पानी में डूब रहा है यह गांव, तैर कर स्कूल जाते हैं बच्चे

केरल का एक ग्रामद्वीप (विलेज आइलैंड ) लुप्त होने वाला है। गांव के 13 वार्डों में से 10 आंशिक रूप से जलमग्न हैं और दिन पर दिन जीवन मुश्किल होता जा रहा है

On: Friday 10 May 2019
 
केरल के कोल्लम जिले का एक ग्रामद्वीप मुनरो पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहा है। पिछले कुछ वर्षों से ज्वार की भीषण लहरों के कारण यह द्वीप जलमग्न होने की कगार पर पहुंच गया है

रेजी जोसेफ

मन्रोतुरुत्तु के बच्चे स्कूल तैरकर जाते हैं। अपने स्कूल बैग को गीला होने से बचाने के लिए वे उन्हें अपने लंच बॉक्स के साथ एक प्लास्टिक कवर में कसकर लपेटते हैं और सर पर ढोकर ले जाते हैं। वे स्कूली ड्रेस का एक अतिरिक्त सेट भी रखते हैं ताकि वे कक्षाओं में प्रवेश करने से पहले सूखे कपड़े पहन सकें। शिक्षक पानी में घुसकर स्कूल तक पहुंचते हैं और छोटी नावों के माध्यम से आवागमन करते हैं। बच्चे जानते हैं कि उन्हें स्कूल के बाद समय रहते अपने घरों को लौटना होगा क्योंकि हर शाम ज्वार की लहरें उनके गांव पर हमला बोलती हैं।

मन्रोतुरुत्तु या मुनरो केरल के कोल्लम जिले में स्थित एक ग्रामद्वीप है जो अष्टमुडी झील और कल्लदा नदी के संगम पर स्थित है। केवल 13.4 वर्ग किमी के कुल क्षेत्रफल वाले इस द्वीप में 8 छोटी द्वीपिकाएं शामिल हैं और इसकी आबादी 13,500 के आसपास है। ज्वार की भीषण लहरों के कारण ये द्वीपिकाएं तेजी से जलमग्न हो रही हैं और ऐसी आशंका है कि जल्द ही नक्शे से गायब हो जाएंगी। पहले से ही 430 से अधिक परिवारों ने अपने घरों को छोड़कर विपरीत तट पर शरण ली है।

जलसमाधि तक की यात्रा

मन्रोतुरुत्तु दरअसल एक ग्राम पंचायत है, जिसमें 13 वार्ड हैं। इस द्वीप की नींव कल्लड़ा नदी के बाढ़ के पानी द्वारा लाई गई गाद और मिट्टी से पड़ी है। इस द्वीप के बनने में कई शताब्दियों का समय लगा है। जल्द ही उपजाऊ मिट्टी होने की वजह से मैंग्रोव बहुतायत में बढ़े और उनकी गहरी जड़ों ने मिट्टी को कसकर पकड़े रखा जिससे भूमि कटाव से सुरक्षित रही। मैंग्रोव की इस मजबूत बाड़ के बीच का एक विस्तृत हिस्सा खेती के लिए उपयुक्त था। इसने पूरे केरल के किसानों को आकर्षित किया जो बड़ी संख्या में यहां आकर बसने लगे। उन्होंने चावल की खेती के साथ-साथ नारियल के पेड़ लगाए और कॉयर के धागे को संसाधित किया जो नारियल की भूसी को पानी में भिगोकर बनाया जाता है। इससे हजारों महिलाओं ने अपने घरेलू आय में वृद्धि की। 1986 में कल्लड़ा नदी पर थेनमाला बांध के निर्माण के साथ ही मन्रोतुरुत्तु के जलसमाधि लेने की प्रक्रिया चालू हो चुकी थी। कहा जाता है कि इस क्षेत्र के नाजुक भूमि संतुलन को बिगाड़ने में इस बाधं का बड़ा योगदान रहा है। 15 साल की अवधि में भू-स्तर एक मीटर से अधिक नीचे चला गया। आज 13 वार्डों में से 10 आंशिक रूप से जलमग्न हैं।

2004 की सुनामी ने मैंग्रोव वनों के अधिकांश हिस्से को बर्बाद कर इस स्थिति को और बिगाड़ दिया। इससे पहले, ज्वार की लहरों का खतरा हल्का था और हर साल लगभग दो महीने तक सीमित रहता था। अब तो यह रोज का मामला है।

सुनामी की लहरें तट पर की गाद और रेत को बहाकर गहरे समुद्र में लेकर चली गईं। जैसे-जैसे किनारे के पानी की गहराई बढ़ती गई, गहरे समुद्र से आनेवाली ज्वार की लहरों का बल घातक होता गया। कुछ पर्यावरणविदों ने डूबते हुए द्वीपों का कारण जलवायु परिवर्तन को बताया और कहा कि यह समुद्र के बढ़ते स्तर के कारण हो सकता है।

अब हर घर पानी में डूब रहा है-रसोई, बेडरूम हो या शौचालय। सांप, सेंटीपीड और बिच्छू बाढ़ के पानी के साथ घरों में आ जाते हैं। सभी घरेलू वस्तुओं को ऊंचाई पर रखा गया है और बिस्तर ईंटों एवं पत्थरों पर रखे गए हैं। आधी रात को उठनेवाली ज्वार की लहरें लोगों के बिस्तर और बर्तनों को डुबो देती हैं। ज्वार की लहरों के वेग ने भी घरों को कमजोर कर दिया है और कई जीर्णावस्था में हैं। बच्चे गीले पालने में सोते हैं। शौचालय टूट गए हैं और मानव मल को बाहर तैरते हुए देखा जा सकता है। यही नहीं, मृतकों का अंतिम संस्कार भी दुश्वार हो चला है क्योंकि अधिकांश क्षेत्रों में जलजमाव है।

इस बाढ़ की वजह से गांव की अर्थव्यवस्था तबाह हो गई है। सभी कॉयर बनाने वाली इकाइयां बंद हो गई हैं और खारे पानी की वजह से कृषि ठहर सी गई है। अब आय का एकमात्र स्रोत रोजगार सृजन योजना है या फिर शारीरिक श्रम। साफ पानी उपलब्ध नहीं है और लोगों को पानी की बाल्टी लेकर कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। असर यहीं तक सीमित न होकर काफी भयावह है। ग्रामीणों को नियमित रूप से बुखार और दस्त की शिकायत रहती हैं और द्वीप में कैंसर के 200 से अधिक मामले पाए गए हैं। समय पर अस्पताल पहुंचना एक बड़ी समस्या है क्योंकि लगातार बाढ़ के कारण बस सेवाएं बंद हो गई हैं। नेशनल सेंटर फॉर अर्थ साइंस स्टडीज, तिरुवनंतपुरम, केरल स्टेट काउंसिल फॉर साइंस, टेक्नोलॉजी एंड एनवायरनमेंट और स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी के एक अध्ययन में पाया गया कि यह समस्या स्प्रिंग टाइड अथवा उच्च ज्वार से सम्बंधित है। टीम ने खुलासा किया कि डेल्टा के शीर्ष पर दो मीटर की ऊंचाई तक मिट्टी है। नीचे रेतीली मिट्टी की परत है, जो 2 से 6 मीटर मोटी है। इस परत के नीचे 14 मीटर की गहराई तक रेत और मिट्टी मिश्रित अवस्था में हैं। इसके नीचे बालू है। स्प्रिंग टाइड एवं हाई टाइड एक साथ आने की सूरत में तटीय क्षरण और बाढ़ का खतरा होता है। ज्वार की लहरें 2.5 से 3 मीटर की ऊंचाई तक उठती हैं।

लगातार बाढ़ और मिट्टी का कटाव इस द्वीप के निवासियों के दुखों को बढ़ा रहे हैं। बाढ़ का खतरा तो लगातार मंडराता रहता है। अगर राज्य सरकार जल्द ही कारगर उपायों को शुरू नहीं करती या निवासियों को स्थानांतरित नहीं करती है तो पारिस्थितिक रूप से नाजुक मन्रोतुरुत्तु जल्द ही ज्वार की लहरों की चपेट में आ जाएगा और इसके निवासी हमेशा-हमेशा के लिए गायब हो जाएंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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