भारत में शिशुओं की दिमागी दिक्कतें बढ़ा रहा है वायु प्रदूषण: अध्ययन

अध्ययन में विशेष रूप से डिजाइन किए गए ज्ञान-संबंधी चीजों का उपयोग करते हुए 215 शिशुओं की विजुअल वर्किंग मेमोरी और विजुअल प्रोसेसिंग स्पीड का आकलन किया गया

By Dayanidhi

On: Wednesday 26 April 2023
 
फोटो साभार :आई-स्टॉक

एक अध्ययन के अनुसार, भारत में हवा की खराब गुणवत्ता दो साल से कम उम्र के शिशुओं में ज्ञान-संबंधी समस्या पैदा कर सकती है। दो साल से कम की उम्र, वह समय है जब मस्तिष्क का विकास अपने चरम पर होता है।

यह बोध विचार, अनुभव और इंद्रियों के माध्यम से ज्ञान और समझ हासिल करने की प्रक्रिया है। शोधकर्ताओं ने कहा, बच्चों में लंबे समय तक मस्तिष्क के विकास पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव का असर पूरे जीवन भर रह सकते हैं।

ब्रिटेन के ईस्ट एंग्लिया विश्वविद्यालय के प्रमुख शोधकर्ता प्रोफेसर जॉन स्पेंसर ने कहा, पहले के अध्ययनों से पता चला है कि हवा की खराब गुणवत्ता बच्चों में ज्ञान-संबंधी कमी के साथ-साथ भावनात्मक और व्यवहार संबंधी समस्याओं से जुड़ी है, जिसका आगे चलकर परिवारों पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।

स्पेंसर ने कहा, हवा में महीन कण सबसे बड़ी चिंता का विषय हैं क्योंकि वे सांस के रास्ते से मस्तिष्क में पहुंच सकते हैं।

अब तक, अध्ययन शिशुओं में हवा की खराब गुणवत्ता और ज्ञान-संबंधी समस्याओं के बीच संबंध दिखाने में विफल रहे हैं, जब मस्तिष्क का विकास अपने चरम पर होता है और मस्तिष्क विषाक्त पदार्थों के कारण प्रभावित हो सकता है।

स्पेंसर ने बताया, हमने ग्रामीण भारतीय परिवारों के साथ यह पता लगाने के लिए काम किया कि घर में हवा की गुणवत्ता शिशुओं के ज्ञान को कैसे प्रभावित करती है।

टीम ने भारत के लखनऊ में स्थित सामुदायिक अधिकारिता लैब के साथ सहयोग किया। यह एक वैश्विक स्वास्थ्य शोध और नवाचार संगठन है जो ग्रामीणों  के सहयोग से काम करता है।

उन्होंने उत्तर प्रदेश के एक ग्रामीण समुदाय शिवगढ़ में विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के परिवारों के साथ काम किया। शिवगढ़, राज्य के हवा की खराब गुणवत्ता से सबसे अधिक प्रभावित इलाकों में से एक है।

इस अध्ययन में अक्टूबर 2017 से जून 2019 तक विशेष रूप से डिजाइन किए गए ज्ञान-संबंधी चीजों का उपयोग करते हुए 215 शिशुओं की विजुअल वर्किंग मेमोरी और विजुअल प्रोसेसिंग स्पीड का आकलन किया गया।

एक प्रयोग में नन्हे-मुन्नों को चमकीले रंगों का वर्ग दिखाया गया जो हर बार पलक झपकने के बाद एक समान रंग के थे। दूसरे प्रयोग के दौरान, हर बार पलक झपने के बाद एक रंगीन वर्ग में बदला गया।

स्पेंसर ने कहा, यह कार्य शिशु की किसी ऐसी चीज से अलग देखने की प्रवृत्ति को सामने लाने का काम करता है जो दृष्टिगत रूप से परिचित है और कुछ नया है।

उन्होंने कहा हमारी इस बात में रुचि थीं कि क्या शिशु बदलती चीजों का पता लगा सकते हैं? हमने प्रत्येक प्रयोग में अधिक से अधिक वर्गों को शामिल करके कार्य को कठिन बना दिया था।

शोधकर्ताओं की टीम ने उत्सर्जन स्तर और वायु गुणवत्ता को मापने के लिए बच्चों के घरों में वायु गुणवत्ता निगरानी उपकरण का इस्तेमाल किया। उन्होंने पारिवारिक सामाजिक-आर्थिक स्थिति को भी ध्यान में रखा और उसे नियंत्रित किया।

स्पेंसर ने कहा, यह शोध पहली बार यह दिखाता है कि जीवन के पहले दो वर्षों में खराब वायु गुणवत्ता और खराब दृश्य संज्ञान के बीच संबंध है, जब मस्तिष्क का विकास अपने चरम पर होता है।

उन्होंने कहा, इस तरह के प्रभाव सालों तक हो सकते हैं, लंबे समय तक बच्चों के विकास पर बुरा प्रभाव डाल सकते हैं। शोध से पता चलता है कि वायु गुणवत्ता में सुधार के वैश्विक प्रयासों से शिशुओं की उभरती संज्ञानात्मक क्षमताओं को फायदा हो सकता है।

स्पेंसर ने कहा, यह, बदले में, सकारात्मक प्रभावों को बढ़ा सकता है क्योंकि बेहतर अनुभूति से लंबी अवधि में बेहतर आर्थिक उत्पादकता हो सकती है, स्वास्थ्य देखभाल और मानसिक स्वास्थ्य प्रणालियों पर बोझ कम हो सकता है।

टीम द्वारा जांचा गया कि प्रदूषण का एक प्रमुख कारण घर में इस्तेमाल होने वाला खाना पकाने का ईंधन था। उन्होंने कहा, हमने पाया कि उन घरों में हवा की गुणवत्ता खराब थी, जहां खाना पकाने के लिए ठोस ईंधन जैसे कि गाय के गोबर के उपलों का इस्तेमाल किया जाता था। इसलिए, घरों में खाना पकाने के उत्सर्जन को कम करने के प्रयास किए जाने चाहिए। यह अध्ययन ईलाइफ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। 

Subscribe to our daily hindi newsletter