भोपाल त्रासदी के 35 साल : 20 साल तक -20 डिग्री में सहेजा मृतकों का सैंपल, बाद में फेंकना पड़ा
भोपाल गैस हादसे वाले दिन में रिकॉर्ड 815 मृतकों का पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर डीके सत्पथी ने डाउन टू अर्थ से बातचीत की और गैस पीड़ितों के इलाज के प्रति सरकारी बेरुखी का सच साझा किया
On: Monday 02 December 2019
भोपाल गैस त्रासदी की 35वीं बरसी के मौके पर डाउन टू अर्थ द्वारा एक विशेष श्रृंखला का प्रकाशन किया जा रहा है। प्रस्तुत है, इस श्रृंखला की अगली किस्त
"आज से 35 वर्ष पहले मुझे देर रात मेरे वरिष्ठ डॉक्टर से खबर मिली कि जल्दी अस्पताल पहुंचो, कुछ ऐसा घटा है जो कि कल्पना से भी परे है। जब मैं हमीदिया अस्पताल पहुंचा तो ताजुल मसाजिद से लेकर हमीदिया तक लोगों की भीड़ दिखी। कुछ खांस रहे थे, कुछ मरनासन्न थे तो कुछ मर चुके थे। हादसा इतना भयानक था कि लोगों ने अपने परिजन के लाश को छोड़कर भोपाल से दूर जाना मुनासिब समझा।"
भोपाल गैस त्रासदी की रात को याद करते हुए 70 वर्षीय डॉ. डीके सत्पथी ने डाउन टू अर्थ के साथ बातचीत में उस रात का मंजर बयां किया। वे कहते हैं, "लाशों के ढ़ेर को चीरते हुए मैं आकस्मिक चिकित्सा विभाग तक पहुंचा, जहां भी लाश ही लाश दिख रही थी। वहां मौजूद डॉक्टरों को इलाज का कोई भी तरीका नहीं पता था। यहां तक कि यूनियन कार्बाइड में काम करने वाले डॉक्टर तक को इसके इलाज के बारे में नहीं बता पा रहे थे।"
सत्पथी उस रात जब विभाग फॉरेंसिक मेडिसिन विभाग पहुंचे तो वहां देखा कि बाथरूम तक में लाश के ऊपर लाश रखी हुई है। विभाग में 3-4 डॉक्टर थे और लाश हजारों की संख्या में। डॉ. सत्पथी कहते हैं, "हमें पता था इतना सारा काम कुछ लोगों से नहीं हो सकता था, लेकिन लाशों की संख्या बढ़ती जा रही थी और जल्दी कुछ करना था। ज्यादातक लाशें लावारिश थी और उनका रिकॉर्ड रखना बेहद जरूरी था। हमने इंटर्न और मेडिकल स्टूडेंट्स को भी बुला लिया। एक-एक लाश की तख्ती के साथ तस्वीर ली, उनके कपड़े सुरक्षित रखे और फिर पोस्टमार्टम किया।"
सैंपल सहेजने की जरूरत क्यों पड़ी?
डॉ. सत्पथी कहते हैं, "हमें पता नहीं था कि शरीर का कौन-कौन सा हिस्सा प्रिजर्व करके रखना है, क्योंकि यह पहला हासदा था। शरीर के हर अंग में गैस का अलग-अलग प्रभाव था। हमें खून से लेकर शरीर की कोशिकाएं जो भी समझ आया सूखा और रसायनों के मिश्रण में सहेजकर रख लिया। हमारा ध्यान इस बात पर था कि अदालत में जब मृत्यु की वजह बतानी होगी तो यह भी तय हो सके कि जो जहर लोगों के भीतर है वह यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से ही निकला है। ऐसा नहीं होने की स्थिति में जिम्मेदारी तय होने में परेशानी आती। हमने कोर्ट के सामने साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए ये देखा कि किस रसायन से इंसान की मौत हुई है।
परिक्षण में सामने आया कि कई लोगों के शरीर में 10 से 20 तक रसायन मिले, जो कि किसी और खाने के पदार्थ में नहीं होते। इस हादसे के बाद कई वर्षों तक उस पर मैंने कई शोध किए, जिसकी कई रिपोर्ट सामने है। हम अपना रिसर्च पूर कर चुके थे और इसके बाद इस उम्मीद में थे कि देश की दूसरी संस्थाओं को उन नमूनों की जरूरत पड़ेगी। इसलिए कोशिकाओं को -20 (माइनस) डिग्री सेल्सियस तापमान पर 20 साल से भी अधिक समय के लिए संभालकर रखा। मैंने राज्य, केंद्र सरकार और केंद्र की शीर्ष संस्थाओं को कई पत्र लिखे। किसी ने भी उसे संभालकर रखने में दिलचस्पी नहीं दिखाई।"
24 घंटे बिजली गई और खराब होने लगे सैंपल
डॉ. सत्पथी ने सैंपल को नष्ट करने की वजह बताते हुए कहा कि सरकार ने उन सैंपल को संभालकर रखने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, न ही कोई इंतजाम करवाया। वर्ष 2006 में एक बार 24 घंटे के लिए लगातार बिजली कट गई और कोशिकाओं के कई सैंपल खराब हो गए। जो कुछ बचे उन्हें बचाने की कोशिश बेमानी थी। किसी भी संस्था ने इसके शोध में रुचि नहीं दिखी। वे आरोप लगाते हैं कि सरकार का रुख गैस पीड़ितों के समुचित इलाज का कभी रहा ही नहीं।
इलाज को लेकर कभी गंभीर नहीं रही सरकारें
सैंपल के नष्ट हो जाने के बाद डॉ. सत्पथी काफी दुखी हुए। हालांकि वे मानते हैं कि जो शोध अबतक हुए थे उसके विश्लेषण से भी इलाज में काफी मदद मिल सकती थी। वे कहते हैं, "अगर सरकार इस गैस का इलाज खोजना चाहती तो लैब में नियंत्रित वातावरण में उसी तरह का एक छोटा हादसा घटित कर उससे निकले गैस का अवलोकरन करती। इससे पता चलता कि किस वायु दाब पर किस तरह के रासायन बनते हैं और उसका शरीर पर क्या असर होता है। आज गैस पीड़ित के घर में विकलांग बच्चे पैदा हो रहे हैं। इसका समाधान खोजा जाता तो इससे बचने का कोई तरीका निकलकर आता। जैसे हम अनुवांशिक बीमारियों से बचने के लिए दो गैस पीड़ित लोगों के बीच शादी न करवाते। हालांकि, ऐसा कोई शोध नहीं हुआ और अगर आज भी कोई हादसा हो तो सरकार यह तय नहीं कर पाएगी कि पहला काम क्या किया जाए?"