नीति-राजनीति: दम घोंटते पराली के धुएं के लिए दोषी कौन?
दिल्ली-एनसीआर में जहरीली हवाओं के लिए पराली जलाने को एक बड़ा कारण माना जाता है। इसे रोकने में सरकारी प्रयास नाकाफी रहते हैं तो आखिर जन प्रतिनिधि इसे किस नजर से देखते हैं। आइए, जानते हैं
On: Monday 04 November 2019
उत्तर भारत में पराली में आग लगाने से हर साल 2.35 लाख करोड़ रुपए की आर्थिक क्षति होती है और पांच साल तक के बच्चे सांस की बीमािरयों से बुरी तरह प्रभावित होते हैं। यह बात इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के अध्ययन में कही गई है। हर साल सितंबर-अक्टूबर में बड़े पैमाने पर धान की खेती करने वाले राज्य हरियाणा और पंजाब के किसान कटाई के बाद खेतों को अगली फसल के लिए तैयार करने के लिए फसल के अवशेषों में आग लगा देते हैं। केंद्र और राज्य सरकारों की तमाम कोशिशों के बावजूद यह समस्या खत्म नहीं हो रही है। दिवाली के ठीक बाद पराली जलाने की घटनाओं से दिल्ली-एनसीआर में तो इस साल आफत ही आ गई है। इससे स्पष्ट है कि सरकारी प्रयास पराली की आग पर अंकुश नहीं लगा पा रहे हैं। इस समस्या को पंजाब के जनप्रतिनिधि किस नजर से देखते हैं, यह जानने के लिए भागीरथ ने उनसे बात की
पंजाब सरकार पराली की समस्या को दूर करने की हर संभव कोशिश कर रही है और बेहद सख्ती से इस समस्या को दूर भी किया जा रहा है। सरकार के प्रयासों से हालात में सुधार देखने को मिल रहा है। जो किसान पराली जला रहे हैं, उसने सख्ती की जा रही है। सरकार के प्रयासों से अब पराली जलाने वाले किसानों की संख्या काफी कम हो गई है और पराली के धुएं में पंजाब का योगदान भी कम हुआ है। हालांकि यह अब भी समस्या है और इसे पूरी तरह खत्म करने में वक्त लगेगा। लेकिन इस दिशा में हम आगे बढ़ रहे हैं। सरकार अत्याधुनिक मशीनें खरीदने के लिए किसानों को सब्सिडी दे रही है। बड़ी संख्या में किसान हैप्पी सीडर जैसी मशीनें खरीद रहे हैं और उसका इस्तेमाल कर रहे हैं। पराली में आग लगना हमारी भी समस्या क्योंकि इससे हम लोग भी प्रभावित होते हैं। पंजाब के किसानों का स्वास्थ्य भी इससे खराब होता है। लेकिन दिल्ली में जिस तरह पंजाब को प्रदूषण के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, वह सच नहीं है। अब हालात में सुधार हो रहा है। पराली में आग लगाने की समस्या का स्थायी समाधान जरूरी है। इसके लिए सबसे पहले किसानों को जागरूक करना होगा और उन्हें प्रदूषण के दुष्प्रभावों से परिचित कराना चाहिए। हमारी सरकार किसानों के बीच जाकर ड्राइव चला रही है। इसके अलावा उन्हें अलग-अलग फसलों और सब्जियों को उगाने के लिए प्रेरित करना होगा। इसके लिए जरूरी है कि किसानों को धान और गेहूं के अलावा अन्य फसलों को भी न्यूनतम समर्थन मूल्य मिले। फसलों में विविधता होगी तो न पराली रहेगी और न ही उसमें आग लगाने की नौबत आएगी।
प्रदूषण केवल शहर में रहने वाले लोगों को ही परेशान नहीं करता। यह उन किसानों को भी परेशान करता है जो पराली में आग लगाते हैं। चाहे वह कहीं के भी किसान क्यों न हों। हम तो उस प्रदूषण के स्रोत के बिल्कुल नजदीक रहते हैं। हमारे बच्चे जब पराली में आग लगाते हैं, तब अक्सर बीमार पड़ जाते हैं। गांव के लोगों को भी आंखों में जलन होती है और सांस लेने में दिक्कत आती है। किसान मजबूरी में पराली जलाता है। उसे पर्यावरण की फिक्र भी है और स्वास्थ्य की थी। समस्या यह है कि हमारे पास कोई दूसरा विकल्प ही नहीं है। कहने को सरकार मशीनों को खरीदने के लिए सब्सिडी देती है। लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरा जैसी है। किसान तो किसी तरह गुजर-बसर कर रहा है। पराली की समस्या के लिए असली दोषी किसान नहीं सरकार है। सरकार की किसानों को धान और गेहूं की खेती के लिए मजबूर करती है। अगर वह दूसरी फसलों पर सब्सिडी और लाभकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य देने लगे तो शायद ही कोई किसान पराली में आग लगाए। किसान हैप्पी सीडर मशीन खरीदने की स्थिति में नहीं है। जिस हैप्पी सीडर मशीन को पराली प्रदूषण खत्म करने का उपाय बता रही है, वह मशीन 70 हजार रुपए की लागत में तैयार हो जाती है। यही मशीन 1 लाख 75 हजार रुपए में किसानों को बेची जाती है। अगर सरकार किसानों को 25-30 प्रतिशत सब्सिडी देती भी है तो भी गरीब किसान उसे नहीं खरीद सकता। जो अमीर किसान हैप्पी सीडर खरीद चुका है, वह भी पराली जलाता है। सरकार इस समस्या को दूर करना चाहती है तो उसे किसानों के खेतों से पराली ले जानी चाहिए। पराली से बहुत से जैविक उत्पाद बनाए जा सकते हैं।
(यह कॉलम डाउन टू अर्थ, हिंदी पत्रिका के नवंबर 2019 अंक में प्रकाशित किया गया है)