महिला दिवस पर विशेष: परिवार से अधिकार तक - अब नेतृत्व की बारी

आठ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है। इससे पूर्व डाउन टू अर्थ की ओर से देश के ऐसे महिला स्वयं सहायता समूहों की कहानी है, जो सशक्तिकरण की पटकथा लिख रहे हैं

By Swasti Pachauri

On: Thursday 02 March 2023
 

ग्रामीण अंचल में स्वयं सहायता समूह की महिलाओं ने न सिर्फ घर-समाज की बांधी हुई दहलीज को लांघा है बल्कि अब वह अधिकारों की वकालत करते हुए अपने सामर्थ्य से शासन में अपना हक-हकूक मांगने लगी हैं। डाउन टू अर्थ ने ऐसे स्वयं सहायता समूहों की पड़ताल की, जो आजीविका से ऊपर उठकर सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों की वकालत कर रही हैं। इन कहानियों को सिलसिलेवार प्रकाशित किया जाएगा। आज पढ़ें, पहली कड़ी

 

फोटो सौजन्य: लूम्स ऑफ लद्दाखराजनीति में महिलाओं का तय होता स्थान नई प्रगति की पहचान बन रहा

इन दिनों “नारी शक्ति” का विषय वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था और विभिन्न राजनीतिक दलों के लिए एक प्रमुख विषय है। इसे दलों के चुनावी घोषणापत्रों में लगातार देखा जा सकता है। बजट 2020 को रेखांकित करने वाले नारे “नारी तू नारायणी” से लेकर इस साल गणतंत्र दिवस समारोह तक- “नारी शक्ति” या “महिला सशक्तिकरण” की थीम ने गति पकड़ी है।

2019 के बाद से मतदान में महिलाओं की भागीदारी लगातार बढ़ रही है। 2019 के आम चुनावों में महिलाओं और पुरुषों ने लगभग बराबर संख्या में मतदान किया। यदि नए आंकड़ों को देखें तो 2019 के बाद से महिला मतदाताओं ने पुरुष मतदाताओं के मुकाबले में 3.6 फीसदी की तुलना में 5.1 फीसदी की छलांग लगाई है। महिलाएं राजनीतिक दलों के लिए सबसे महत्वपूर्ण निर्वाचन क्षेत्र के रूप में उभरी हैं।

यही कारण है कि राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणाओं में महिला मतदाताओं और उनके हितों को शामिल करने और उन पर फोकस करने की रणनीति लगातार बना रहे हैं।

मनरेगा, स्वच्छ भारत अभियान के “इज्जत घर”, उज्ज्वला के गैस कनेक्शन, जल जीवन मिशन के तत्वावधान में नल-जल आपूर्ति, गरीबी को कम करने और महिलाओं के संघर्ष को कम करने के उद्देश्य से मजदूरी में लैंगिक समानता, महिलाओं को मुफ्त बस और मेट्रो की सवारी और अंत में महिलाओं के नेतृत्व वाले स्वयं सहायता समूहों को आर्थिक विकास के सबसे महत्वपूर्ण कारक के रूप में मान्यता देना शासन प्रणाली के प्रमुख एजेंडे पर आ गया है।

वहीं, वैश्विक स्तर पर महिलाओं के भूमि अधिकारों, महिला उत्पादक समूहों और अन्य पहलों पर सतत विकास लक्ष्य-5 (एसडीजी 5) यानी कि लैंगिक समानता के लक्ष्य लगातार महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं।

लेकिन इन सब के बीच ग्रामीण महिलाएं और महिला स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) को भी अब राजनीति और नेताओं की तरफ से महत्व मिलने लगा है। भारत में लगभग 1.2 करोड़ एसएचजी हैं, जिनमें 88 प्रतिशत महिला स्वयं सहायता समूह (आर्थिक सर्वेक्षण, 2022-23) हैं जो विभिन्न घरेलू व्यवसायों और छोटे उद्यमों में लगे हुए हैं। इस वजह से सरकार लगातार महिला स्वयं सहायता समूहों को तरजीह दे रही है।

मध्य प्रदेश के श्योपुर जहां अगले साल चुनाव होने हैं, वहां के कराहल क्षेत्र में पिछले साल जनसभा में मानव शक्ति का महत्व बताते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि स्वयं सहायता समूह राष्ट्र-सहायता समूहों में बदल जाएंगे।

इसी बात को ध्यान में रखते हुए 2023 का बजट एसएचजी के नेतृत्व वाली विकास क्रांति को आगे बढ़ाने के महत्व को पहचानता है।

यह बजट इन समूहों को आगे बढ़ाने उऩ्हें बड़े उत्पादक समूह बनाकर, आर्थिक सशक्तिकरण के अगले चरण में ले जाने की योजना पर केंद्रित है। महिलाओं और लड़कियों को आर्थिक रूप से आगे बढ़ाने के लिए, बजट 2023 ने “महिला सम्मान बचत पत्र” नामक एक नई योजना भी शुरू की है। लड़कियों और महिलाओं के लिए एकमुश्त बचत योजना, उन्हें कम से कम 2 लाख रुपये तक बचाने का अवसर प्रदान करती है। इस पर 7.5 फीसदी का निश्चित ब्याज दर मिलेगा।

महिला स्वयं सहायता समूह की ताकत तब सबसे ज्यादा सामने आई जब हमारे सामने कोविड-19 का सबसे बड़ा संकट सामने आया। कोविड-19 महामारी नियंत्रण के लिए लगाए गए लॉकडाउन में भारत के स्वयं सहायता समूहों ने कई मिसालें पेश कीं।

मसलन, कोविड-19 सुरक्षात्मक उपकरण, मास्क और सैनिटाइजर बनाना, समुदायों और लोगों को टीकाकरण के महत्व के बारे में शिक्षित करना, सामाजिक दूरी के बारे में जागरूकता फैलाना और सामुदायिक रसोई का नेतृत्व करने में ग्रामीण महिलाएं सबसे आगे रहीं।

ग्रामीण महिलाओं के समूहों की इस शक्ति को पहचानते हुए राष्ट्रीय स्तर पर गरीब परिवारों को एसएचजी से जोड़ने के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय के तहत दीनदयाल अंत्योदय योजना-राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (डीएवाई-एनआरएलएम) चलाया जा रहा है। यह मिशन अनिवार्य करता है कि प्रत्येक गरीब ग्रामीण परिवार से कम से कम एक महिला स्वयं सहायता समूह से जुड़े।

एसएचजी महिलाओं के उत्थान का एक अहम जरिया बनकर उभरा है। मिसाल के तौर पर एसएचजी न सिर्फ महिलाओं को वित्तीय मजबूती दे रहे हैं बल्कि उन्हें स्वामित्व अधिकार की तरफ भी बढ़ा रहे हैं। खाद्य और कृषि संगठन का एक अध्ययन यह बताता है कि भूमि और स्वामित्व अधिकारों के माध्यम से महिलाओं को सशक्त बनाने से विकासशील देशों में कृषि उत्पादन 2.5 से 4 प्रतिशत तक बढ़ सकता है। यह दुनिया भर में भूख को 12-17 प्रतिशत तक कम कर सकता है।

इसी तरह प्रदीप पांडा और बीना अग्रवाल के एक अलग अध्ययन में भारत के केरल राज्य में यह पाया गया कि स्वामित्व अधिकार वाली महिलाओं पर शारीरिक घरेलू हिंसा में कमी आई है। पारंपरिक एसएचजी से हटकर आजीविका विविधीकरण भी महिलाओं को नए आयाम दे रहा है।

आजीविका विविधीकरण के जरिए न सिर्फ महिलाएं आर्थिक सशक्त बन रही हैं बल्कि वह पुरुष प्रधान क्षेत्रों में भी तेजी से कदम रख रही हैं। रानी मिस्त्री, बैंक सखी, पशु सखी और पोषण सखी के रूप में एसएचजी महिलाओं ने यह साबित करके दिखाया है। विभिन्न सखियों के रूप में महिलाएं राष्ट्रीय विकास के एजेंडे को लागू करने में मदद करने के लिए जमीनी स्तर पर सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में काम कर रही हैं और सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की महत्वपूर्ण घटक बन चुकी हैं।

यही वजह है कि महिला एसडीजी को और ज्यादा गतिशील बनाने के लिए सरकारें उन्हें लक्ष्य कर रही हैं। 2021 में, ग्रामीण विकास मंत्रालय ने “लखपति एसएचजी” की अवधारणा की परिकल्पना की, जिसका लक्ष्य ग्रामीण महिलाओं को प्रति वर्ष कम से कम एक लाख रुपये कमाने का लक्ष्य देना था। इसी तरह ओडिशा में “मिशन शक्ति” ने राज्य में महिलाओं के नेतृत्व वाले स्वयं सहायता समूहों के विशाल नेटवर्क को प्रमुखता दी है।

आजीविका विविधीकरण उनकी सामाजिक और ऊर्ध्वगामी गतिशीलता को प्रोत्साहित करता है। यह समय है कि एसएचजी सदस्यों द्वारा उत्पन्न नेतृत्व कौशल और सामाजिक पूंजी का उनकी एजेंसी और भागीदारी दोनों को राजनीतिक रूप से सशक्त बनाकर प्रभावी ढंग से उपयोग किया जाए। उदाहरण के लिए पंचायती राज संस्थानों (पीआरआई) में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण, कुछ राज्यों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण, एक सही दिशा में उठाया गया कदम है।

हालांकि इस आरक्षण में सरपंच पति या प्रॉक्सी सरपंच एक बड़ी समस्या है। स्वयं सहायता समूह अब सरकारी योजनाओं के लाभार्थी नहीं रह गए हैं। वे अब अधिकारों की वकालत करने वाले संस्थान बन रहे हैं और राजनीतिक दलों ने इसे समझ लिया है। कई एसएचजी ने अपने अधिकारों की वकालत करना शुरू कर दिया है (उदाहरण के लिए : केरल में कुदुम्बश्री) और वे दबाव समूहों के माध्यम से अपनी आजीविका को बनाए रखते हुए एक्टिविज्म कर रहे हैं।

उनके मजबूत सामाजिक नेटवर्क उन्हें गुण और प्रदर्शन प्रभावों के कारण राजनीतिक दलों के लिए आवश्यक बनाते हैं जो महिला वोट बैंक को और मजबूत करने में मदद करते हैं। हालांकि, अब भी उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए भी बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है।

राजनीतिक पार्टियों ने महिला एसएचजी सदस्यों की विशाल मानवीय, सामाजिक और आर्थिक क्षमता को महसूस किया है। अब यह वक्त है कि सक्रिय राजनीति में उनकी भागीदारी बढ़ाने के लिए प्रयास किए जाएं। महिला उम्मीदवारों को नामांकन दाखिल करने के लिए प्रोत्साहित करना एक स्वागत योग्य कदम है।

इसके अलावा बीजू जनता दल ने धामनगर विधानसभा उपचुनाव के लिए 2022 में एक महिला एसएचजी सदस्य को नामांकित किया था, पिछले उत्तर प्रदेश चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) द्वारा चुनाव में महिलाओं की भागीदारी के लिए 40 प्रतिशत टिकट आरक्षण किया जाना और 17वीं लोकसभा में अब तक की उच्च 78 महिलाओं की संख्या एक सकारात्मक संदेश है। यह महिलाओं के समग्र सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए मार्ग प्रशस्त करती है। कल पढ़ें, अगली कहानी- 

यह लेख डाउन टू अर्थ, हिंदी के मार्च 2023 अंक में प्रकाशित हो चुका है

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