बिहार बाढ़: 22 लाख लोगों तक नहीं पहुंच पाई राहत

बाढ़ की आशंका के बावजूद बिहार ओडिशा-केरल जैसे बचाव के इंतजाम नहीं कर पाया, इस बार तो अब तक 9 जिलों में राहत कार्य भी शुरू नहीं हो पाए हैं

By Pushya Mitra

On: Thursday 18 July 2019
 
Photo: Prashant Ravi

बिहार में 12-13 जुलाई को आयी बाढ़ को छह दिन पूरे हो चुके हैं, इस बीच यह बाढ़ उत्तर बिहार के 12 जिलों के 831 पंचायतों को अपने आगोश में ले चुकी है। बिहार सरकार के आपदा प्रबंधन विभाग द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक 46.83 लाख की आबादी इस बाढ़ से प्रभावित हुई है, अब तक 67 लोगों की मौत हो चुकी है। मगर इन्हीं आंकड़ों के मुताबिक फिलहाल सिर्फ तीन जिलों, सीतामढ़ी, शिवहर और मधुबनी में राज्य सरकार के राहत शिविर संचालित हो रहे हैं।

शेष नौ जिलों में कोई राहत शिविर अभी नहीं हैं। इनमें अररिया, दरभंगा, पूर्वी चंपारण, पूर्णिया और किशनगंज जैसे जिले हैं, जिनके क्रमशः नौ लाख, पांच लाख, तीन लाख, 2.9 लाख और दो लाख से अधिक लोग बाढ़ प्रभावित हैं। यानी कि अब तक लगभग 22 लाख पीड़ितों के लिए राहत कार्य शुरू तक नहीं हो पाए हैं। जबकि अररिया में 12, किशनगंज में 4 और दरभंगा में पांच लोगों की मौत हो चुकी है। मधुबनी जिला जो इस बाढ़ में सर्वाधिक प्रभावित जिलों में से एक है, जिसके 16 प्रखंड बाढ़ की चपेट में हैं, वहां अभी सिर्फ चार राहत केंद्र खुले हैं, वे भी कहां हैं, इसका किसी को पता नहीं। ये आंकड़े बिहार में इस साल आयी बाढ़ को लेकर सरकारी बचाव और राहत की कहानी कहते हैं।

बिहार एक ऐसा राज्य है, जहां शायद ही कोई ऐसा साल गुजरता है, जब बाढ़ नहीं आती हो। आपदा प्रबंधन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक हर साल राज्य के औसतन 75 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित होते हैं। औसतन 200 लोगों की मौत हर साल होती है। छह लाख हेक्टेयर जमीन में खड़ी फसल बाढ़ के पानी में बह जाती है। एक लाख लोगों को औसतन हर साल फिर से नया घर बनवाना और 80 हजार लोगों को मरम्मत करवाना पड़ता है। अमूमन हर साल 30 अरब का नुकसान सरकार और आम लोगों का होता है।

इसके बावजूद बाढ़ को लेकर चेतावनी, बचाव और राहत का कोई कारगर तंत्र अभी तक बिहार में विकसित नहीं हो पाया। अक्सर यह सवाल उठते हैं कि अगर केरल और ओड़िशा जैसे राज्य अचानक आ जाने वाली आपदाओं का मुकाबला कर लेते हैं तो बिहार में हर साल आने वाली बाढ़ का मुकाबला करने लायक तंत्र अभी तक क्यों विकसित नहीं हो पाया है।

सामाजिक कार्यकर्ता और कोसी नव निर्माण मंच के अध्यक्ष महेंद्र यादव कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि बिहार सरकार के पास हर साल आने वाली बाढ़ से निबटने के लिए कोई योजना नहीं है। राज्य का आपदा प्रबंधन विभाग हर साल अप्रैल महीने के आखिर या मई की शुरुआत में सभी बाढ़ प्रभावित जिलों के अधिकारियों के नाम एक पत्र जारी करता है, 23 बिंदुओं पर आधारित इस पत्र में विभाग आपदा की चेतावनी, बचाव कार्य और राहत अभियान से लेकर मुआवजा तक के लिए बहुत ही सूक्ष्म तरीके से निर्देश जारी करता है।

इसमें हर साल प्रभावित होने वाले क्षेत्रों की पहचान, तटबंधों की मजबूती का आकलन और उसकी सुरक्षा, बारिश और नदियों को लेकर वार्निंग सिस्टम बनाना, जून 30 तक कंट्रोल रूम और राहत केंद्र बना लेना और कंट्रोल रूम में नाविकों और गोताखोरों की व्यवस्था कर लेना, लाइफ जैकेट, मोटरबोट की व्यवस्था, मेडिकल टीम, बचाव दल हर किसी की व्यवस्था करने और उसके लिए अलग से बजट जारी होने के निर्देश होते हैं।

मगर जमीनी हकीकत बताते हैं कि बाढ़ आने से पहले इनमें से दस फीसदी काम भी नहीं हो पाता। जब तक मुख्यमंत्री हवाई सर्वेक्षण नहीं कर लेते, राहत और बचाव अभियान शुरू नहीं किया जाता। वह भी एक तरह से दिखावे की तरह होता है, राहत केंद्र और सामुदायिक किचेन खोल दिये जाते हैं, उनका प्रचार प्रसार नहीं किया जाता। ऐसे में लाखों लोग सड़कों और तटबंधों के किनारे शरण लेने के लिए मजबूर होते हैं।

महेंद्र यादव की ही बात को आगे बढ़ाते हुए मधुबनी के नरुआर गांव के प्राध्यापक ईशनाथ झा कहते हैं, लगता है सरकार ने मान लिया है कि बाढ़ झेलना इस इलाके के लोगों की नियति है। इसलिए कभी भी राहत औऱ बचाव की पूर्व तैयारी नहीं होती। वे अपने गांव का अनुभव बताते हुए कहते हैं कि 13 जुलाई को उनके गांव के पास कमला नदी का तटबंध टूट गया था। गांव में छत तक पानी पहुंच गया। उस भीषण संकट में पांच सौ से अधिक लोग फंसे थे। हमलोग बार-बार प्रशासन को फोन कर रहे थे, मगर 14 जुलाई की दोपहर को जाकर बचाव दल की पहली टुकड़ी पहुंची। वह भी कई दफा राजनीति दबाव डलवाने के बाद। वह टुकड़ी भी लोगों को बचाने के लिए अपर्याप्त थी। अगर पूर्व तैयारी और समुचित इंतजाम होते तो यह स्थिति नहीं आती।

मुजफ्फरपुर से दरभंगा जाने वाली सड़क पर बाढ़ पीड़ित टेन्ट लगा कर रह रहे हैं। फोटो: पुष्य मित्र

वे कहते हैं, हमलोगों को भी खबर थी कि नौ जुलाई से नेपाल के इलाके में भारी बारिश हो रही है।  11-12 जुलाई को तो कई जगह जो हमारे सीमावर्ती इलाके हैं, 200 से 300 मिमी तक बारिश हुई। मगर सरकार या प्रशासन की तरफ से कोई चेतावनी जारी नहीं की गयी। बाद में कंट्रोल रूम का नंबर तो जारी किया गया मगर उनमें से कई नंबर ऐसे थे, जो लगते ही नहीं थे। जो लगते थे, उन्हें कोई उठाने वाला नहीं था। मैं खुद एसडीओ के दफ्तर में पूरे दिन बैठा रहा, मगर मेरी शिकायत सुनने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। डीएम को फोन लगाया तो उनका फोन रिंग होने के बाद बंद हो गया।

ईशनाथ झा के जिले मधुबनी में फिलहाल मात्र चार राहत शिविर के खुले होने की बात बतायी जा रही है। मगर ज्यादातर पीड़ितों को मालूम नहीं है, कि ये केंद्र कहां हैं।

नदी और पर्यावरण के मसले पर काम करने वाले जेपी सेनानी अनिल प्रकाश कहते हैं, एक तो बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का आकार काफी बड़ा है इसलिए शायद सरकार इतने बड़े पैमाने पर राहत और बचाव अभियान नहीं चला पाती हैं। मगर दूसरा बड़ा कारण मुझे यह लगता है कि गंगा के दक्षिण इलाके के मुख्यमंत्री उत्तर बिहार के संकट को समझ ही नहीं पाते, क्योंकि उन्होंने कभी यह भोगा ही नहीं होता है।

इस मसले पर सबसे मारक टिप्पणी उत्तर बिहार की नदियों के विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं, दरअसल बिहार में जल संसाधन विभाग हर साल आपदा प्रबंधन विभाग के लिए रोजगार का सृजन करता है। जल संसाधन विभाग की लापरवाही से तटबंध टूट जाते हैं और बाढ़ आ जाती है और जब बाढ़ आती है तो आपदा प्रबंधन विभाग राहत और बचाव अभियान के लिए तैयार हो जाती है। यह इतना रूटीन हो गया है कि कोई इसे लेकर बहुत परेशान नहीं होता।

राज्य के आपदा प्रबंधन मंत्री लक्ष्मेश्वर राय इस बारे में पूछे जाने पर कहते हैं कि ऐसी बात नहीं है कि आपदा को लेकर हम तैयारी नहीं करते। मगर कई बार पानी इतना आ जाता कि हम संभाल नहीं पाते। मगर ऐसा तो हर साल होता है, यह पूछे जाने पर वे कहते हैं कि हमलोग अपनी पूरी तैयारी करते हैं।

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