अब्दुल जब्बार: हैंडपम्प लगाने वाला आदमी, जिसे हालात ने बना दिया गैस पीड़ितों का मसीहा
भोपाल गैस कांड पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करने वाले अब्दुल जब्बार नहीं रहे। आइए, जानते हैं देश भर के जन आंदोलन कर्मियों के जब्बार भाई के जीवन से जुड़े कुछ पहलू
On: Friday 15 November 2019


भोपाल गैस पीड़ितों की एक सशक्त आवाज़ गुरुवार को खामोश हो गई। अब्दुल जब्बार नहीं रहे। गैस त्रासदी के बाद से उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा था और वे 62 वर्ष की उम्र में ही चल बसे। जब्बार भाई से मेरी पहली मुलाकात पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में ही हो गई। बात वर्ष 2014 की है। उस समय तक भोपाल गैस त्रासदी से जुड़ी खबरों के लिए हर अखबार में एक अलग रिपोर्टर होता था। मुझे यह जिम्मेदारी मिली थी। यह जिम्मेदारी मिलने के साथ ही मेरे जेहन में पहला नाम आया और वो था अब्दुल जब्बार। फोन पर समय लिया और मिलने निकल गया। पुराने भोपाल वाले इलाके में प्रवेश करने के बाद ही जब्बार भाई का मकान शुरू हो जाता था। सेंट्रल लाइब्रेरी के बगल की गली में डॉट्स केंद्र के सामने वाला घर। पता खोजने में थोड़ी दिक्कत भी होती लेकिन जब पता समझाने वाले खुद जब्बार भाई हों तो ये मुश्किल भी खत्म हो गई। शहद सी मीठी आवाज लेकिन इतनी जोरदार की 100 लोगों की भीड़ में हर कोई एक-एक बात सुन ले और आसानी से जटिल बातें समझाने का हुनर। उनके वालिद पंजाब से थे और वालिदा लखनऊ की, जिस वजह से शायद उनकी आवाज में यह जादू था। उनका घर गैस पीड़ितों के लिए मदद का एकमात्र ठिकाना था। एक लोहे का जर्जर सा ग्रिल और उसके खुलने के बाद तरह- तरह के खूबसूरत पौधे उनके घर को अलग रंग देता है। घर का बरामदा बैठक की तरह है जहां की दीवारों पर कपड़े के छोटे- छोटे डिज़ाइन टंगे रहते हैं। ये डिज़ाइन उनकी संस्था गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन ने तैयार किए हैं। महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए यहां कंप्यूटर और सिलाई का काम भी सिखाया जाता है। जब्बार भाई सुबह से शाम तक काफी व्यस्त रहते थे। बीमार होने की हालत में भी सामाजिक जीवन की हर जिम्मेदारी निभाते रहे। गैस त्रासदी का असर उनपर भी हुआ और कम उम्र में ही मधुमेह के रोगी हो गए। धीरे-धीरे उनकी आंखों की रोशनी खत्म होती गई। सुबह से शाम तक उनके घर पर गैस पीड़ितों का तांता लगा रहता था। कोई अपनी बीमारी का इलाज न मिलने से परेशान होता तो कोई अस्पताल में दवाई खत्म होने की बात बताने चला आता। उन्होंने पहली मुलाकात में ही 2 घंटे लंबी बातचीत की और अपने खास अंदाज में गैस त्राससी का पूरा किस्सा एक एककर सुना दिया। उनकी बातों से त्रासदी का मंजर आंखों के सामने तैरने लगा। हैंडपम्प के काम से आंदोलन तक का सफर पहली मुलाकात में जब्बार भाई ने बताया कि उनका जुड़ाव उनके अम्मी के शहर लखनऊ से काफी है। पिता पंजाब से थे और पार्टीशन में उनका परिवार बिखर गया था। बाद में जब्बार ने अपने रिश्तेदारों को खोजने को काफी कोशिश की। भोपाल में शुरुआती पढ़ाई के बाद वे घर की माली हालत सुधारने के लिए हैंडपम्प लगाने का काम करने लगे। उस वक़्त यह काम काफी फायदे का था। गैस त्रासदी में उनका परिवार प्रभावित हुआ और त्रासदी का मंजर देखने के बाद लोगों के हक के लिए आंदोलन शुरू हुआ तो वो उसमें कूद पड़े। एक-दो वर्षों में ही उन्हें लग गया कि उन्हें ही यह आंदोलन आगे बढ़ाना है और जब पूरी ताकत झोंकी तो आवाज देश के सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची। भोपाल से हज़ारों गैस पीड़ित को लेकर वो दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट का घेराव करने पहुंचे थे। शुरुआती आंदोलन के बाद पीड़ितों को मुआवजा मिला और सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल कर साथ शहर में कई दूसरे अस्पतालों की स्थापना भी हुई। जब्बार भाई अपने जीवन के अंतिम दिन तक उन अस्पतालों में अच्छी सुविधा के लिए लड़ते रहे। वो अपना इलाज भी गैस पीड़ितों के लिए बने अस्पताल में करवाते थे। हर सरोकार से वास्ता जब्बार भाई का सामाजिक सरोकार सिर्फ गैस पीड़ितों को हक़ दिलाने तक सीमित नहीं था। वे कभी भोपाल की खराब सड़कों-फ्लाई ओवर ब्रिज या फिर कभी अतिक्रमण के मुद्दे भी उठाते नज़र आते। जब्बार भाई अक्सर फोन पर उन मुद्दों पर सोशल मीडिया पर भी लिखते। यादगार-ए-शाहजहानी पार्क से उनका बहुत जुड़ाव था। इसकी वजह शायद वहां अपनी मांगीं को लेकर प्रदर्शन और संघर्ष रही हो। उन्होंने प्रदेश में कांग्रेस की नई सरकार बनने के बाद पार्क में प्रस्तावित एसटीपी का विरोध किया और मंत्रियों को कई पत्र लिखे। वे पार्क पर होने वाले अतिक्रमण के खिलाफ भी काफी मुखर रहे। लोकसभा चुनाव 2019 से पहले उन्होंने मुझे 1992 के दंगों का एक किस्सा सुनाया था। भोपाल दंगों को आग में जल रहा था। उस वक़्त जब्बार भाई शांति की कोशिश में शामिल हो गए। मुस्लिम बाहुल्य इलाके में घर होने की वजह से उन्होंने आने घर में हिन्दू पीड़ितों को शरण देने की बात कही, पर आरोप लगा कि जब्बार दंगाइयों के साथ हैं। उस समय उन्होंने खुद की जान खतरे में डालते हुए एक हिन्दू इलाके में कुछ दिन बिताए, ताकि लोगों को भरोसा हो सके कि वो शांति और अमन को कोशिश में लगे हैं।