साल 2000 से बिगड़ रहे हैं महाराष्ट्र के सात जिलों में हालात, सूखे की वजह से घट रही फसलों की पैदावार

अध्ययन के मुताबिक, गन्ने की उपज में लगभग 20 फीसदी की गिरावट आने की आशंका है, जबकि बारानी ज्वार में 18 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है

By Dayanidhi

On: Monday 29 May 2023
 
फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स, डॉ. राजू कसम्बे

एक नए अध्ययन में चेतावनी दी है कि मानवजनित कारणों से भारत के कई हिस्सों में सूखा पड़ सकता हैं। बढ़ते सूखे की वजह से भारत के खासकर, महाराष्ट्र राज्य के अर्ध-शुष्क क्षेत्र में कृषि उपज पर बुरा असर पड़ेगा। अध्ययन में, उत्पादकता को प्रभावित करने वाले कारणों की पीछे घटते जल स्तर, बढ़ते तापमान और बदलते फसल पैटर्न का हवाला दिया गया है।

ऐतिहासिक रूप में यह क्षेत्र सिंचित फसलों के बजाय वर्षा आधारित कृषि पर निर्भर रहा है। अध्ययन से पता चलता है कि गन्ना, प्याज, गेहूं और मक्का जैसी पानी की अधिक जरूरत वाली फसलों के उपयोग ने क्षेत्र में आर्थिक स्थिति को मजबूती तो दी है, लेकिन अगले कुछ दशकों में इसका बुरा असर देखने को मिल सकता है।

यह अध्ययन महाराष्ट्र के बारामती में विद्या प्रतिष्ठान के आर्ट्स, साइंस एंड कॉमर्स कॉलेज में भूगोल विभाग द्वारा किया गया है। अध्ययन के मुताबिक, घटते जल स्तरबढ़ते तापमान और बदलते फसल पैटर्न जैसे कारणों से, यह राज्य के अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। 

यह अध्ययन महाराष्ट्र के सात सबसे सूखे जिलों जिनमें पुणे, सांगली, उस्मानाबाद, बीड, सतारा, सोलापुर और अहमदनगर में किया गया है। इन इलाकों के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है, कि यहां साल भर में होने वाली बारिश का औसत 700 मिमी से कम है।

अध्ययन में दक्षिणी मध्य महाराष्ट्र में सिना, करहा, येराला, मैन और अग्रनी नदी घाटियों के साथ मानवजनित कारणों से सूखा पड़ने की अत्यधिक आशंका जताई गई है। मौसम संबंधी इस तरह की गतिविधि साल 2000 से जारी है। यह क्षेत्र पश्चिमी घाट के पूर्व में कम बारिश वाला इलाका है और यहां लोग ऐतिहासिक रूप से सिंचित फसलों के बजाय बारिश आधारित कृषि पर निर्भर रहते हैं।

कॉलेज में भूगोल के सहायक प्रोफेसर और अध्ययनकर्ता राहुल टोडमल ने कहा, सरकारी और गैर-सरकारी मदद से  दो दशकों में यह परिदृश्य बदल गया है। यहां गन्ना, प्याज, गेहूं और मक्का जैसी अधिक पानी वाली फसलों की सिंचाई के लिए तालाबों और बोरवेल जैसी सुविधाओं को अपनाया गया है। इसने कुछ लोगों की आर्थिक स्थिति को मजबूती दी है, लेकिन अगले कुछ दशकों में इसके गंभीर प्रभाव देखने को मिल सकते हैं।

उन्होंने कहा, हमारे अध्ययन ने फसल पैटर्न, तापमान और वर्षा में बदलते रुझानों को देखा और पाया कि यह क्षेत्र भारी तौर पर पानी के अधिक उपयोग और गर्मी के दबाव में है। यह उन फसलों के लिए अच्छा नहीं है जो आजकल किसानों द्वारा पसंद की जा रही हैं।

अध्ययन का एक पहलू पौधों पर गर्मी के तनाव या प्लांट हीट स्ट्रेस (पीएचएस) के दिनों की संख्या को देखता है जो अलग-अलग प्रकार की फसलों के लिए भिन्न होते हैं। एक पीएचएस दिवस वह दिन होता है जिस दिन फसल सहन करने वाले तापमान की ऊपरी दहलीज के संपर्क में आती है।

अध्ययन क्षेत्र में, ऐसे दिन हर दशक में दो से पांच तक बढ़ रहे हैं, खासकर गन्ना, प्याज, गेहूं और मक्का जैसी फसलों के लिए, जिन्हें ठंडे तापमान की आवश्यकता होती है। क्षेत्र में भूजल तालिका एक साथ लगभग सात सेंटीमीटर हर साल गिर रही है, जो कि खुद को फिर से भरने की तुलना में बहुत तेजी से कम हो रही है, जो उपज को भी प्रभावित करेगा।

उन्होंने बताया ये अनुमान भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी), हाइड्रोलॉजिकल आंकड़े, राज्य कृषि विभाग, भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान, भूजल सर्वेक्षण और विकास एजेंसी और अमेरिका के राष्ट्रीय समुद्रीय और वायुमंडलीय प्रशासन से प्राप्त आंकड़ों पर आधारित हैं।

प्रोफेसर टोडमल ने कहा हम निकट भविष्य में नकदी फसलों की उपज पर इसका बुरा असर देखना शुरू कर सकते हैं। मॉडल यह भी सुझाव देते हैं कि 2050 तक अध्ययन किए गए क्षेत्र में लगभग 1.05 डिग्री सेल्सियस के तापमान में उल्लेखनीय वृद्धि होगी, जिससे पानी की कमी की समस्या पैदा होगी और वर्षा आधारित फसलों पर भी प्रभाव पड़ेगा।

इस समय सीमा में गन्ने की उत्पादकता में लगभग 20 फीसदी की गिरावट आने की आशंका है, जबकि बारानी ज्वार में 18 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। हम ज्वार, बाजरा और अन्य मोटे अनाज की खेती को बढ़ावा नहीं देकर प्राकृतिक संकट को बढ़ा रहे हैं।

प्रोफेसर टोडमल ने जोर देकर कहा कि कृषि के प्रति व्यावसायिक दृष्टिकोण होना स्पष्ट है" लेकिन आगाह किया कि किसानों की प्राथमिकताओं में ये बदलाव कृषि में पानी की मांग को एक अस्थिर स्तर तक बढ़ा सकते हैं।

उन्होंने सुझाव देते हुए कहा, किसानों को ड्रिप सिंचाई और स्प्रिंकलर जैसी आधुनिक पानी की बचत करने वाली तकनीकों को अपनाने के लिए बाध्य करना जरूरी है। पानी की उपलब्धता के आधार पर क्षेत्रों का सीमांकन किया जा सकता है और कृषि विभाग कुछ फसलों को सीमित करने या बढ़ावा देने के लिए नीतियों को डिजाइन कर सकता है। यह अध्ययन स्प्रिंगर नेचर की पत्रिका 'रीजनल एनवायरनमेंटल चेंज' में प्रकाशित किया गया है।  

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