जंगली जीवों से फैलने वाली बीमारियों से हर साल मर रहे हैं 33 लाख लोग, ऐसे हो सकता है बचाव

दुनिया भर में फैलती जूनोटिक बीमारियां बढ़ते इंसानी लालच और महत्वकांशा का ही नतीजा है

By Lalit Maurya

On: Monday 07 February 2022
 

दुनिया भर में जूनोटिक बीमारियां जैसे एड्स, इबोला, जीका और कोविड-19 हर साल करीब 33 लाख लोगों की जान ले रही हैं। ये वो बीमारियां हैं जो जंगली जीवों से इंसानों में फैल रही हैं। यदि देखा जाए तो इन बीमारियों के फैलने के लिए कहीं हद तक हम इंसान ही जिम्मेवार हैं। जो इन जीवों के प्राकृतिक आवासों को नष्ट करके उन्हें इंसानों में फैलने के लिए मजबूर कर रहे हैं।     

इस पर हाल ही में किए एक शोध से पता चला है कि इन जूनोटिक बीमारियों को रोकने की लागत उन्हें नियंत्रित करने की तुलना में बहुत कम है। ऐसे में यह महत्वपूर्ण है कि इन बीमारियों को फैलने से पहले ही रोक दिया जाए। देखा जाए तो बचाव किसी भी बीमारी की सबसे अच्छी दवा है। 

अपने इस शोध में वैज्ञानिकों ने इस सदी में इंसानों पर कहर ढा चुकी सभी प्रमुख जूनोटिक बीमारियों का लेखा जोखा भी तैयार किया है। अनुमान है कि यह बीमारियां पिछले करीब 100 वर्षों में करीब 7 करोड़ लोगों की जान ले चुकी हैं। इनमें स्पैनिश इन्फ्लुएंजा जैसी बीमारियां प्रमुख हैं। इस बीमारी के चलते 1918 में 5 करोड़ से ज्यादा लोगों की जान गई थी। इसी तरह एच2एन2 इन्फ्लुएंजा 11 लाख, लासा बुखार 2.5 लाख, एड्स 1.07 करोड़, एच1एन1 2.8 लाख और कोरोनावायरस 40 लाख से ज्यादा लोगों की जान अब तक ले चुका है।    

क्या हैं यह जूनोटिक डिजीज और इंसानों को क्यों बना रहीं हैं अपना निशाना

जानवरों और पक्षियों से इंसानों में फैलने वाली बीमारियों को वैज्ञानिक रूप से जूनोसिस या फिर जूनोटिक डिजीज कहते हैं। आमतौर पर यह बीमारियां तब फैलती हैं जब कोई वायरस अपने मेजबान होस्ट से अलग एक नया होस्ट खोजने में सक्षम हो जाता है। उदाहरण के लिए यदि कोई जानवर किसी खास वायरस से ग्रस्त है और वो किसी प्रकार इंसानों या अन्य जानवरों के संपर्क में आता है तो वो उसे भी संक्रमित कर देता है।

इस तरह यह बीमारियां पूरे समाज में फैलना शुरू कर  देती हैं। इस तरह का प्रसार तब ज्यादा होता है जब यह वायरस इंसान जैसे होस्ट के संपर्क में आता है या फिर उसमें म्यूटेशन होने लगते हैं। देखा जाए तो इंसान और जानवरों के बीच भौतिक नजदीकी इस वायरस को इंसानों में फैलने के लिए आदर्श परिस्थितियां बनाती है।

वैज्ञानिकों की मानें तो जिस तरह से इंसान और प्रकृति के बीच का संतुलन बिगड़ रहा है और वो अपनी बढ़ती लालसा की पूर्ति के लिए प्रकृति पर हावी होता जा रहा है, वो इस तरह की बीमारियों के खतरे को और बढ़ा रहा है। कृषि और शहरों के लिए तेजी से जंगलों को काटा जा रहा है साथ ही जंगली जीवों को भी आहार से लेकर उनके जरूरतों की सिद्धि के लिए मारा जा रहा है। कभी उन्हें पालतू बनाने के लिए तो कभी उनसे मिलने वाले मांस और अन्य उत्पादों के लिए उन्हें पकड़ा या मारा जा रहा है। जो उनमें रहने वाले वायरसों के प्रसार के लिए आदर्श माहौल तैयार कर रहा है। 

यदि पिछले 100 वर्षों से जुड़े आंकड़ों को देखें तो औसतन हर साल करीब 2 वायरस अपने प्राकृतिक वातावरण से निकलकर इंसानों में फैल रहे हैं, लेकिन प्रकृति के विनाश की बढ़ती दर इनके फैलने के खतरे को भी और बढ़ा रही है। 

 शोधकर्ताओं के अनुसार पिछले 50 वर्षों के आंकड़ों को देखें तो 4 प्रमुख जूनोटिक डिजीज ने इंसानों को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है। यह बीमारियां कोविड-19, इबोला, सार्स और एड्स हैं। इनमें से दो महामारियां तो जंगलों के विनाश और वन्यजीवों के व्यापार के कारण ही इंसानों में फैली हैं। यदि चमगादड़ों की बात करें तो उनमें कोरोना, सार्स और इबोला जैसे अनेकों वायरस होते हैं। आमतौर पर अंधेरे जंगलों में रहने वाले यह चमगादड़ महामारी नहीं फैलाते पर जिस तरह से इनके आवासों को नष्ट या प्रभावित किया गया है, उसके चलते यह वायरस इंसानों में फैले रहे हैं।

सुधारने होंगे प्रकृति से बिगड़ते अपने रिश्ते

शोधकर्ताओं की मानें तो इंसानों को प्रकृति के साथ अपने बिगड़ते रिश्तों को सुधारना होगा। इसकी शुरुआत उन उष्णकटिबंधीय वनों के विनाश को रोककर की जा सकती है, जहां मनुष्यों ने खेती या अन्य उद्देश्य के लिए 25 फीसदी से अधिक पेड़ों का सफाया कर दिया है। साथ ही अंतराष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से वन्यजीवों की तस्करी और शिकार किया जा रहा है उसे बंद करने की जरुरत है। चीन में जंगली मांस का व्यापार रोकना होगा। साथ ही दुनिया भर में जंगली और पालतू जानवरों में फैलने वाली बीमारियों की निगरानी और नियंत्रण के कार्यक्रमों में सुधार पर निवेश करना होगा।  

दुनिया के 21 जाने-माने संस्थानों से जुड़े वैज्ञानिकों, महामारी विज्ञानियों, अर्थशास्त्रियों, पारिस्थितिकीविदों और संरक्षण जीवविज्ञानियों द्वारा किए इस अध्ययन के मुताबिक कोविड-19 के कारण जो जीवन क्षति हुई है उससे जुड़ी वार्षिक हानि के केवल 5 फीसदी हिस्से से भविष्य में इन जूनोटिक महामारियों के जोखिम को आधा किया जा सकता है।

इससे पहले जर्नल साइंस में प्रकाशित एक अन्य शोध में माना था कि कोविड-19 से हुए नुकसान का केवल 2 फीसदी हिस्सा भविष्य में महामारियों से सुरक्षित रख सकता है। शोध के मुताबिक अगले 10 वर्षों में वन्यजीवों और जंगलों की रक्षा के लिए किया गया 19.9 लाख करोड़ रुपए का निवेश भविष्य में कोरोनावायरस जैसी महामारियों से बचा सकता है। 

पर्यावरण संरक्षण और बीमारी की प्रारंभिक चरण में ही निगरानी से यह हासिल किया जा सकता है। जर्नल साइंस एडवांसेज में प्रकाशित इस शोध अनुमान है कि इस निवेश की मदद से हर साल इन जूनोटिक बीमारियों से होने वाली 16 लाख मौतों को टाला जा सकता है। साथ ही सालाना 746.6 लाख करोड़ रुपए के नुकसान को रोक सकता है। 

इस शोध में शोधकर्ताओं ने जिन तीन प्रमुख बातों पर गौर करने के लिए कहा हैं उनमें जंगलों के तेजी से होते विनाश को रोकना, वन्यजीवों के शिकार और व्यापार को बेहतर तरीके से नियंत्रित करना और वन्यजीवों में वायरस की वैश्विक निगरानी शामिल है। इससे न केवल महामारियों के खतरे को कम किया जा सकेगा साथ ही जलवायु परिवर्तन से निपटने और जैवविविधता को होते नुकसान को रोकने में भी मदद मिलेगी।

इसके साथ ही शोध में पशु चिकित्सकों और वन्यजीव रोग जीव विज्ञानियों को प्रशिक्षित करने की बात भी कही है। साथ ही इन वायरस जीनोमिक्स के एक ग्लोबल डेटाबेस के निर्माण पर भी बल दिया है। जिससे नए उभरते रोगजनकों के स्रोत का उपयोग उनके प्रसार को धीमा करने या रोकने के लिए किया जा सके।

इस शोध से जुड़े शोधकर्ता आरोन बर्नस्टीन के अनुसार महामारियां अब विकराल रूप लेती जा रही है वो पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा हो गई हैं और अधिक महाद्वीपों को अपनी चपेट में ले रही हैं। ऐसे में इनकी रोकथाम इनके इजाज से कहीं ज्यादा सस्ती है। 

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