आधे से ज्यादा आदिवासियों ने घर छोड़ा

आदिवासी खेती से मुंह मोड़ रहे हैं। हर दूसरा आदिवासी परिवार असंगठित क्षेत्र में मजदूरी कर गुजर-बसर को मजबूर है

By Richard Mahapatra, Bhagirath Srivas

On: Wednesday 21 November 2018
 
हालिया दशक में आदिवासी खेतीबाड़ी से विमुख हुए हैं और बड़ी तादाद में खेतिहर मजदूर बने हैं। Credit: Vikas Choudhary

भारत में आदिवासियों की भौगौलिक स्थिति तेजी से बदल रही है। देश की करीब 55 प्रतिशत आदिवासी आबादी अपने परंपरागत आवास से बाहर रहती है। यह सर्वविदित है कि आदिवासियों का पलायन आर्थिक संकट के कारण बढ़ रहा है लेकिन हाल ही में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट “ट्राइबल हेल्थ ऑफ इंडिया” इस चिंताजनक तथ्य के कुछ अन्य पहलुओं पर रोशनी डालती है।

रिपोर्ट के मुताबिक, देश में आदिवासियों की 104 मिलियन आबादी है। इसमें आधी से अधिक आबादी 809 आदिवासी बहुल क्षेत्रों से बाहर रहती है। रिपोर्ट में इस तथ्य के समर्थन में 2011 की जनगणना का हवाला दिया गया है। 2001 की जनगणना में जिन गांवों में 100 प्रतिशत आदिवासी थे, 2011 की जनगणना में इन आदिवासियों की संख्या 32 प्रतिशत कम हो गई।

रिपोर्ट में कहा गया है, “आदिवासी जीवनयापन और शैक्षणिक अवसरों के लिए आदिवासी क्षेत्रों से लेकर गैर आदिवासी क्षेत्रों तक आंदोलन कर रहे हैं।” रिपोर्ट में आदिवासियों के पलायन के लिए मुख्य रूप से आजीविका के संकट को जिम्मेदार माना गया है।   

भारत के आदिवासी अपने जीवनयापन के लिए कृषि और वनों पर अत्यधिक निर्भर है। एक तरफ जहां 43 प्रतिशत गैर आदिवासी कृषि पर निर्भर हैं, वहीं दूसरी तरफ 66 प्रतिशत आदिवासी गुजर बसर के लिए इन प्राथमिक स्रोतों पर आश्रित हैं। हालिया दशक में आदिवासी खेतीबाड़ी से विमुख हुए हैं और बड़ी तादाद में खेतिहर मजदूर बने हैं। पिछले एक दशक में 3.5 मिलियन आदिवासियों ने खेती और अन्य संबंधित गतिविधियां छोड़ी है। वर्ष 2001 और 2011 की जनगणना के बीच 10 प्रतिशत आदिवासी किसान कम हो गए जबकि खेतीहर मजदूरों की संख्या में 9 प्रतिशत इजाफा हुआ।

यह संकेत है कि प्रत्यक्ष खेती लाभ देने की स्थिति में नहीं है या लोगों के पास खेती में निवेश के लिए संसाधन नहीं हैं। लेकिन इसका कोई विकल्प न होने के कारण लोग असंगठित क्षेत्र में मजदूरी कर रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि विस्थापन और पलायन के कारण बड़ी संख्या में आदिवासी निर्माण क्षेत्र में ठेका मजदूर और शहरों में घरेलू नौकर बन रहे हैं। वर्तमान में हर दूसरा आदिवासी परिवार जीवनयापन के लिए मजदूरी पर निर्भर है।”  

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