भारत सहित दुनिया की 20 करोड़ महिलाओं का हो चुका है खतना

6 फरवरी को इंटरनेशनल डे ऑफ जीरो टॉलरेंस फॉर एफजीएम पर विशेष

By Bhagirath Srivas

On: Friday 05 February 2021
 
Photo: wikimedia commons

दुनियाभर में करोड़ों महिलाएं एक ऐसी अमानवीय त्रासदी से गुजरती हैं जिसे फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन (एफजीएम) यानी महिलाओं का खतना कहा जाता है। भारत भी इस बुराई से अछूता नहीं है। भारत में दाऊदी बोहरा समुदाय की महिलाएं इस दर्दनाक त्रासदी को लगातार झेल रही हैं। राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी महिलाओं का कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है लेकिन समुदाय की महिलाओं पर गैर लाभकारी संगठन साहियो का 2015-16 में किया गया सर्वेक्षण बताता है कि इस समुदाय की करीब 80 प्रतिशत महिलाओं का खतना हो चुका है। सर्वेक्षण में भारत की 131 बोहरा समुदाय की महिलाएं शामिल थीं। इस प्रथा के समर्थकों का तर्क है कि वे अपनी धार्मिक परंपराओं के निर्वहन और महिलाओं की कामुकता को नियंत्रित करने के लिए इसे अंजाम देते हैं। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, दुनियाभर के 30 देशों में करीब 20 करोड़ महिलाओं का खतना हो चुका है। अफ्रीका, मध्य पूर्व और एशिया में इस प्रथा का प्रचलन सबसे ज्यादा है। यह खतना मुख्य रूप से जन्म के बाद 15 साल की आयु तक हो जाता है। यह मुख्य रूप से चार प्रकार से होता है जिसमें बच्चियों के जननांग (क्लाइटोरिस) के ऊपरी हिस्से को आंशिक या पूरी तरह काट दिया जाता है। इस प्रथा से अत्यधिक रक्तस्राव होता है और छोटी उम्र की बच्चियों असहनीय पीड़ा से गुजरना पड़ता है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, यह महिलाओं और बच्चियों के मानवाधिकारों का हनन है और इस पर तत्काल रोक लगाने की जरूरत है।  

डब्ल्यूएचओ के डिपार्टमेंट ऑफ सेक्सुअल एंड रिप्रॉडक्टिव हेल्थ एंड रिसर्च के निदेशक इयान आस्क्यू के अनुसार, “एफजीएम केवल मानवाधिकारों का ही गंभीर हनन नहीं है, बल्कि इससे लाखों लड़कियों व महिलाओं के मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य पर भी गंभीर असर पड़ता है।” उनका कहना है कि इस बुराई को खत्म करने के लिए अधिक से अधिक निवेश की जरूरत है।

डब्ल्यूएचओ के अनुसार एफजीएम महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव चरम रूप है। यह गहराई तक जड़ जमा चुकी लैंगिंग असमानता को भी प्रदर्शित करता है। संगठन का कहना है कि यह मुख्य रूप से छोटी उम्र में किया जाता है जो बाल अधिकारों का भी हनन है। यह स्वास्थ्य के अधिकार, सुरक्षा और शारीरिक अखंडता का भी हनन है।

साहियो द्वारा फरवरी 2017 में दाऊदी बोहरा समुदाय पर किया गया सर्वेक्षण बताता है कि दाऊदी बोहरा समुदाय की अधिकांश आबादी भारत और पाकिस्तान में हैं लेकिन पिछले कुछ दशकों में यह समुदाय मध्य पूर्व, पूर्वी अफ्रीका, यूरोप, उत्तरी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और एशिया के अन्य हिस्सों में चला गया है। साहियो द्वारा इन क्षेत्रों में रहने वाली 385 महिलाओं का ऑनलाइन सर्वेक्षण किया गया। इनमें से 80 प्रतिशत ने माना कि उनका एफसीजी किया गया है। इन महिलाओं एफसीजी के चार प्रमुख कारण बताए। पहला और सबसे बड़ा कारण था धार्मिक आधार (56 प्रतिशत), दूसरा था कामुकता में कमी (45 प्रतिशत), तीसरा परंपरा का निर्वहन (42 प्रतिशत) और चौथा कारण था शारीरिक स्वच्छता (27 प्रतिशत)।

संयुक्त राष्ट्र ने एफजीएम को खत्म करने के लिए इसे सतत विकास लक्ष्यों के तहत लैंगिग समानता के लक्ष्य में शामिल किया है। 2030 तक इस प्रथा को खत्म करने का लक्ष्य है। दुनिया के कई देशों में इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। लेकिन भारत में इस पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया है।

साहियो की सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, इंडोनिशिया में 14 साल से कम उम्र की आधी लड़कियां एफजीएम से गुजरी हैं। यह प्रथा ओमान, यमन, संयुक्त अरब अमीरात, पाकिस्तान, ईराक, ईरान, मलेशिया, सिंगापुर, थाइलैंड, श्रीलंका, मालदीप, ब्रुनेई, रूस के दागेस्तान और बांग्लादेश में प्रचलन में है। वैश्विक स्तर पर होने वाले पलायन के कारण यह प्रथा यूरोप, उत्तरी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में भी पहुंच गई है।

इतिहास की जड़ें

यह प्रथा आमतौर पर मुस्लिम समुदाय में प्रचलित है लेकिन कैमरून, मिस्र, माली, सेनेगल, नाइजीरिया, नाइजर, केन्या, सिएया लियोन व तंजानिया में बसे ईसाई धर्म के बहुत से समुदाय में भी इसका प्रचलन है। इथियोपिया के बेला इजराइल यहूदियों में इसका प्रचलन है। अब तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि यह प्रथा कब शुरू हुई थी लेकिन माना जाता है कि ईसाइयत और इस्लाम के पहले से इसका अस्तित्व है। यानी यह प्रथा 2000 साल से भी पुरानी है। ग्रीस इतिहासकार हीरोडोटस के अनुसार, मि्रस में यह प्रथा 500 ईसापूर्व से है। कुछ इतिहासकारों का मत है कि मिस्र की ममियों में भी यह पाया गया है।

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