यह कठिन समय आयोग गठन से ज्यादा वायु प्रदूषण से मर रहे लोगों को बचाने का है : एमसी मेहता

स्वच्छ हवा के लिए कानूनी लड़ाई कभी सिर्फ दिल्ली के लिए नहीं लड़ी गई, बल्कि यह देश भर के लिए रही है। हमेशा ही दिल्ली और उसके आस-पास के शहरों में प्रदूषण की बातचीत की गई है। 

By Vivek Mishra

On: Monday 23 November 2020
 

Photo : mp.gov.in

देश में 17  दिसंबर, 1985 को वायु प्रदूषण की समस्या को देश की सर्वोच्च अदालत के सामने ले जाने वाले पर्यावरण कानूनविद एमसी मेहता ने अध्यादेश के जरिए दिल्ली-एनसीआर वायु प्रदूषण प्रबंधन आयोग गठित करने के मुद्दे पर डाउन टू अर्थ के विवेक मिश्रा से बातचीत के प्रमुख अंश :

 

दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए नया आयोग कितना प्रभावी होगा?

वायु प्रदूषण नियंत्रण के लिए कोविड महामारी के दौर में यह वक्त नए आयोग के गठन पर जोर देने के बजाए लोगों के बुनियादी अधिकारों और कर्तव्यों की रक्षा करते हुए पहले से ही मौजूद वायु प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम, 1981 और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 जैसे कानूनी प्रावधानों को प्रभावी तौर पर लागू करने का है। यदि यह मान लिया जाए कि पहले के कानून कुछ कमजोर थे तो सरकारों को यह जवाब देना चाहिए कि क्या उन्होंने उन कमजोर कानूनों को भी देश में कहीं लागू किया?  शायद ऐसा भी नहीं हो सका है और यदि सर्वोच्च अदालत और उच्च न्यायालय का दखल न होता या फिर उनके जरिए गठित न्यायिक प्राधिकरण व समितियां न होती तो शायद ही इस देश में वायु प्रदूषण नियंत्रण पर 10 फीसदी काम भी होता। नए आयोग का गठन एक कॉस्मेटिक एप्रोच है, जो नई बोतल में पुरानी शराब जैसा है।

 र्वोच्च अदालत की ओर से पूर्व में गठित ईपीसीए और अन्य समितियों की जगह आयोग काम करेगा, इसे कैसे देखते हैं?

देश का आईना राजधानी दिल्ली है। कम से कम इसे ही स्वच्छ रखा जाता लेकिन सरकारों ने इसे भी धूमिल होने दिया, जिसके कारण लोगों को दिल्ली छोड़कर भागना पड़ता है। कमीशन कब तक बनेगा, उसका कार्य व्यवहार क्या होगा?  यह सब तय होते हुए मान लेते हैं कि यदि छह महीने लगते हैं तो क्या इस बीच में पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण प्राधिकरण (ईपीसीए) हो या फिर अन्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड व समितियां काम नहीं करेंगी? यदि ऐसा होगा तो यह और विनाशकारी है। इस वैक्यूम में बिजनेस पॉल्यूटर्स एन्जवॉय करेंगे। सभी स्वतंत्र प्रकृत्ति वाले न्यायिक प्राधिकरण और समितियों का प्रभावी रहना बेहद जरूरी है क्योंकि वे काफी अहम और सराहनीय कार्य करती रही हैं।

आप वायु प्रदूषण प्रबंधन के लिए खुद कई न्यायिक समितियों में रहे हैं, क्या अनुभव रहे?

सबसे पहले तो यह अनुभव है कि देश में सरकारे पर्यावरण को लेकर संजीदा नहीं रही हैं, वे प्रदूषण फैलाने वाले के हितों की रक्षा करने में ज्यादा भरोसा रखती हैं। 1985 में जब वाहनों से प्रदूषण का मामला लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था, उसके बाद से यह अनुभव और गाढ़ा होता गया है। तकनीकी का समावेश और जटिलता के कारण सुप्रीम कोर्ट ने 14 मार्च, 1991 को जस्टिस केएन सेकिया कमेटी बनाई थी। इसका मैं सदस्य था। समिति की ओर से करीब 17 रिपोर्ट दी गई हैं, लेकिन इन्हें सही से लागू नहीं किया गया। यहां तक कि उस वक्त वाहनों को कंप्रेस्ड नैचुरल गैस (सीएनजी) वाहन बनाने के लिए जो प्रयास थे उसका भी खूब विरोध हुआ। मसलन कहा गया कि गाड़ियां विस्फोट हो जाएंगी, उनमें आग लग जाएंगी। लेकिन आज उस न्यायिक प्रयास का असर आप देख सकते हैं। इस बीच भूरेलाल कमेटी भी लगातार अच्छी रिपोर्ट देती रही लेकिन उस पर भी कोई ठोस काम नहीं किया जा सका। 

राष्ट्रपति की अनुमित से लाए गए अध्यादेश में कहा गया है कि इससे एनसीआर राज्यों की भागीदारी  सुनिश्चित होगी, क्या पहले समितियां दिल्ली तक ही सीमित थीं?

ऐसा बिल्कुल नहीं है, यह लड़ाई तो देशभर के लिए है। अदालतों के आदेश और नियमों के पालन को लेकर दिए गए निर्देश हमेशा एनसीआर और आस-पास शहरों के लिए भी रहे हैं। स्टबल बर्निंग के मामले में आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता है लेकिन दिल्ली में कूड़े के पहाड़ जलते रहते हैं उनपर कोई कार्रवाई नहीं की जाती। इसके अलावा केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हो या राज्यों के नियंत्रण बोर्ड व समतियां इनका क्या दायित्व है? क्या यह सभी विफल हो चुकी हैं। यदि विफल हुई हैं तो इन्हें यह बताने का मौका दिया जाना चाहिए कि यह क्यों विफल हुई हैं। इनमें राजनीतिक नियुक्तियां ही इन्हें भटकाव की तरफ ले गईं हैं। नया आयोग भी राजनीतिक नियुक्तियों का सबब बना तो फिर वायु प्रदूषण नियंत्रण शायद ही हो।

 

न्यायिक प्राधिकरण अपनी रिपोर्ट अदालतों को देता था लेकिन नए आयोग के सदस्य संसद को अपनी रिपोर्ट देंगे?

क्या यह नई बात है। संसद की तमाम स्टैंडिंग कमेटी रिपोर्ट सुझावों से भरी पड़ी हैं। मेरे ही आगरा ताज ट्रिपेजियम जोन के मामले में स्टैडिंग कमेटी कि सिफारिशों को देखा जा सकता है आज तक उन्हें लागू नहीं किया गया। फिर कई संवेदनशील सांसद भी सदन में इन सवालों को उठाते रहे हैं। कम से कम अदालतों की फटकार, दखल और निगरानी से कुछ काम तो हो ही जाया करता था। अब आयोग के सदस्य रिपोर्ट देंगे और जनप्रतिनिधि रिपोर्ट लेंगे यह चलता रहेगा लेकिन इस बीच जो बच्चे और बुजुर्ग वायु प्रदूषण के कारण मर रहे हैं, उनकी जवाबदेही कौन सुनिश्चित करेगा। 

 

पांच साल की सजा और एक करोड़ रुपये तक जुर्माने का प्रावधान भी नए आयोग वाले अध्यादेश में किया गया है?

पर्यावरण संरक्षण कानून, 1986 में पहले से ही पांच साल की सजा और 1 लाख रुपये तक जुर्माना या पांच हजार रुपये प्रतिदिन जुर्माने का प्रावधान है। वहीं, वायु प्रदूषण कानून, 1981 में भी जेल और जुर्माने का प्रावधान है। ऐसे में यह कहना कि नए आयोग के यह फीचर्स वायु प्रदूषण की रोकथाम करे देंगे, अविश्वसनीय लगता है। सबकुछ इंप्लीमेंटेशन पर निर्भर है। क्लीन डाइट, क्लीन एयर और क्लीन वाटर यह लोगों का बुनियादी अधिकार है और इसे देने में विफल सरकारें लोगों के अधिकारों से नहीं बल्कि उनके राइट टू लाइफ यानी जीवन के अधिकार का भी हनन कर रही हैं। 

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