क्या अगले 34 वर्षों में हर रसोई में होगा स्वच्छ ईंधन, दुनिया की एक तिहाई आबादी अभी भी है जिससे दूर

आंकड़ों के अनुसार वैश्विक स्तर पर भोजन तैयार करने के लिए स्वच्छ ईंधन और तकनीक का उपयोग हर साल एक फीसदी की दर से बढ़ रहा है

By Lalit Maurya

On: Sunday 23 January 2022
 

दुनिया में जहां करीब 66 फीसदी आबादी खाना पकाने के लिए साफ-सुथरे ईंधन और तकनीक का उपयोग कर रही है। वहीं एक तिहाई अभी भी उसकी पहुंच से दूर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्‍ल्‍यूएचओ) द्वारा 2019 के लिए जारी आंकड़ों से पता चला है कि दुनिया में करीब 260 करोड़ लोग अभी भी लकड़ी, कोयला, केरोसीन और चारकोल जैसे ईंधन का उपयोग अपना भोजन तैयार करने के लिए करते हैं।

इतना ही नहीं 2010 से 2019 के आंकड़ों से यह भी पता चला है कि वैश्विक स्तर पर खाना पकाने के लिए साफ सुथरे ईंधन और तकनीक का उपयोग एक फीसदी प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा है। यदि इस लिहाज से देखें तो पूरी दुनिया में हर व्यक्ति तक इसकी पहुंच में अभी और 34 वर्ष लगेंगे। हालांकि यह जरुरी नहीं कि यह लक्ष्य 34 वर्षों में हासिल हो जाएगा, क्योंकि दुनिया भर में साफ-सुथरे ईंधन और तकनीकों का वितरण एक जैसा नहीं है।

देखा जाए तो 2010 से 2019 के बीच जो स्वच्छ ईंधन और प्रौद्योगिकी तक पहुंच में वृद्धि हुई है वो पांच सबसे ज्यादा आबादी वाले निम्न और मध्यम आय वाले देशों के कारण मुमकिन हो पाया था। इन देशों में भारत के साथ-साथ ब्राजील, चीन, इंडोनेशिया और पाकिस्तान का प्रभुत्व था। वहीं दूसरे निम्न और मध्यम आय वाले देशों में स्थिति कोई ज्यादा बेहतर नहीं है।

इस मामले में जहां अमेरिका,कनाडा और यूरोपियन देशों की बात की जाए तो वहां की करीब 100 फीसदी आबादी खाना पकाने  के लिए साफ-सुथरे ईंधन का उपयोग कर रही है। वहीं दूसरी तरफ माली, सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक और दक्षिण सूडान जैसे अफ्रीकी देश भी हैं जहां की एक फीसदी से भी कम आबादी अपना खाना पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन और तकनीकों का उपयोग कर रही है। 

2010 से 2019 के लिए डब्ल्यूएचओ द्वारा जारी इन आंकड़ों में खाना पकाने के लिए दुनिया भर में उपयोग किए जा रहे छह प्रकार के ईंधनों में - बिजली, गैस, मिट्टी का  तेल, बायोमास, चारकोल और कोयले को शामिल किया गया है।  इतना ही नहीं दुनिया में कहां, कितने लोग किस तरह के ईंधन और तकनीक का उपयोग खाना पकाने के लिए करते हैं इसका भी विस्तृत विवरण जारी किया गया है। 

इन आंकड़ों से पता चला है कि जहां 1990 में दुनिया की आधी आबादी खाना पकाने के लिए दूषित ईंधन का उपयोग करती थी, वो 2019 में घटकर 36 फीसदी रह गई थी। वहीं जहां शहरों में खाना पकाने के लिए गैस का इस्तेमाल ज्यादा किया जाता है वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी बायोमास का उपयोग आम है। जबकि शहरी क्षेत्रों में बिजली का चलन बढ़ रहा है। अनुमान है कि जिस रफ्तार से स्थिति में बदलाव आ रहा है उसके चलते 2030 तक दुनिया की एक तिहाई आबादी दूषित ईंधन का उपयोग जारी रखेगी, जिसमें से अधिकांश उप-सहारा अफ्रीका में होंगें।

दूषित ईंधन और तकनीकों के भरोसे है देश में 35.8 फीसदी आबादी

यदि सिर्फ भारत की बात करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2019 में देश की करीब 64.2 फीसदी आबादी खाना पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन का उपयोग करती है। वहीं 35.8 फीसदी आबादी अभी भी दूषित ईंधन और तकनीकों के सहारे है।  

वहीं यदि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-20 (एनएफएचएस -5) के आंकड़ों को देखें तो देश में बिहार और मेघालय जैसे राज्य भी हैं जहां अभी भी 60 फीसदी घरों में खाना पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन का उपयोग नहीं किया जाता। यदि एनएफएचएस -5 के आंकड़ों को देखें तो मेघालय के केवल 33.7 फीसदी घरों में साफ़ ईंधन का उपयोग किया जा रहा है, जबकि यही स्थिति बिहार की भी है, जहां सिर्फ 37.8 फीसदी घरों में खाना पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन का उपयोग होत है|

वहीं यदि देश में शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना करें तो ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति अब भी कहीं ज्यादा बदतर है। जहां पश्चिम बंगाल की केवल 20.5 फीसदी आबादी स्वच्छ ईंधन का उपयोग कर रही है। वहीं मेघालय में यह आंकड़ा 21.7 फीसदी, बिहार में 30.3, नागालैंड में 24.9, त्रिपुरा में 32.6, असम में 33.7, लक्षद्वीप में 24.7, हिमाचल प्रदेश में 44.5 और गुजरात 46.1 फीसदी है। 

दुनिया भर में 7.7 फीसदी मौतों के लिए जिम्मेवार था इंडोर एयर पॉल्यूशन

घरों के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण कहीं हद तक रसोई में उपयोग होने वाले दूषित ईंधन के कारण भी होता है, जो घरों के बाहर भी वायु प्रदूषण में इजाफा करता है। देखा जाए तो घरों में होने वाला यह प्रदूषण महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य के लिए विशेषतौर पर हानिकारक होता है, जो अपना ज्यादातर समय घरों के अंदर व्यतीत करते हैं।

अनुमान है कि 2016 में घरों के भीतर होने वाले वायु प्रदूषण की वजह से 38 लाख लोगों की जान गई थी। इसका सबसे ज्यादा असर निम्न और माध्यम आय वाले देशों पर पड़ रहा है। गौरतलब है कि वैश्विक स्तर पर इंडोर एयर पॉल्यूशन 7.7 फीसदी मौतों के लिए जिम्मेवार था, वहीं निम्न और मध्यम आय वाले देशों के लिए यह आंकड़ा लगभग 10 फीसदी था। 

 इतना ही नहीं दूषित ईंधन जैसे लकड़ी, कोयले आदि के उपयोग से जो धुआं निकलता है वो सांस के जरिए शरीर में पहुंचकर ह्रदय रोग, स्ट्रोक, कैंसर, फेफड़ों की बीमारी, निमोनिया आदि का कारण बन सकता है। वहीं लाखों लोग इस प्रदूषण की वजह से असमय दम तोड़ रहे हैं।

ऐसे में यह जरुरी है कि जितना जल्द हो सके खाना पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन और तकनीकों को दुनिया भर में बढ़ावा दिया जाए, क्योंकि यदि जल्द इसपर कारवाई न की गई तो दुनिया 2030 तक हर घर तक साफ-सुथरे ईंधन तक पहुंच के लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाएगी। नतीजन कहीं ज्यादा लोगों को इसकी वजह से अपनी जान से हाथ धोना पड़ा सकता है।

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