वायु प्रदूषण-1: छोटे शहरों की हवा भी हो रही है जहरीली

वायु प्रदूषण को क्षेत्रीय दायरे में बांधना संभव नहीं, इसलिए अब बड़े कदम उठाने जरूरी हैं

By Anumita Roychowdhury

On: Tuesday 18 February 2020
 
1 से 5 नवंबर के बीच उत्तर भारत में धुंध का प्रकोप फैला, तो इसने पूर्व की ओर बढ़ते हुए बड़े और छोटे शहरों तथा ग्रामीण इलाकों को भी तेजी से अपनी गिरफ्त में ले लिया (फोटो: विकास चौधरी)

प्रत्येक वर्ष सर्दियों में पर्यावरण और स्वास्थ्य के हालात को देखते हुए, सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों (इंडो-गैंगेटिक प्लेन) का मानचित्र लाल रंग से रंग जाता है जिसका कारण सर्दी के मौसम में वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुंचना है। आमतौर पर दिल्ली सबसे ज्यादा खबरों में रहती है और इस समस्या का केंद्र भी यही होती है। लेकिन यह कहानी अकेले दिल्ली की नहीं है। यह उत्तर भारत के विस्तृत भू-भाग में रहने वाले लोगों को जहरीली हवा के दुष्प्रभावों से होने वाले खतरों के बारे में है।

नवंबर 2019 में सर्दियों की शुरुआत में छाई धुंध, कम समय में सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में प्रदूषण के स्तर के तेजी से बढ़ने और उसकी स्थिति में परिवर्तन को सटीक रूप से प्रदर्शित करती है। जब 1 से 5 नवंबर के बीच उत्तर भारत में धुंध का प्रकोप फैला, तो इसने पूर्व की ओर बढ़ते हुए बड़े और छोटे शहरों तथा ग्रामीण इलाकों को भी तेजी से अपनी गिरफ्त में ले लिया। इस रुझान के कई कारण थे जैसे सर्दियों की शुरुआत, वायु के प्रवाह में कमी, विभिन्न स्रोतों से स्थानीय प्रदूषण का बढ़ना तथा पंजाब और हरियाणा में पराली के जलाने तथा दिवाली की रात पटाखे चलाने जैसी विशेष घटनाएं। इस क्षेत्रीय नुकसान को देखते हुए सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में बसे शहर वायु प्रदूषण की समस्या से अकेले नहीं निपट सकते। यह दिल्ली की हालत देखकर पता चलता है। ग्रैन्युलर रियल टाइम डेटा के तीन वर्ष के औसत (रुझानों के आधार पर वैश्विक पद्धतियों और संपूर्ण आंकड़ों का मूल्यांकन) के आधार पर 2012-14 और 2016-18 के दौरान शहर में महीन पार्टिकुलैट मैटर (पीएम 2.5) की सघनता एक चौथाई कम हो गई है, लेकिन अब भी शहर को पीएम 2.5 के वार्षिक मानक के स्तर पर लाने के लिए लगभग 65-70 प्रतिशत की और कटौती करने की जरूरत है। तथापि, प्रौद्योगिकी और मानदंडों को पीछे छोड़ने वाली आधुनिक रणनीतियां भी सर्दियों में दिल्ली की धुंध को अपने दम पर हटाने के लिए पर्याप्त नहीं है।

सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में सिरसा, जींद, करनाल, भटिंडा, मेरठ, लखनऊ, वाराणसी, पटना, गया और पश्चिम बंगाल के शहर हैं (देखें, खतरे का बढ़ता दायरा,)। इन शहरों में पीएम 2.5 के वार्षिक औसत स्तर और 24 घंटे के अधिकतम औसत का त्वरित मूल्यांकन दर्शाता है कि दिल्ली की तुलना में पीएम 2.5 के काफी कम वार्षिक औसत स्तर वाले शहरी इलाकों में रोजाना ज्यादा धुंध होने की संभावना है। यह धुंध की घटनाओं को रोकने और वायु प्रदूषण को कम करने की जरूरत को दर्शाता है। वायु प्रदूषण की खतरनाक और भ्रामक प्रकृति भारत के अन्य क्षेत्रों में भी दिखाई देती है।

भारत में शहर स्तर पर वायु प्रदूषण की समस्या को हल करने के मद्देनजर नीतियां और कार्यक्रम बनाए जा रहे हैं। लेकिन वायु प्रदूषण किसी सीमा को नहीं मानता। इसे नियंत्रित करने के स्थानीय प्रयासों को धता बताते हुए यह शहरी केंद्रों में घुसता है और बाहर निकल जाता है। वायु गुणवत्ता प्रबंधन के क्षेत्रीय दृष्टिकोण के लिए एक विनियामक ढांचे का निर्माण ही इसका समाधान है। क्या भारत के पास इसके बारे में कोई योजना है?

एयरशेड पर ध्यान

जनवरी 2019 में शुरू किया गया राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) वायु गुणवत्ता प्रबंधन और अनुपालन के लिए राष्ट्रीय रूपरेखा के निर्माण की ओर उठाया गया एक कदम है। इस कार्यक्रम के तहत पीएम 10 और पीएम 2.5 के लिए राष्ट्रीय व्यापक वायु गुणवत्ता मानदंडों (एनएएक्यूएस) को पूरा न करने वाले 122 शहरों की गैर-प्राप्तकर्ता (नॉन अटेनमेंट) शहरों के रूप में पहचान की गई है। इनमें से लगभग 60 प्रतिशत नगर और शहर सिंधु-गंगा के मैदानी भागों में स्थित हैं। बाकी शहर अन्य छ: प्रमुख जलवायु क्षेत्रों में स्थित हैं (देखें, 70 प्रतिशत गैर प्राप्तकर्ता शहरों की आबादी 10 लाख से कम है,)।

स्रोत: सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के अविकल सोमवंशी द्वारा आंकड़ों का विश्लेषण

यद्यपि गैर-प्राप्तकर्ता शहरों की सूची में बेंगलुरु, दिल्ली, कोलकाता और मुंबई जैसे बड़े शहर शामिल हैं, तथापि इनमें कम आबादी वाले छोटे शहरी केंद्र भी बड़ी संख्या में मौजूद हैं। इनमें से लगभग 70 प्रतिशत शहरों और नगरों में से प्रत्येक की आबादी 10 लाख से कम है। उत्तर प्रदेश में स्थित अनपरा की जनसंख्या 18,000, गजरौला की 55,045 और रायबरेली की 1,90,000 है। इसी प्रकार, बिहार में स्थित गया और मुजफ्फरपुर में से प्रत्येक की आबादी 5,00,000 से कम है। ऐसे शहरी केंद्रों में स्थानीय प्रयासों से वायु प्रदूषण को कम किया जा सकता है, लेकिन यदि इनके व्यापक प्रभाव क्षेत्र को अनदेखा किया गया तो एक सीमा के बाद हवा को साफ नहीं किया जा सकता।

दूसरी ओर, औद्योगिक इलाकों में स्थित गैर-प्राप्तकर्ता क्षेत्र डाउन-विंड शहरों और इलाकों में हवा की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं। स्थानीय स्तर पर कार्रवाई करने के साथ ही इन शहरी केंद्रों में प्रदूषण के स्रोतों पर कड़े उत्सर्जन नियंत्रण की अावश्यकता होगी। एनसीएपी के तहत शहर आधारित दृष्टिकोण से वायु प्रदूषण के स्रोतों और ग्रामीण क्षेत्रों में हवा की गुणवत्ता में सुधार करने में कोई मदद नहीं मिलती। ऐसे ही अन्य कारणों से बड़े एयरशेड पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। लेकिन यह कहना आसान, करना मुश्किल है।

एयरशेड कई राज्यों के क्षेत्राधिकार और शासकीय प्रणालियों का जटिल मिश्रण है। क्षेत्रीय एयरशेड को दर्शाने और विभिन्न राज्यों में कार्रवाई, निगरानी तथा अनुपालन का समरूपी ढांचा तैयार करने के लिए कोई स्पष्ट तंत्र मौजूद नहीं है। वैज्ञानिक हाई रेजोल्यूशन सैटेलाइट डाटा और एयरोसोल ऑप्टिकल डेप्थ जैसी पद्धतियों का इस्तेमाल करके प्रदूषण की मात्रा और उसकी प्रकृति का मूल्यांकन करने के इच्छुक हैं। उदाहरण के लिए दिल्ली स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और भारतीय ऊष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में प्रदूषण की अधिकता की प्रकृति और परिवर्तन की निगरानी कर रहे हैं।

इसके अलावा, सर्दियों में धुंध की घटनाओं के गंभीर रूप लेने के साथ ही इस इलाके में पराली के धुएं के कारण एक निश्चित अवधि के दौरान होने वाले प्रदूषण की ओर भी जागरुकता पैदा हुई है। आईआईटीएम की वायु गुणवत्ता और मौसम पूर्वानुमान प्रणाली (सफर) के वैज्ञानिक गुफरान बेग हवा की गति और दिशा तथा हरियाणा व पंजाब में पराली की गहनता की दैनिक आधार पर निगरानी करते हैं ताकि क्षेत्रीय प्रदूषण में इसके योगदान का मूल्यांकन किया जा सके। इस इलाके में वायु की आवाजाही और प्रदूषण के प्रभावों को समझने के लिए इस विज्ञान को और विकास करने की जरूरत है ताकि वायु प्रदूषण के लिए क्षेत्रीय ढांचे का निर्माण करने में मदद मिल सके।

 

आगे पढ़ें: दूसरे देशों से सीखना होगा

 

Subscribe to our daily hindi newsletter