अपनी सरकार से क्यों नाराज है केरल के इस गांव के लोग?

केरल के एक गांव के जलवायु परिवर्तन शरणार्थी नहीं चाहते कि स्कूल खुले

On: Friday 18 February 2022
 

जेयू भावाप्रिया

केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम के सीमांत में स्थित गांव वालियाथुरा के मछुआरे भयावह तटीय कटाव के चलते अपना घर, अपनी जमीन और जीविका खो चुके हैं और साल 2018 से वे एक सरकारी स्कूल की इमारत में रह रहे हैं। समुद्र का जलस्तर बढ़ने और वाणिज्यिक निर्माण के चलते राज्य के वालियाथुरा, बीमापल्ली, विझिंदम, अझीमाला और पुल्लुविला तटों में लगातार कटाव हो रहा है।

ओखी चक्रवात ने 78 साल की सिल्वा मैरी के आसपास के घरों को बुरी तरह तहस नहस कर दिया, तो उन्होंने अपनी बेटी, दामाद और दो नातियों के साथ उक्त स्कूल के एक कमरे में शरण ली। इस स्कूल को सितंबर 2018 में आधिकारिक तौर पर राहत शिविर में तब्दील कर दिया गया था।

मैरी को तो चक्रवात के बाद तत्काल सिर छिपाने के लिए ठिकाना मिल गया था, लेकिन एक डर उनमें था कि जब स्कूल खुलेगा, तो उन्हें स्कूल से निकाल दिया जाएगा। समुद्र के बढ़ते जलस्तर के चलते अपना घर खो चुके मछुआरा टी जॉनी कहते हैं, “स्कूल में रह रहे लोगों लिए नए ठिकाने का विकल्प दिए बिना पूर्व में कई बार ये कोशिश की गई कि स्कूल खोलने के बहाने यहां बने राहत शिविर को बंद कर दिया जाए।”

वह कहते हैं, “कोरोना महामारी की दस्तक से करीब एक महीने पहले साल 2020 के जनवरी में भी ऐसी ही कोशिश की गई थी। फिर कोविड-19 महामारी के चलते लॉकडाउन लग गया और स्कूल बंद कर दिए गए। यह स्थिति हमारे लिए वरदान बनकर आई।”

सरकारी अनुमान के मुताबिक, ओखी चक्रवात और समुद्र का जलस्तर बढ़ने से हो रहे कटाव के चलते पिछले चार सालों में अपनी जमीन और मकान खो देने वाले वालियाथुरा के करीब 100 मछुआरा परिवार या तो राहत शिविर में या कहीं और किराए के कमरों में रह रहे हैं।

तट पर सुरक्षित घर

सरकार ने प्रभावित हर परिवार को ठिकाने का विकल्प खुद तलाशने के लिए 10 लाख रुपए (6 लाख रुपए जमीन खरीदने के लिए और 4 लाख रुपए मकान बनाने के लिए) मुआवजे के तौर पर देने का प्रस्ताव दिया है। लेकिन, विस्थापित ग्रामीणों ने प्रस्तावित मुआवजे को अपर्याप्त करार दिया और वे चाहते हैं कि सरकार उनके लिए सुरक्षित मकान बनाए।

सिल्वा मैरी कहती हैं, “तिरुअनंतपुरम में जमीन की जो मौजूदा कीमत चल रही है, उसमें मुआवजे की रकम से तीन सेंट (0.03 एकड़) जमीन भी नहीं खरीद पाऊंगी।” सरकार ने मुआवजे में इस बात पर भी जोर दिया है कि मकान कंक्रीट का होना चाहिए।

बीस और जलवायु शरणार्थी परिवार केरल राज्य मत्स्य विभाग की परित्यज्य गोदाम में रहते हैं। गोदाम हालांकि न तो हवादार हैं और न ही वहां कायदे से कमरे हैं, लेकिन यहां रहने वाले परिवारों को कम से कम ये डर नहीं सता रहा कि स्कूल खुलने पर उन्हें हटना होगा। स्कूल में रह रहे परिवार पूरी तरह से सरकर से फ्री में मिलने वाले राशन पर जी रहे हैं और वे भीतरी भाग में सरकारी फ्लैटों में भी नहीं जाना चाहते।

चूंकि ये मछुआरे हैं, तो उन्हें ये डर भी है कि अगर वे तटीय क्षेत्र से दूर जाते हैं, तो अपनी मूल आजीविका, संस्कृति और जीवनशैली से भी दूर हो जाएंगे। उन्होंने उसी तटीय क्षेत्र में छोटे मगर सुरक्षित घरों की मांग की है, जहां वे पीढ़ियों से रहते आ रहे हैं। मैरी कहती हैं, “मैं अपने घर में ही जीना और मरना चाहती हूं।”

मानव-निर्मित संकट

साल 2017 से तिरुअनंतपुरम के तटीय कटाव में न केवल जलवायु परिवर्तन बल्कि कई मानवजनित वजहों की भी भूमिका रही है। स्थानीय मछुआरे और विशेषज्ञ इसके लिए अडानी विझिंजम प्राइवेट लिमिटेड और केरल सरकार द्वारा पीपीपी मॉडल पर 7,525 करोड़ रुपए के निवेश से विझिंजम तट के करीब बनाए जा रहे बड़े बंदरगाह को जिम्मेवार मानते हैं। वालियाथुरा से लेकर पास के शंघुमुखम तक पूरा तट समुद्र के पानी में डूबा रहता है।

नेशनल सेंटर फॉर साइंस स्टडीज के पूर्व विज्ञानी केवी थॉमस ने कहा, “विझिंजम-वालियाथुरा-शंघुमुखम क्षेत्र में तटीय कटाव समुद्री बंदरगाह स्थल पर निर्माण कार्य खास कर 3,000 मीटर के ब्रेकवाटर का परिणाम है। समुद्र का कटाव आने वाले सालों में और खराब स्थिति में पहुंचेगा। ये तटीय गांवों वेली और थुम्बा में स्थित इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (इसरो) की सुविधाओं और स्थानीय एयरपोर्ट के सामने चुनौतियां पेश करेगा।”

उन्होंने कहा कि पोर्ट निर्माण की योजना में पर्यावरण और आजीविका पर इससे पड़ने वाले प्रभावों विचार नहीं किया गया। प्रोजेक्ट और कटाव प्रवण तट के चलते आने वाले सालों में और भी मछुआरा समदाय विस्थापित होंगे।

खतरनाक जीवन

कैम्प में रह रहे विस्थापित ग्रामीण लम्बे समय से प्रशासन की तरफ से की जा रही अनदेखी के बारे में बताते रहे और यह भी कहा कि उन्हें सरकरी अफसरों के वादों पर भरोसा नहीं है। समुद्र तक पहुंच कम होने के चलते वे मछलियां नहीं पकड़ पाते हैं और इस तरह उनकी नौकरी और आजीविका छूट गई। इनमें से मुट्ठीभर लोगों को वेलफेयर पेंशन मिलता है। जिस स्कूल में ये विस्थापित रह रहे हैं, वहां पहले बिजली तक नहीं थी।

बिजली के लिए लोगों को बहुत संघर्ष करना पड़ा। जॉनी बताते हैं कि वे खराब स्थिति में रह रहे हैं और उन पर जीका वायरस और मच्छर-जनित अन्य बीमारियों का खतरा मंडरता रहता है। जॉनी कहते हैं, “स्कूल में अक्सर सांप आ जाता है।”

स्कूल के छह कमरों में विस्थापित परिवार रहते हैं। हर कमरे में कम से कम दो परिवार रहते हैं, जिनमें बच्चे, विकलांग और बुजुर्ग शामिल हैं। कुछ परिवार लम्बी बीमारी से जूझते हैं। महिलाओं को तो कपड़े बदलते वक्त भी निजता नहीं मिल पाती। बच्चों के पढ़ने के लिए ऑनलाइन क्लास की व्यवस्था नहीं है और ज्यादातर बच्चों ने इस स्कूल में दाखिला लिया था और यही स्कूल पिछले तीन साल से उनका ठिकाना है।

31 साल के विकलांग व्यक्ति के पिता जॉर्ज जुस्सा ने बताया कि सरकार ने जो विशेष दो पहिया दिया था, उसके टैक्स के रूप में उन्हें बहुत पैसा देना पड़ा। उन्होंने बताया, “सरकार को चाहिए कि व हमें ऐसे अच्छे घर दे, जिसे दोबारा न बेचा जा सके।” कैम्प में रह रहे लोगों ने यह भी बताया कि जब से कोविड-19 महामारी की दस्तक हुई है, तब से इस कैम्प के निरीक्षण के लिए प्रशासन नहीं आया।

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