मेडिकल की पढ़ाई के लिए विदेशों में क्यों जाते हैं भारतीय छात्र?

भारत के मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश को लेकर काफी प्रतिस्पर्धा है और यहां ट्यूशन फीस भी काफी अधिक है

By Taran Deol

On: Wednesday 02 March 2022
 
मेडिकल की पढ़ाई के लिए यूक्रेन गए छात्रों के बाद भारत में यह बहस जोर पकड़ रही है कि आखिर भारतीय छात्र क्यों विदेश जाते हैं। फोटो : twitter@ajplus

यूक्रेन पर रूसी आक्रमण ने भारत की मेडिकल शिक्षा प्रणाली की दुर्दशा को उजागर कर दिया है। केंद्र सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, वहां फंसे 18,095 भारतीय छात्रों में से करीब 90 फीसदी मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं।

वहां से सुरक्षित निकलने के लिए सीमावर्ती क्षेत्रों जैसे, पोलैंड और अन्य पड़ोसी देशों तक पहुंचने के लिए कई लोग मीलों पैदल चलकर गए। भारत सरकार फंसे हुए अधिकांश छात्रों को घर लाने में कामयाब रही, लेकिन कई अभी भी वहां डर में जी रहे हैं। सरकारी सूत्रों के अनुसार, पूर्वी यूक्रेन के खार्किव शहर में गोलाबारी के दौरान एक भारतीय छात्र की मौत हो गई है।

26 फरवरी, 2022 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत के निजी क्षेत्र से आग्रह किया कि वे भारत में चिकित्सा शिक्षा प्रणाली को मजबूत करने के लिए कदम बढ़ाए। उन्होंने कहा, “आज हमारे बच्चे दुनिया के छोटे देशों में पढ़ने जा रहे हैं, खासकर चिकित्सा शिक्षा के लिए। भाषा की समस्या भी है, फिर भी वे जा रहे हैं। अरबों रुपये देश से बाहर जा रहे हैं।"

दिसंबर 2021 में लोकसभा में स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा साझा किए गए आंकड़ों के अनुसार, भारत में 88,120 सीटें बैचलर ऑफ मेडिसिन बैचलर ऑफ सर्जरी (एमबीबीएस) की और 27,498 सीटें बैचलर ऑफ डेंटल सर्जरी (बीडीएस) की उपलब्ध हैं। जबकि 2021 में इन सीटों के लिए 16 लाख उम्मीदवारों ने नेशनल एलिजिबिलिटी कम एंट्रेंस टेस्ट दिया था। साल 2020 में यह आंकड़ा 13 लाख था।

यह आकड़ा डॉक्टर बनने के इच्छुक छात्रों की संख्या और उन्हें प्रशिक्षित करने की भारत की क्षमता में अंतर को दर्शाता है।

यह स्थिति तब है जब 2014 के बाद से अंडरग्रेजुएट सीटों की संख्या (51,348) में अब तक 72 प्रतिशत की वृद्धि की जा चुकी है। संसद में साझा की गई जानकारी के अनुसार, मेडिकल कॉलेजों की कुल संख्या भी 2021-2022 में 2013-2014 के 387 से बढ़कर 596 हो गई है।

भारत में सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों में एक-एक सीट के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा होती है और फीस भी बहुत अधिक है। सरकारी कॉलेजों में मेडिकल कोर्स की औसत वार्षिक फीस 2 लाख रुपये और निजी कॉलेजों में 10-15 लाख रुपये है।

यानी साढ़े चार साल के कोर्स के लिए छात्रों को सरकारी कॉलेजों में 14 लाख और निजी संस्थानों में 60-70 लाख रुपये खर्च करने पड़ते है।

यूक्रेन, रूस, चीन और फिलीपींस जैसे देशों में यही पढाई भारत की तुलना में कम प्रतिस्पर्धी और सस्ता है।

यूक्रेन में छह साल के कोर्स की लागत कथित तौर पर 15-17 लाख रुपये के बीच है। भारत में सरकारी कॉलेजों की तुलना में ट्यूशन फीस से थोड़ी अधिक है लेकिन इसमें प्रवेश पाने के लिए होने वाली प्रतिस्पर्धा बहुत कम है।

नेशनल एमएससी मेडिकल टीचर्स एसोसिएशन के संस्थापक सदस्य डॉ अर्जुन मैत्रा ने डाउन टू अर्थ को बताया: “भारत के सर्वश्रेष्ठ छात्र सरकारी मेडिकल कॉलेजों में जाते हैं। और जो प्रवेश नहीं पाते, वे भारत के निजी मेडिकल कॉलेजों के बजाय यूक्रेन और रूस जैसे देशों का चयन करते हैं।“

यूक्रेन जैसे देशों से लौटने वाले छात्र, जो भारत में मेडिकल प्रैक्टिस करना चाहते हैं, उन्हें फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट्स एक्जामिनेशन पास करने की आवश्यकता होती है, जिसमें कथित तौर पर केवल 10-20 प्रतिशत छात्र ही पास हो पाते है। जो छात्र संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और न्यूजीलैंड से पढ़ कर आते हैं, उन्हें ये एक्जामिनेशन देने की आवश्यकता नहीं होती है।

नरेंद्र मोदी सरकार स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे के विस्तार पर जोर दे रही है, लेकिन सिर्फ मेडिकल कॉलेजों की संख्या बढ़ाना ही सबसे अच्छा समाधान नहीं हो सकता। मैत्रा ने कहा, "सरकार जितने चाहें उतने नए कॉलेज बना सकती है, लेकिन जब तक वे शिक्षकों की कमी को पूरा नहीं करते, तब तक कुछ नहीं किया जा सकता है।"

वह कहते हैं, “अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) जैसे प्रमुख संस्थानों में ये आंकड़े अच्छे हैं। लेकिन ये संख्या में कम हैं। रोजगार के अवसर पैदा करना सरकार की जिम्मेदारी है।"

मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया चलाने वाले बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के पूर्व अध्यक्ष डॉ केके तलवार तर्क देते हैं कि गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा शिक्षा महत्वपूर्ण है। एक ऐसे मानक के अनुसार शिक्षा हो, जो एनईईटी द्वारा सुनिश्चित किया जाता है।

वह कहते हैं, “सिर्फ इसलिए ज्यादा सीटें नहीं बढ़ाई जानी चाहिए क्योंकि इतने सारे लोग प्रवेश परीक्षा में शामिल हो रहे हैं। एक फिल्टर रखे जाने की जरूरत है और एनईईटी इसी उद्देश्य को पूरा करता है।“
तलवार का मानना है कि हम इतने डॉक्टर नहीं बना सकते हैं कि हम उनका ठीक से इस्तेमाल तक न कर सकें. भारत में मेडिकल सीटें पर्याप्त हैं।

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