बाढ़ का समाधान नहीं बांध

अंग्रेजों ने बाढ़ नियंत्रण के लिए बांध निर्माण शुरू किया लेकिन बाद में हुआ पछतावा। इसके बावजूद आजादी के बाद भारत में बांधों के प्रति लगाव कायम रहा

By Bhagirath Srivas

On: Monday 05 November 2018
 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में 13 जून 2018 को मंत्रिमंडल की बैठक में बांध सुरक्षा विधेयक को स्वीकृति प्रदान की गई। जल संसाधन मंत्रालय के अनुसार, देश में 5,254 बड़े बांध हैं और 447 बनाए जा रहे हैं। वहीं छोटे व मंझोले बांधों की संख्या हजारों में हैं। भारत में बांध को बाढ़ की समस्या के समाधान के रूप में देखा जाता है। यह सोच ब्रिटिश उपनिवेशवाद की देन है।

अंग्रेजी हुकूमत के वक्त ओडिशा में बाढ़, भूख और अकाल की घटनाएं चरम पर थीं। इस तरह की घटनाएं राजस्व वसूली में बाधक थीं। ओडिशा का तटीय इलाका कटक, पुरी और बोलासोर 1803 में ब्रिटिश उपनिवेश का हिस्सा बन गया था लेकिन राजस्व वसूली के लिए दिशानिर्देश 1834 तक बन पाए। 1836 से 1843 तक 20,36,348 रुपए की लागत से समूचे प्रांत का सर्वेक्षण और मैपिंग की गई लेकिन राजस्व महज 34,680 रुपए ही बढ़ पाया।

सर्वेक्षण के दौरान अंग्रेज प्रशासक क्षेत्र की अद्भुत पारिस्थितिकी से परिचित हुए। भूगोलवेत्ता और प्रशासक एंड्रयू स्टरलिंग ने 1822 में प्रकाशित अपनी पुस्तक “एन अकाउंट, ज्योग्राफिकल, स्टेटिस्टिकल एंड हिस्टोरिकल ऑफ ओडिशा प्रॉपर ओर कटक” में लिखा कि तटीक इलाके की अनोखी विशेषता यहां का नदी तंत्र है और यही जलप्लावन की वजह है। इस नदी तंत्र में महानदी, ब्राह्मणी और बैतरणी नदियां शामिल थीं जो बंगाल की खाड़ी में गिरती थीं। कई बार ये नदियां अपना मार्ग बदल लेती थीं जिससे गांव और खेत जलमग्न हो जाते थे। पानी की तेज धार अपने साथ गाद लाती थी जिससे जमीन की भोगौलिक स्थिति सुधरती और नष्ट होती थी। बाढ़ की वजह से अंग्रेजी के राजस्व वसूली को धक्का लगा।

राजस्व लोलुप अंग्रेजी हुकूमत बाढ़ से घबरा गई और इस संकट ने उबरने के उपाय खोजने लगी। 1850 के दशक में नदियों के उफान को रोकने के लिए इंजीनियरिंग पर आधारित नई रणनीति बनी। कटक के कार्यकारी अभियंता जेसी हेरिस ने महानदी और उसकी सहायक नदियों का विस्तृत अध्ययन कर दलील दी कि महानदी डेल्टा में बाढ़ की वजह नदी द्वारा गाद को बहाने में अक्षमता है। उन्होंने सुझाव दिया कि इस समस्या के निदान के लिए बांध बनाया जाए ताकि महानदी की सहायक नदी काठजूरी के पानी की दिशा मोड़ी जा सके। इस अध्ययन के जरिए प्रशासन ने व्यवस्थित और वैज्ञानिक निगरानी तंत्र विकसित की। ओडिशा के तटीय क्षेत्र में नदियों की गहराई और गति मापने के लिए कुछ स्टेशन स्थापित किए गए। सिंचाई अभियंता अर्थर कॉटन ने 1858 में ओडिशा का दौरा करने के बाद नदियों के पानी को नियंत्रित करने के लिए बांधों, तटबंधों और नहरों में निवेश का सुझाव दिया। कॉटन ने बाढ़ और सूखे को राजस्व के नुकसान से जोड़ा।

पश्चिमी ज्ञान और तकनीक को इसके समाधान के रूप में पेश किया। इस तरह सक्रिय हस्तक्षेप बाढ़ नियंत्रण की नई नीतियों में शामिल हुआ। हालांकि उस वक्त भी कुछ अनुभवी अफसर थे जो बाढ़ को डेल्टा क्षेत्र के लिए जरूरी मानते थे। ब्रिटिश इतिहासकार जी टोयनबी ने कहा, “भीषण बाढ़ की अवधि चाहे जितनी भी लंबी हो, वह भूमि की उत्पादकता बढ़ाकर नुकसान की भरपाई करती है।” 1863 में ईस्ट इंडिया इरिगेशन कंपनी को बांधों और नहरों का तंत्र विकसित करने की जिम्मेदारी दी गई। इसे ओडिशा योजना का नाम दिया गया।

यह योजना असफल साबित हुई और लागत तक नहीं निकाल पाई। अंतत: 1904 में ब्रिटिश शासन को तटबंधों के रखरखाव में अक्षमता का एहसास हुआ और उसने कुछ तटबंधों को गोपनीय तरीके खत्म कर दिया। कॉटन के वैज्ञानिक अध्ययन के प्रकाशित होने के 70 साल बाद बाढ़ समिति ने 1928 में लिखा “ओडिशा डेल्टा क्षेत्र है और यहां बाढ़ को रोकना असंभव है। नई भूमि बनाने का प्रकृति का अपना तरीका है और उसके काम में दखल देने का कोई औचित्य नहीं है।” ओडिशा अब भी सर्वाधिक बाढ़ प्रभावित क्षेत्र बना हुआ है। अंग्रेजों ने गलतियों से सबक सीख लिया लेकिन हमारी सरकारें इसके लिए तैयार नहीं हैं।

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