जैविक रूप से बात करें तो समाज को पुरुषों और महिलाओं के द्विवर्ण में विभाजित किया जाता है, जो स्पष्ट यौन अंतरों पर ही आधारित होते हैं।
भारत का ट्रांसजेंडर समुदाय अपने हक की लड़ाई लड़ रहा है। इसकी संख्या लगभग 50 लाख है। पिछले साल नवंबर में केंद्र सरकार ने ट्रांसजेंडर पर्सन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) बिल 2016 में प्रस्तावित सुझावों को मानने से इनकार कर दिया। संसदीय कमिटी ने प्रस्ताव में ट्रांसजेंडरों की परिभाषा का विरोध किया, जिसमें “आंशिक महिला या पुरूष”, “महिला और पुरुष का मिश्रण” या “ना महिला और न ही पुरुष” जो वैश्विक नियमों के खिलाफ जाता है और खुद की निर्धारित लिंग पहचान का अधिकार का उल्लंघन करती है।
विधेयक के आलोचकों ने विधेयक के पुराने संस्करण पर जोर दिया, जिसमें उन्हें एक पुरुष, एक महिला या एक ट्रांसजेंडर के तौर पर मान्यता दी थी। वर्तमान विधेयक उस अधिकार को छीनता है। इसमें सबसे बुरी बात यह है कि यह किसी ट्रांसजेंडर की पहचान करने का अधिकार जिले की एक समिति को देती है, जिसमें एक मुख्य चिकित्सा अधिकारी, एक मनोवैज्ञानिक, एक सामाजिक कार्यकर्ता और एक सदस्य ट्रांसजेंडर समुदाय का होता है। हालांकि इसमें इस बात का जिक्र नहीं किया गया है कि वे किन बिंदुओं के आधार पर इनकी पहचान करेंगे।
लिंग को अक्सर सेक्स के सम्मिश्रित किया जाता है। जैविक रूप से बात करें तो समाज को पुरुषों और महिलाओं के द्विवर्ण में विभाजित किया जाता है, जो स्पष्ट यौन अंतरों पर ही आधारित होते हैं। इसमें लिंग का अर्थ है पुरुष और योनि का अर्थ है महिला। यही आपके लिए सेक्स है। जो इस बक्से में फिट नहीं बैठते उन्हें चिकित्सा के जरिए “ठीक” किया जाता है और कोई एक लिंग दिया जाता है या फिर उन्हें ट्रांसजेंडरों (उदाहरण के लिए भारत में किन्नर) के तौर पर लिया जाता है और वह भी बेहद कम नागरिक अधिकारों के साथ।
लेकिन सेक्स के बुनियादी जैविक आधार पर, हम पुरुषों ने एक बड़ा खाका बनाया है कि मर्दाना या स्त्रैयण होने का क्या मतलब है। जो भी व्यक्ति धारणाओं के इन बक्सों को तोड़ने की कोशिश करता है, वह हंसी का पात्र बनता है। यहां तक कि इस विक्षिप्तता को वर्णन करने के लिए एक बड़ा शब्दकोश भी है, जिसमें स्त्रैण, मर्दाना, और छक्का जैसे शब्द हैं।
लिंग एक साफ सुथरी सफेद चादर है, क्रिया के बाद लिंगभेद परिभाषित होता है। लंबे समय तक लिंग को मर्दाना, स्त्री या नपुंसक के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन, पिछली शताब्दी के मध्य में, जब सिमोन डी बुवायर ने लिखा, “लिंग का इस्तेमाल भिन्नताओं का वर्णन करने के लिए किया जाता है” नारीवादियों ने लिंग को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और मनमानी परिभाषाओं और उन पर थोपी गई भूमिकाओं की अवहेलना की।
वैज्ञानिक भी मर्दाना और स्त्रैयण के द्विगुण से प्रतिरक्षित नहीं हैं। 1991 में मनोवैज्ञानिक एमिली मार्टिन ने “द ऐग ऐंड द स्पर्म” के साथ वर्णन किया कि कैसे अधिकतर लेखों और पुस्तकों में प्रजनन जीव विज्ञान पर शुक्राणुओं को “सक्रिय, स्वतंत्र, मजबूत और शक्तिशाली” कहा जाता है, जबकि अंडे को निडर, वैतन्यवादी महिलाओं की मिसाल में चित्रित किया गया था, जो आने वाले अधिकारों के लिए इंतजार कर रहे थे और उन्हें पसंद करते थे। पक्का होने के लिए, लोगों (खासतौर पर यूरोपियन बुद्धिजीवी) को चीजों को भिन्न करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, जैसे सही/गलत, प्रकृति/संस्कृति, बुद्धि/शरीर, इसमें महिला/पुरुष नहीं है। भाषा और हकीकत के बीच टैंगो में भ्रामक नस्लों का जादू रहता है, जहां केवल अराजकता का शासन होता है।
जिंदगी को देखने के नजरिए से पूर्व की संस्कृति ज्यादा गड़बड़ और धुंधली है। वाबीसाबी के पारंपरिक जापानी सौंदर्यशास्त्र, जो अपूर्णता और अदृश्यता का सम्मान करते हैं, सिर्फ एक उदाहरण है। हिंदू अवधारणाओं में भी माया और लीला का वर्णन है। जो बहुवाद की वास्तविकता को एक भ्रम (माया) और जो दिव्य नाटक (लीला) के लिए बनाई गई है, एक अन्य उदाहरण है। यहां तक कि, आधुनिकीरण से पहले यूरोपियन भी सेक्स को कई सतहों से देखते थे।
अमेरिकन इतिहासकार थॉमस लैकुअर ने 1990 में लिखी अपनी किताब “मेकिंग सेक्स” में लिखा है कि वे सेक्स को एक पतली पट्टी के तौर पर देखते हैं, जिसमें महिला का शरीर पुरुष के शरीर का ही एक अलग रूप है, दूसरे शब्दों में कहें तो उसका अपना कोई लिंग था ही नहीं।
अब विज्ञान भी सेक्स और लिंग के भेद को साफ करने की शुरुआत कर रहा है। क्लारे आइंसवर्थ ने 2015 में “सेक्स रिडिफाइन नेचर” में कहा कि सेक्स एक बाइनरी की तुलना में स्पेक्ट्रम है। 2015 में तेल अवीव यूनिवर्सिटी के डाफ्ना जोएल ने महिला और पुरुषों के 1400 से ज्यादा एमआरआई स्कैन देखे और पाया कि वे अलग होने की जगह ज्यादा एक जैसे हैं। हर महिला और पुरुष का दिमाग पच्चीकारी जैसा था।
दिलचस्प बात यह है कि यह विरोधाभास है कि लैंगिक मस्तिष्क भी एक कल्पना का प्रतीक है, जिसमें लिंग एक सामाजिक निर्माण होता है। एलजीबीटी समुदाय को इसका आनंद लेना चाहिए। वार्विक विश्वविद्यालय की राजनीतिक फिलॉस्फर रेबेक्का रेयली कूपर कहती हैं, “यदि लिंग वास्तव में स्पैक्ट्रम है तो इसका मतलब यह नहीं है कि प्रत्येक जिंदा व्यक्ति गैर-बाइनेरी है? यदि ऐसा है तो इसमें कैसे किसी व्यक्ति के लिंग में भेद किया जा सकता है।” वह जोर देकर कहती हैं कि इस गतिरोध से बाहर आने का एकमात्र तरीका लिंग को समाप्त करना है। वह कहती हैं, “आपको इसकी जरूरत नहीं है” वह लिखती हैं, “लिंग के गहरे, आंतरिक और आवश्यक अनुभव के लिए जरूरी है कि इसे सिर्फ बाह्य रूप में न देखें।” दूसरे शब्दों में कहें तो जो आप हैं, वहीं रहें, दूसरों के लिंग के बारे में न सोचें।
लेकिन एक नारीवादी लेखक जूडिथ बटलर ने 1990 में अपनी किताब “जेंडर ट्रबल” में लिखा कि हम चाहकर भी अपने लिंग के नहीं हो सकते और इसका प्रकृति या संस्कृति से कोई लेना देना नहीं है। यह सिर्फ वही है, जो कुछ शब्द और काम बार-बार होने पर हमारे सामने आते हैं।
अभी के लिए, उन्हें अपनी पहचान चुनने का अधिकार दिया जाना चाहिए, चाहे जो भी लिंग वह अपने दिल से चुनें। यह उनकी तरफ पहला कदम हो सकता है। और इसके बाद भी एक गहन दार्शनिक अर्थ में कहें तो हम सभी ट्रांसजेंडर हैं।
(यह मासिक खंड देश काल के अनुसार विज्ञान और पर्यावरण के विषय में आधुनिक विचारों के उलझाव को सुलझाने के लिए प्रयासरत है)
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