घरों में छोटे-छोटे छेद होते हैं, जहां बालू मक्खी अपना ठिकाना बनाती है। ये बालू मक्खी कालाजार के परजीवी को लेकर घूमती है और लोगों को काटती है, जिस कारण ये परजीवी लोगों के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। बिहार में कच्चे घर ज्यादा हैं, जो बालू मक्खी के लिए सुरक्षित ठिकाना बनते हैं।। 

बिहार में कालाजार पर लंबे समय तक काम करने वाले डॉ सीपी ठाकुर राज्यसभा सांसद रह चुके हैं।

सीपी ठाकुर ने डाउन टू अर्थ से कहा, “बिहार में कालाजार फैलाने वाले परजीवी कहां से आए, ये अब भी अज्ञात है, लेकिन इतना ज़रूर है कि पिछले सौ सालों से ये बिहार में मौजूद है। कच्चे मकान, सीलन वाली जगह, ज्यादा गर्मी ज्यादा सर्दी पड़ने वाली जगह गंदगी इनके पनपने का माहौल देते हैं।

पांच बार तय हुए लक्ष्य, पर नहीं मिली सफलता  

साल 2014 में जब कालाजार उन्मूलन अभियान शुरू किया गया था, तब 33 जिलों के 130 प्रखंडों में कालाजार का प्रभाव था। हालांकि, बाद के वर्षों में प्रभावित इलाकों में कमी आई।  

 “हमलोगों ने कालाजार उन्मूलन कार्यक्रम में आशा वर्करों को शामिल किया। दूसरी बात ये कि पहले कालाजार का इलाज एक एक महीने चलता था, लेकिन अब सिंगल डोज दवाई का इस्तेमाल किया जा रहा है। यानी एक खुराक ही कालाजार के परजीवी को खत्म करने के लिए काफी होता है,” बिहार में कालाजार पर काम करने वाले पटना के राजेंद्र मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस के साइंटिस्ट डॉ वीएनआर दास ने कहा। 

तीसरा काम ये हुआ है कि कालाजार प्रभावित क्षेत्रों में डीडीटी की जगह पायरेथ्रायड का छिड़काव कर रहे हैं। कालाजार के परजीवी ने डीडीटी से लड़ने की क्षमता विकसित कर ली, इसलिए अब इनकी जगह पायरेथ्रायड छिड़कते हैं,” डॉ दास बताते हैं।

हालांकि, इन तमाम प्रयासों के बावजूद बिहार सरकार राज्य से कालाजार को खत्म नहीं कर पा रही है। बिहार सरकार ने सबसे पहले साल 2010 तक कालाजार के उन्मूलन का लक्ष्य निर्धारित किया था। बाद में इस लक्ष्य को बढ़ाकर 2015, फिर साल 2017 और बाद में साल 2020 किया गया, लेकिन सरकार लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाई। पिछले साल दिसम्बर में उस वक्त केंद्रीय मंत्री रहे हर्षवर्धन ने कालाजार की रोकथाम के लिए बिहार, यूपी, बंगाल और झारखंड के स्वास्थ्य मंत्रियों के साथ बैठक की थी।

बैठक में बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय ने कहा था कि साल 2021 तक कालाजार को पूरी तरह खत्म करने के लक्ष्य के साथ काम किया जा रहा है। लेकिन, कालाजार के मौजूदा मामले और मौतों ने सरकारी प्रयासों पर सवालिया निशान लगा दिया है।

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