दिल्ली में साफ हवा अच्छी है पर काफी नहीं!

पिछले कुछ वर्षों में काफी कुछ किया गया है, लेकिन नाकाफी है। दिल्ली में पूरी तरह से स्वच्छ ईंधन मसलन गैस या बिजली की जरूरत है

By Sunita Narain

On: Friday 18 October 2019
 

सर्दी चौखट पर आ गई है और हम दिल्ली में रहन वाले अभी से चिंता में पड़ गए हैं कि सांस लेंगे, तो सर्दी की हवा में घुला प्रदूषण हमारे श्वास तंत्र को जाम कर देगा। लेकिन, इस दफा थोड़ा फर्क है। इस बार सर्दी में प्रदूषण को लेकर अभी से सक्रियता दिखने लगी है। लोगों में नाराजगी है और इस दिशा में काम हो रहा है। इसके सबूत भी हैं। प्रदूषण के स्तर में कुछ हद तक कमी आई है, हालांकि ये पर्याप्त नहीं है। अलबत्ता इससे ये जरूर पता चलता है कि जो कार्रवाई की जा रही है, उसका असर हो रहा है। ऐसा ही होना भी चाहिए। मैं ऐसा इसलिए कह रही हूं, क्योंकि अपने साझा गुस्से में हम काम करने की जरूरत पर ध्यान केंद्रित करना भूल जाते हैं। अगर हम ध्यान केंद्रित रखें तो अंतर साफ देख सकेंगे, ताकि हम (प्रदूषण कम करने के लिए) और ज्यादा काम कर सकें। ये नाजुक मामला है, क्योंकि जब हम इस बात पर ध्यान केंद्रित रखेंगे कि हमें क्या करना है, तभी हम साफ आबोहवा में सांस लेने के समझौता-विहीन अधिकार हासिल कर सकेंगे।

बहरहाल, हम ये जानने की कोशिश करते हैं कि अभी क्या हुआ है? अब आम लोगों को यह पता है कि हवा की गुणवत्ता कैसी है और इसका उनके स्वास्थ्य से क्या संबंध है। कुछ साल पहले सरकार ने हवा गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) शुरू किया था। इसमें हमें बताया गया कि प्रदूषण के हर स्तर पर हमारे स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ता है। फिर हवा की गुणवत्ता की ताजातरीन जानकारी देने के लिए हमारे पास काफी सारे एयर क्वालिटी मॉनिटरिंग स्टेशन हैं। इसके जरिए हवा की गुणवत्ता की पल-पल की जानकारी हमारे फोन और आंखों के सामने उपलब्ध है। इससे हम जान पाते हैं कि कब हवा में ज्यादा जहरीला तत्व मिला हुआ है और सांस लेना खतरनाक है। हम इसको लेकर गुस्से में हैं। लेकिन, एक और बात साफ करती चलूं कि मॉनिटरिंग स्टेशनों का ऐसा नेटवर्क देश के दूसरे हिस्सों में नहीं है। ज्यादातर शहरों में एक या दो मॉनिटरिंग स्टेशन हैं, जिस कारण इन शहरों में रहने वाले लोगों को हवा के प्रदूषण की पल-पल की जानकारी नहीं हो पाती। लेकिन, दिल्ली में जहरीली हवा एक राजनीतिक मुद्दा बन चुका है। अलग-अलग राजनीतिक पार्टियां इसका क्रेडिट लेने के लिए अपने-अपने दावे करती हैं। यह अच्छी बात है।

दूसरी बात, पिछले कुछ वर्षों में काफी कुछ किया गया है। निर्धारित वक्त से पहले साफ-स्वच्छ बीएस IV ईंधन लाया गया और कोयला आधारित पावर प्लांट बंद किए गए। सच तो ये है कि दिल्ली में औद्योगिक इकाइयों में पेट कोक, फर्नेस ऑयल और यहां तक कि कोयले तक का इस्तेमाल पूरी तरह प्रतिबंधित है। ये अच्छा कदम है, लेकिन नाकाफी है। दिल्ली में पूरी तरह से स्वच्छ ईंधन मसलन गैस या बिजली की जरूरत है। डीजल कारों की बिक्री में गिरावट आई है। इसके लिए कुछ हद तक वो नीति जिम्मेवार हैं, जिसमें सरकार डीजल व पेट्रोल की कीमत में अंतर को कम करना चाहती है और कुछ हद तक कोर्ट का वो फैसला, जिसमें उसने पुराने वाहनों को लेकर सख्त टिप्पणी करते हुए उनकी उम्र सीमा अनिवार्य कर दी थी। इससे भी आम लोग इस ईंधन के खतरों को लेकर जागरूक हुए। कुछ वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट ने प्रदूषण फैलाने वाले ट्रकों की दिल्ली शहर में प्रवेश रोकने के लिए कंजेशन चार्ज लगाया था। इस वर्ष यह फलीभूत होगा। भारी वाहन शहर से होकर न गुजरें, इसके लिए ईस्टर्न व वेस्टर्न एक्सप्रेस-वे चालू हो गया है। इसके साथ ही शहर के नाकों को आरएफआईडी तकनीक की मदद से कैशलेस कर दिया गया है, जो भारी वाहनों के प्रवेश को रोकने में प्रभावी होगा। इन वजहों से शहर में ट्रकों का प्रवेश कम होगा, जिससे प्रदूषण में भी कमी आएगी। इसके साथ अब हमें पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बढ़ा कर उनका इस्तेमाल करना होगा। इससे निजी वाहनों पर निर्भरता खत्म होगी। फिलहाल ऐसा नहीं हो रहा है। हालांकि इस दिशा में काफी कुछ किया गया है। मगर, अहम बात यह है कि इन कदमों का असर अंकों में दिखने लगा है।

हमारे सहयोगियों ने दशकवार हवा की गुणवत्ता के आंकड़ों का विश्लेषण किया है। इस विश्लेषण में पता चला है कि स्मॉग की अवधि में कमी आ रही है। ये देर से शुरू हो रहा है और जल्दी खत्म हो जा रहा है। दूसरा, पिछले 8 या उससे अधिक वर्षों से संचालित एयर क्वालिटी स्टेशनों से मिले तुलनात्मक आंकड़ों से पता चला है कि प्रदूषण के स्तर में पिछले तीन वर्षों में उसी अवधि में विगत वर्षों की तुलना में 25 प्रतिशत की गिरावट आई है। दूसरे स्टेशनों से मिले आंकड़ों में भी यही ट्रेंड देखने को मिला है। ये खुशखबरी है। लेकिन, साथ ही बुरी खबर भी है। प्रदूषण के स्तर में गिरावट तो आई है, लेकिन ये गिरावट बहुत अच्छी नहीं है। हमें प्रदूषण के स्तर में 65 प्रतिशत और गिरावट लानी है, ताकि हमें हवा की वो गुणवत्ता मिल सके, जो सांस लेने के योग्य होती है। इसका मतलब ये भी है कि हमारे पास जो छोटे-मोटे विकल्प थे, उनका इस्तेमाल हम कर चुके हैं। पहले व दूसरे स्तर के सुधार हो चुके हैं, लेकिन अभी हमें लंबी दूरी तय करनी है। प्रदूषित हवा को साफ हवा में बदलने के लिए हमें ईंधन के इस्तेमाल के अपने तरीकों में बड़ा बदलाव लाने की जरूरत है। सभी तरह के कोयले के इस्तेमाल को प्रतिबंधित करना होगा या इस गंदे ईंधन से होने वाले प्रदूषण के खिलाफ जरूरत पड़ने पर कड़े कदम उठाने होंगे।

हमें बसों, मेट्रो, साइकिलिंग ट्रैक व पैदल चलने वाले लोगों के लिए सुरक्षित फुटपाथ का इंतजाम कर सड़कों से वाहनों की संख्या घटानी ही होगी। हमें पुराने वाहनों को छोड़ कर बीएस VI अपनाने होंगे। कम से कम उन वाहनों को तो रिप्लेस करना ही होगा, जिनसे ज्यादा प्रदूषण फैलता है। इन सारी पहलों का बहुत अधिक परिणाम तब तक नहीं निकलेगा, जब तक कि प्रदूषण के स्थानीय स्रोतों जैसे कूड़े को जलाना, खाना पकाने ईंधनों से निकलनेवाले धुएं, धूल और अन्य साधनों का समाधान नहीं निकल जाता है। लेकिन, इन पर नियंत्रित करना तब तक कठिन है, जब तक जमीन स्तर पर प्रवर्तन (नीतियों को लागू करना) नहीं किए जाते या फिर हम ऐसे विकल्प नहीं दे देते हैं, जिनका इनकी जगह इस्तेमाल किया जा सके। प्लास्टिक व अन्य औद्योगिक व घरेलू कचरों को अलग कर, उन्हें संग्रहित करना होगा और फिर उनकी प्रोसेसिंग करनी होगी ताकि उन्हें जहां-तहां फेंक कर बाद में जलाया न जा सके। लेकिन, प्रदूषण के खिलाफ लड़ाई में स्थानीय स्तर पर प्रवर्तन सबसे कमजोर कड़ी है। फिर भी हमें फोकस जारी रखना होगा। लगे रहना होगा और उग्रता बरकरार रखनी होगी। अपने नीले आसमान और साफ फेफड़ों के लिए ये लड़ाई हम जीत लेंगे।

Subscribe to our daily hindi newsletter