डाउन टू अर्थ खास: प्लास्टिक मिक्स कपड़े पहन रहे हैं आप, जवाबदेही तक तय नहीं

एक ओर प्लास्टिक से मुक्ति चाहते हैं तो दूसरी ओर हम अनजाने में प्लास्टिक मिले कपड़े पहन रहे हैं, क्योंकि भारत सहित कई देशों में इसकी निगरानी नहीं की जा रही है

By Zumbish, Siddharth Ghanshyam Singh, Minakshi Solanki

On: Friday 17 March 2023
 
फोटो: विकास चौधरी / सीएसई

जिस वक्त हम पॉलिएस्टर को महज एक कपड़ा मान लेते हैं, उसी वक्त हम उसे प्रदूषक के तौर पर देखना बंद कर देते हैं। जबकि, सच यह है कि पॉलिएस्टर प्लास्टिक का ही एक रूप है और पेट्रोकेमिकल्स का दूसरा सबसे बड़ा उप-उत्पाद है। इसके बावजूद दुनिया के कुछ ही देशों ने इस प्लास्टिक फाइबर के प्रबंधन के लिए नियम लागू किए हैं। समय आ गया है कि भारत टेक्सटाइल इंडस्ट्री को विनियमित करने के लिए कानून बनाए और इस इंडस्ट्री को “एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रेस्पॉन्सिबिलिटी” व्यवस्था के दायरे में लाए पानीपत और दिल्ली से जुम्बिश, मीनाक्षी सोलंकी और सिद्धार्थ घनश्याम सिंह की रिपोर्ट

आप मानें या न मानें, आज हमारे अधिकतर कपड़ों में प्लास्टिक है। सर्दियों कि ठंड से बचाने वाले गर्म, चमकदार, ऊनी जैकेटों से लेकर शरीर में चिपके हुए कसरत के कपड़ों और आरामदायक पजामों तक, सभी परिधान या तो पूरी तरह से पॉलिएस्टर, नायलॉन और ऐक्रेलिक जैसे प्लास्टिक फाइबर से बने होते हैं, या फिर सिंथेटिक सामग्री के साथ कपास और ऊन जैसे प्राकृतिक फाइबर के मिश्रण से।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) का कहना है कि कपड़ा बनाने में इस्तेमाल की जाने वाली 60 प्रतिशत सामग्री प्लास्टिक है। इनमें पॉलिएस्टर, ऐक्रेलिक और नायलॉन शामिल हैं। अमेरिका स्थित गैर-लाभकारी संस्था फाइबरशेड की ओर से जारी नवंबर 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, 1980 और 2014 के बीच सबसे अधिक इस्तेमाल किए जाने वाले प्लास्टिक फाइबर यानी पॉलिएस्टर का वैश्विक उत्पादन लगभग 900 प्रतिशत बढ़ गया है।

टेक्सटाइल इंडस्ट्री में पॉलिएस्टर को इतना पसंद किए जाने की एक खास वजह है। सख्त और टिकाऊ होने के बावजूद इसमें फैशन के लिए नई संभावनाएं खोजी जा सकती हैं। पॉलिएस्टर से बने कपड़े अपने आकार को अच्छी तरह बनाए रखते हैं। साथ ही वे हल्के और बिना सिलवट के होते हैं। उनमें न ही सिकुड़न होती है, न ही उनका रंग खराब होता है। हालांकि, इसकी लोकप्रियता का सबसे महत्वपूर्ण कारण शायद यह है कि सिंथेटिक फाइबर से बने वस्त्र प्राकृतिक कपड़ों की तुलना में काफी सस्ते होते हैं।

केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय की ओर से जारी नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, अप्रैल 2019 में भारत में पॉलिएस्टर धागे की कीमत 105 रुपए प्रति किलोग्राम थी, जबकि सूती धागे की कीमत 213 रुपए थी। यानी दोगुने से भी अधिक। वैसे तो प्लास्टिक से बने कपड़े ऊपरी तौर पर तो ऐसे लगते हैं, जैसे उनसे कोई नुकसान नहीं हो सकता, लेकिन टेक्सटाइल इंडस्ट्री में इसकी घुसपैठ चिंताजनक है। इन सिंथेटिक कपड़ों के उत्पादन, उपयोग, और निस्तारण के दौरान पर्यावरण पर पड़ने वाले असर की अनदेखी नहीं की जा सकती।

प्लास्टिक फाइबर के कार्बन फुटप्रिंट्स ज्यादा होते हैं, क्योंकि वे ज्यादातर जीवाश्म ईंधन से प्राप्त किए जाते हैं। यूएनईपी के अनुसार, 10 फीसदी वैश्विक कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन की वजह अकेले कपड़ा उद्योग है। यह अंतरराष्ट्रीय उड़ानों और शिपिंग को मिलाकर होने वाले कुल उत्सर्जन से अधिक है। अगर हालात यही रहे, तो 2030 तक

इस इंडस्ट्री से होने वाला कार्बन उत्सर्जन 50 प्रतिशत से अधिक हो जाएगा। विश्व बैंक के अनुसार, हर साल वैश्विक स्तर पर पैदा होने वाले 300 मिलियन टन प्लास्टिक का पांचवां हिस्सा इसी प्लास्टिक फाइबर का है (देखें, शुरुआत से समस्या,)।

आज दुनिया में होने वाले कुल फाइबर उत्पादन में सिंथेटिक फाइबर की हिस्सेदारी 69 फीसदी है। इसके उत्पादन में बहुत ज्यादा मात्रा में ऊर्जा की जरूरत होती है। हालांकि, इस्तेमाल में लाए गए उत्पाद सैद्धांतिक तौर पर दोबारा इस्तेमाल तो किए जा सकते हैं, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। आमतौर पर एक बार इस्तेमाल के बाद इसे या तो लैंडफिल में फेंक दिया जाता है या फिर जला दिया जाता है। फैशन ब्रांडों के एक वैश्विक नेटवर्क कॉमन ऑब्जेक्टिव के अनुसार, “ऑयल बेस्ड प्लास्टिक के तौर पर पॉलिएस्टर प्राकृतिक फाइबर की तरह बायोडिग्रेड नहीं होता। बल्कि, यह कई दशकों तक और शायद सैकड़ों वर्षों तक लैंडफिल में पड़ा रहता है।”

मजे की बात यह है कि प्लास्टिक फाइबर अकेले ही “फास्ट फैशन” की प्रवृति को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार है जिसमें उपभोक्ता बेहद तेजी के साथ कपड़े खरीदते हैं और उतनी ही तेजी के साथ फेंक भी देते हैं। साल 2000 में पूरी दुनिया में 50 अरब नए वस्त्रों का उत्पादन हुआ है। सर्कुलर इकॉनमी को बढ़ावा देने वाले एलेन मैकआर्थर फाउंडेशन (यूके) के अनुसार, अब करीब 20 साल बाद यह आंकड़ा दोगुना हो चुका है। सस्टेनेबल इंडस्ट्रियल प्रैक्टिसेज को बढ़ावा देने वाली वैश्विक संस्था चेंजिंग मार्केट्स फाउंडेशन की अभियान प्रबंधक उर्सका ट्रंक कहती हैं, “लोग 15 साल पहले की तुलना में आज 60 प्रतिशत अधिक कपड़े खरीदते हैं, जबकि तब की तुलना में अब उन्हें आधा वक्त भी इस्तेमाल नहीं करते।”

स्रोत: सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की ओर से संकलित

फिर भी सरकारें सिंथेटिक कपड़ों के प्रसार में सक्रिय रूप से सहायता कर रही हैं। उदाहरण के तौर पर अगले 6 वर्षों में भारत अपने कपड़ा निर्यात को दोगुना करने के लिए पॉलिएस्टर पर बहुत अधिक निर्भर होने वाला है। 27 अक्टूबर 2022 को दिल्ली में हुए एक औद्योगिक कार्यक्रम में केंद्रीय कपड़ा, उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण, और वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने बताया कि 2020-21 में भारत में कपड़ा निर्यात का बाजार 40 बिलियन अमेरिकी डॉलर था, जिसके अगले 6 सालों में बढ़कर 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर होने की संभावना है।

अब तक भारत में टेक्सटाइल इंडस्ट्री खासतौर पर प्राकृतिक फाइबर के आधार पर चलती रही है। अप्रैल-दिसंबर 2021 में निर्यात किए गए कपड़ों में इनका हिस्सा 70 प्रतिशत था। लेकिन, यह कहानी जल्द ही बदलने वाली है। पॉलिएस्टर पर देश की निर्भरता आगे चल कर बड़ी चुनौतियों का कारण बन सकती है, क्योंकि इसके कचरे को संभालने के लिए किसी कानूनी ढांचे या दिशानिर्देशों को अभी तक तैयार नहीं किया गया है।

फायदे का सौदा

पॉलिएस्टर कोई नया कपड़ा नहीं है। 1930 के दशक के उत्तरार्द्ध में खोजे गए इस कपड़े का बाजार 1970 के दशक में विकसित दुनिया में तेजी से बढ़ा है (देखें, फैशन में प्लास्टिक)।

लगभग आधी शताब्दी बीतने के बाद पॉलिएस्टर की समस्या और भी बढ़ती जा रही है जिसका प्रमुख कारण यह है कि वैश्विक चर्चा मुख्य रूप से टेक्सटाइल वेस्ट के प्रबंधन पर केंद्रित है, न कि उसके उत्पादन पर। यह नैरेटिव तैयार कर उपभोक्ता और उनके उपभोग के पैटर्न की बात करते हुए असली दोषियों यानी पेट्रोकेमिकल कंपनियों और ब्रैंड मालिकों को दोषमुक्त कर दिया गया है।

अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) का अनुमान है कि अगले दो दशकों में तेल की मांग सबसे ज्यादा प्लास्टिक की वजह से बढ़ेगी। पैकेजिंग के बाद, कपड़ा पेट्रोकेमिकल प्लास्टिक से बना दूसरा सबसे बड़ा उत्पाद समूह है। 2018 में आईईए की ओर से जारी “द फ्यूचर ऑफ पेट्रोकेमिकल्स” रिपोर्ट के अनुसार, कुल पेट्रोकेमिकल उत्पादों में इसकी हिस्सेदारी 15 प्रतिशत है।

विशेषज्ञों का कहना है कि “मेक-टेक-डिस्पोज” बिजनेस मॉडल के लिए हाई-एंड ब्रैंड जिम्मेदार हैं, न कि उपभोक्ता। दुबई स्थित गैर-लाभकारी संस्था की ब्रिटनी सिएरा ने “शुड फास्ट फैशन ब्रांड्स बी अ पार्ट ऑफ द सस्टैनेबिलिटी कन्वर्सेशन?” में लिखा है, “फास्ट फैशन बिजनेस मॉडल सहज तौर पर नए उत्पादों की बढ़ती खपत पर निर्भर है। यह मॉडल बेहद प्रतिस्पर्धी, ज्यादा से ज्यादा आउटपुट निकालने वाला और असमान व्यवस्था बनाने के लिए जिम्मेदार है। इसमें उद्योग जगत भी शामिल है।”

समस्या यहीं खत्म नहीं होती। जैसे-जैसे उपभोक्ता टेक्सटाइल इंडस्ट्री की पर्यावरणीय लागत के बारे में जागरूक हो जाते हैं, वैसे-वैसे ब्रैंड्स के मालिक उत्पादों के पर्यावरणीय फुटप्रिंट्स पर भ्रामक और गलत जानकारी प्रदान करके ग्रीनवॉश करते जाते हैं। सितंबर 2022 में नीदरलैंड्स अथॉरिटी फॉर कंज्यूमर एंड मार्केट्स ने एच एंड एम और डेकाथलॉन को अपने उत्पादों और वेबसाइटों से सस्टेनेबिलिटी लेबल हटाने का निर्देश दिया, क्योंकि वे भ्रामक दावे कर रहे थे। अपनी जांच में डच संस्था ने पाया कि एच एंड एम कंपनी सस्टैनेबिलिटी का अर्थ और ऐसे प्रोडक्ट्स के फायदे बताए बिना ही कॉन्सियस चॉइस जैसे टर्म के साथ सस्टैनेबिलिटी के दावे कर रही थी।

ट्रंक बताती हैं कि ब्रैंड्स आज सस्टैनेबिलिटी का दावा सिर्फ इसलिए कर पाते हैं, क्योंकि पॉलिएस्टर को रिसाइकल किया जा सकता है। लेकिन रिसाइकलिबिलिटी और अंत में रिसाइकल होने के बीच एक बड़ा अंतर है। उनके अनुसार, “ज्यादातर ब्रैंड न तो टेक-बैक स्कीम देते हैं और न ही फाइबर-टू-फाइबर रिसाइक्लिंग तकनीक की गारंटी, लेकिन ये दावा जरूर करते हैं कि उनके सिंथेटिक उत्पाद रिसाइकल करने योग्य हैं।”

छिपी हुई लागत

टेक्सटाइल इंडस्ट्री की पर्यावरणीय लागत हमेशा ज्यादा रही है। प्राकृतिक रूप से रेशे उगाने से बहुत सारे प्राकृतिक संसाधन खत्म हो जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, कपास की खेती में दुनिया भर की कुल कृषि योग्य भूमि के केवल 3 प्रतिशत हिस्से में ही होती है, लेकिन इतने में ही कुल इन्सेक्टिसाइड का 24 प्रतिशत और पेस्टिसाइड का 11 प्रतिशत हिस्सा खप जाता है। यह इंडस्ट्री रंगाई और अन्य प्रक्रियाओं के लिए इस्तेमाल में लाए जाने वाले रसायनों पर भी काफी निर्भर है। पॉलिएस्टर की बढ़ती घुसपैठ ने समस्या में इजाफा ही किया है। हालांकि कपास की तुलना में सिंथेटिक फाइबर का पानी और जमीन पर प्रभाव कम पड़ता है, लेकिन वे प्रति किलोग्राम ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन ज्यादा करते हैं। गैर-लाभकारी संस्था वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट के 2017 में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, “कपड़े के लिए बनाए गए पॉलिएस्टर से 2015 में करीब 706 बिलियन किलोग्राम ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन हुआ। यह कोयले से चलने वाले 185 बिजली संयंत्रों के वार्षिक उत्सर्जन के बराबर है।”


सिंथेटिक कपड़ों को धोने और पहनने के दौरान हर बार प्लास्टिक के छोटे-छोटे टुकड़े भी बिखर जाया करते हैं। ये माइक्रोप्लास्टिक महासागरों, मीठे पानी और भूमि को प्रदूषित करते हैं और इनका उपभोग करने वाले जानवरों के विकास और प्रजनन में रुकावट डाल कर उनके लिए खतरा पैदा करते हैं। हाल के शोध से पता चलता है कि इंसानों के स्वास्थ्य पर भी इसका बुरा असर पड़ सकता है। 2 मार्च, 2021 को जारी की गई एक रिपोर्ट में नीदरलैंड के वैगनिंगन विश्वविद्यालय के एक पर्यावरण वैज्ञानिक अल्बर्ट कोएलमैन्स ने दावा किया कि लोग हर साल एक क्रेडिट कार्ड के जितना माइक्रोप्लास्टिक्स निगल रहे हैं।

इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर की ओर से 2017 में प्रकाशित “प्राइमरी माइक्रोप्लास्टिक्स इन द ओशेन्स” के अनुसार, समुद्रों में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक्स में सिंथेटिक टेक्सटाइल्स की हिस्सेदारी 12 फीसदी है। गैर-लाभकारी संस्था डिफेंड अवर हेल्थ की एक रिपोर्ट के अनुसार, “प्लास्टिक से बने कपड़े और टेक्सटाइल्स इस्तेमाल के साथ टूटते जाते हैं, जिसकी वजह से हमारे घरों में माइक्रोप्लास्टिक और धूल में भरी एंटीमॉनी (पॉलिएस्टर उत्पादन में इस्तेमाल होने वाला एक जहरीला तत्व) बिखर सकते हैं और हमारे सांस लेने, खाने, और आसपास की चीजों को छूने से हमारे शरीर में प्रवेश कर सकते हैं।”

जनहित पर्यावरण कानून समूह, एलआईएफई के वरिष्ठ सलाहकार धर्मेश शाह कहते हैं कि, “वर्तमान में कंपनियां पॉलिएस्टर या अन्य प्लास्टिक बनाने के लिए उपयोग किए जाने वाले रसायनों का खुलासा नहीं करती हैं, लेकिन कई रसायन मानव स्वास्थ्य के लिए सही नहीं हैं। जानकारी के अभाव में पॉलिएस्टर को सुरक्षित मानने की गलती नहीं करनी चाहिए।”

टेक्सटाइल वेस्ट के प्रबंधन के तरीके में भी समस्याएं मौजूद हैं। ग्रीनपीस, यूके की एक जांच में पाया गया है कि नाइकी, राल्फ लॉरेन और अन्य ब्रैंड्स के लिए बने कपड़ों से निकले कचरे को कंबोडिया में ईंट भट्टों में जलाया जाता है। इनमें से अधिकतर कपड़ों के पॉलिएस्टर से बने होने की संभावना है, इसलिए इनके जलने से बंधुआ श्रमिकों को जहरीले धुएं और माइक्रोप्लास्टिक फाइबर के संपर्क में आना पड़ता है। इसी तरह बड़े ब्रैंड्स डंपिंग का तरीका भी अपनाते हैं। ये इस्तेमाल में नहीं आए कपड़ों को गलत तरीके से विकासशील देशों में मूल कीमत से कम पर बेच देते हैं। इससे विकासशील देशों में स्थानीय बाजार नष्ट हो जाता है।

मुनाफे में सेंध

पश्चिम के विपरीत भारत में कपड़ों के दोबारा इस्तेमाल और रिसाइकलिंग की अवधारणा सांस्कृतिक रूप से अंतर्निहित है। अधिकतर परिवार या तो अपने पुराने कपड़ों को खुद दोबारा इस्तेमाल करते हैं या उन्हें फिर से इस्तेमाल के लिए दूसरों को दे देते हैं। यहां ऐसे समुदाय भी हैं, जो बर्तन के बदले पुराने कपड़े लेते हैं और फिर पुराने कपड़े बाजार में बेचते हैं।

इस देश में असंगठित कामगारों का एक मजबूत नेटवर्क भी है, जो घरों से फेंके गए कपड़े और अन्य कचरे को इकट्ठा करता है। इससे कुछ हद तक दुनिया के बाकी हिस्सों की तुलना में भारत के लैंडफिल में टेक्सटाइल वेस्ट की कमी के पीछे की वजह भी पता चलती है। यूएन-हैबिटेट में अपशिष्ट प्रबंधन विशेषज्ञ स्वाति संब्याल बताती हैं कि “हालांकि इसका कोई निश्चित आंकड़ा नहीं है, लेकिन एक मोटे अनुमान के तहत शहरों से निकलने वाले कुल कचरे का 5-6 प्रतिशत हिस्सा कपड़ा होता है।” शाह कहते हैं, “अमेरिका जैसी उच्च खपत वाली अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत का पोस्ट-कंज्यूमर टेक्सटाइल वेस्ट फुटप्रिंट अपेक्षाकृत कम है। हालांकि, हमें लाइफ साइकल के लिहाज से प्लास्टिक की तरह ही कपड़ों के पर्यावरण फुटप्रिन्ट्स और फास्ट फैशन का मूल्यांकन करने की भी जरूरत है। इसमें उत्पादन भी शामिल है।”

भारत की रिलायंस इंडस्ट्रीज दुनिया के सबसे बड़े वर्जिन पॉलिएस्टर उत्पादकों में से एक है। भारत वर्जिन पॉलिएस्टर का एक प्रमुख रिसाइक्लिंग हब भी है। हरियाणा में पानीपत, पंजाब में लुधियाना और समाना, गुजरात में अहमदाबाद, सूरत, राजकोट, और गांधीनगर पॉलिएस्टर रिसाइक्लिंग के प्रमुख केंद्र हैं।

यह इंडस्ट्री कैसे काम करती है, यह समझने के लिए डाउन टू अर्थ ने दिल्ली से लगभग 90 किमी दूर स्थित पानीपत के पुराने बाजार का दौरा किया। व्यापारियों का कहना है कि इस इंडस्ट्रियल क्लस्टर में 70 से अधिक बड़ी और छोटी रिसाइक्लिंग इकाइयां मौजूद हैं और उन्हें मुख्य रूप से मोरक्को, दुबई, कनाडा, और यूरोपियन यूनियन से पुराने कपड़े मिलते हैं।

पानीपत स्थित केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय-प्रमाणित एक रिसाइक्लिंग इकाई, ग्लोबल टेक्सटाइल ओवरसीज के प्रबंध निदेशक पारस अली कहते हैं, “नए कपड़ों के उत्पादन के लिए पॉलिएस्टर के कपड़ों की रिसाइक्लिंग के लिए चर्चित सूरत को छोड़कर, भारत के अन्य सभी हब होम फर्निशिंग उत्पादों खासकर कालीन, बनाने के लिए डाउनसाइकिलिंग का काम करते हैं। लगभग 80 प्रतिशत डाउनसाइकल प्रोडक्ट्स का निर्यात किया जाता है, जबकि 10 प्रतिशत का उपयोग घरेलू मांग को पूरा करने के लिए किया जाता है।”

आयात के बाद कपड़ों को पहले छांटा जाता है, फिर पायदान से लेकर कंबल और चादरों तक कई तरह के उत्पाद बनाने के लिए उनके टुकड़े-टुकड़े कर लुगदी बनाई जाती है। वह आगे कहते हैं, “अंत में जो उत्पाद प्राप्त होता है, वह रिसाइकल किए गए पॉलिएस्टर और वर्जिन पॉलिएस्टर का मिश्रण होता है। उदाहरण के लिए पानीपत में अधिकतर कालीनों में 60 प्रतिशत रीसाइकल किया हुआ पॉलिएस्टर और 40 प्रतिशत वर्जिन पॉलिएस्टर होता है। जैसे-जैसे वर्जिन पॉलिएस्टर की मात्रा बढ़ती है, तैयार उत्पाद की गुणवत्ता बेहतर होती जाती है।”

रिसाइक्लिंग इकाइयों के मालिकों का कहना है कि पानीपत में उत्पादित घरेलू सामानों को फिर से रिसाइकल नहीं किया जा सकता है, इसलिए उन्हें आखिर में लैंडफिल में डाल दिया जाता है या फिर जला दिया जाता है।

बदलाव का वक्त

इंडस्ट्री से जुड़े एक्सपर्ट इस बात पर सहमत हैं कि टेक्सटाइल इंडस्ट्री में लगातार बढ़ती डिमांड नेचुरल फैब्रिक से पूरी नहीं हो सकती है। इसलिए बाजार में पॉलिएस्टर की मौजूदगी बनी रहेगी। हालांकि, वे यह चेतावनी भी देते हैं कि मौजूदा मॉडल सस्टेनेबल नहीं है। भारत में यह बेहद जरूरी हो गया है कि यहां प्लास्टिक की तरह ही पॉलिएस्टर के कचरे को भी गंभीरता से लिया जाए और उसी तरह से उसका निस्तारण किया जाए। यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि देश में प्लास्टिक वेस्ट से निपटने के लिए तो मजबूत कानून है, लेकिन टेक्सटाइल से निकलने वाले कचरे के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। यह कचरा म्यूनिसिपल सॉलिड वेस्ट रूल्स, 2016 के तहत आता है।

फिलहाल इस कचरे का निस्तारण दो तरह से किया जा रहा है: पहला, म्यूनिसिपल सॉलिड वेस्ट के तौर पर घर-घर जाकर कचरा उठाया जा रहा है और दूसरा, लैंडफिल और डंपिंग साइट्स से टेक्सटाइल वेस्ट इकट्ठा किया जा रहा है। ऑल इंडिया कबाड़ी मजदूर महासंघ के सेक्रेटरी शशि भूषण कहते हैं, “गरीब लोग फेंके जा चुके कुछ कपड़ों का इस्तेमाल सफाई से जुड़े कामों में करते हैं। कुछ घरों में खराब हो चुके कपड़े को गाड़ियों की रिपेयरिंग करने वाली दुकानों को भी बेच दिया जाता है।”

जानकार कहते हैं कि सबसे पहले फैशन इंडस्ट्री को जवाबदेह बनाने की जरूरत है। शाह कहते हैं, “वे जवाबदेह नहीं हैं, इसलिए अपने प्रोडक्ट्स को सस्टेनेबल बनाने के बारे में भी नहीं सोचते।” नतीजतन अधिकतर कपड़े मिश्रित फैब्रिक से तैयार किए जाते हैं, जिससे उन्हें रिसाइकल करना बेहद कठिन हो जाता है। 100 फीसदी पॉलिएस्टर से बनी शर्ट को कई बार रिसाइकल किया जा सकता है। जबकि, मिश्रित फैब्रिक से तैयार कपड़े को सिर्फ एक बार रिसाइकल कर उसका इस्तेमाल कालीन बनाने में किया जा सकता है। इस इंडस्ट्री में पारदर्शिता की भी कमी है। शाह कहते हैं, “हमें यह भी नहीं पता है कि प्लास्टिक फाइबर के उत्पादन और उनकी रंगाई में कौन से केमिकल इस्तेमाल किए जाते हैं। पॉलिएस्टर कैसे प्राप्त किया जा रहा है, इसका पता लगाने के लिए भी कोई व्यवस्था नहीं है।”

पानीपत के रिसाइकल करने वाले तैयार उत्पादों की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए वर्जिन और रिसाइकल किए हुए पॉलिएस्टर को मिला-जुलाकर इस्तेमाल करते हैं

इस समस्या के समाधान के लिए नियम बनाने जरूरी हैं। ऐसे में पॉलिएस्टर के लिए “एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर्स रिस्पॉन्सिबिलिटी (ईपीआर)” जैसे कदम उठाकर ब्रैंड मालिकों की जिम्मेदारी तय की जा सकती है। भारत में प्लास्टिक, टायर, बैटरी और ई-वेस्ट सेक्टर के लिए ईपीआर पहले से ही लागू है। इसके जरिए इनसे जुड़ी इंडस्ट्रीज के लिए कचरे को एकत्रित करने और उसे रिसाइकल करने के लक्ष्य तय किए गए हैं। यूरोपीय देशों में ईपीआर के दायरे में प्रोडक्ट डिजाइनिंग भी शामिल है, जिसके तहत उद्यमियों को ऐसे उत्पाद तैयार करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, जिन्हें आसानी से रिसाइकल किया जा सके। इससे कम से कम प्रदूषण फैलाने वाले उत्पाद तैयार किए जाते हैं, बल्कि टेक्सटाइल कचरे के लैंडफिल में पहुंचने से पहले उसके कलेक्शन रेट में भी सुधार आता है।

इसका असर इस इंडस्ट्री से जुड़े अनौपचारिक क्षेत्र को भी लाभ पहुंचता है, जो पहले से ही टेक्सटाइल कचरे को इकट्ठा कर उसे अलग करने और ब्रैंड या निर्माता तक कपड़े को वापस पहुंचाने में अहम भूमिका निभा रहा है। दिल्ली और आसपास के इलाकों में टेक्सटाइल वेस्ट आमतौर पर 2-3 रुपए किलो बेचा जाता है। जबकि, इसकी तुलना में दूसरा कचरा काफी महंगा बिकता है। उदाहरण के तौर पर पीईटी बोतलें 20 रुपए किलो, एल्यूमिनियम फॉइल 20-25 रुपए किलो, एल्यूमिनियम कंटेनर 30 रुपए किलो और दूध का पाउच 5 रुपए किलो बिकता है।

फ्रांस ने 2008 में ही टेक्सटाइल और फुटवियर इंडस्ट्री के लिए ईपीआर लागू कर दिया था जिससे वहां कचरे के कलेक्शन रेट में काफी सुधार आया। यूरोपीय देशों के निर्माताओं को सरकार की तरफ से स्थापित संस्था रि-फैशन में रजिस्ट्रेशन कराना और उसे फंड मुहैया कराना जरूरी है। सरकारी संस्था इस फंड का इस्तेमाल कचरे के निस्तारण से जुड़ी व्यवस्था पर करती है। 2020 में इस योजना में 4,096 सदस्यों ने 36 मिलियन डॉलर दिए, जिसमें से 17 मिलियन डॉलर कचरे को अलग करने वाले ऑपरेटर्स को दिए गए, 4 मिलियन डॉलर कम्यूनिटी प्रोजेक्ट्स पर खर्च और और करीब 1 मिलियन डॉलर इनोवेटिव प्रोजेक्ट्स को मिले। 2020 में फ्रेंच मार्केट में 5,17,000 टन उत्पाद पहुंचा, जिसमें से 2,04,000 टन एकत्रित कर लिया गया। इस तरह, 2013 में वेस्ट का जो कलेक्शन रेट 27 फीसदी था, वह 2020 में बढ़कर 39 फीसदी पहुंच गया।

यहां तक कि यूरोपीय संघ ने भी अपने “वेस्ट फ्रेमवर्क डायरेक्टिव (डब्ल्यूएफडी)” के सदस्यों से कहा है कि इस्तेमाल हो चुके टेक्सटाइल और कपड़ों के लिए 1 जनवरी 2025 तक अलग-अलग कलेक्शन सेंटर स्थापित कर लें। ताकि, यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह कचरा न तो लैंडफिल में भेजा जा सके और न ही जलाया जा सके। इस योजना को हकीकत में तब्दील करने के लिए ईपीआर एक आर्थिक साधन का काम करेगा।

भारतीय शहरों में एक और चिंताजनक ट्रेंड दिखाई दे रहा है। यहां इंडस्ट्रीज में मशीनों के जरिए कचरे की छंटाई और निस्तारण का काम बढ़ रहा है। इस प्रक्रिया के चलते कचरे के निस्तारण में अनौपचारिक क्षेत्र की भूमिका घट रही है। दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के शोधकर्ताओं ने हाल ही में इंदौर का दौरा किया। केंद्र सरकार के स्वच्छ सर्वेक्षण अभियान के मुताबिक इंदौर भारत का सबसे साफ शहर है। यहां शोधकर्ताओं ने पाया कि शहर का सारा टेक्सटाइल कचरा सीमेंट इंडस्ट्री में पहुंचाया जा रहा है, जहां उसे जला दिया जाता है। अंतरराष्ट्रीय गैर-लाभकारी संस्था ग्लोबल एलायंस फॉर इंसीनरेटर अल्टरनेटिव्स की एसोसिएट डायरेक्टर मोनिका विल्सन कहती हैं, “कचरे को जलाने का मतलब उसे लैंडफिल से उठाकर आसमान में पहुंचा देने जैसा है।”

दिल्ली की गैर-लाभकारी संस्था सेंटर फॉर रेस्पॉन्सिबल बिजनेस ने अप्रैल 2022 में “सर्कुलर टेक्सटाइल एंड अपैरल इन इंडिया: पॉलिसी इंटरवेंशन प्रियॉरिटीज एंड आइडियाज” जारी किया था। इसमें सुझाव दिया गया है कि टेक्सटाइल इंडस्ट्री को खुद को सर्कुलर इकोनॉमी में बदलने की जरूरत है। इसके लिए सरकार को उत्पादन और कचरा प्रबंधन के लिए स्पष्ट गाइडलाइंस तैयार करनी चाहिए। गाइडलाइंस में इसके लिए भी निर्देश होने चाहिए कि निर्माता अपने उत्पाद की कीमत में वेस्ट कलेक्शन की लागत भी शामिल करें। इसके साथ ही सरकार को इंडस्ट्री के लिए रिसोर्स ऑडिट भी अनिवार्य कर देना चाहिए।

अंतत: भांग और केले से मिलने वाले फाइबर जैसे वैकल्पिक मैटेरियल पर काम करने की जरूरत है, जिसमें ऊर्जा और पानी की जरूरत कम होती है। इन्हें आसानी से रिसाइकल भी किया जा सकता है और ये ज्यादा समय तक चलते भी हैं। बाजार में ऐसे विकल्प मौजूद तो हैं, लेकिन उनके विकास और शोध पर पर्याप्त काम नहीं हो सका है, इसलिए उनकी पहुंच सीमित है।

युद्ध को फंडिंग

रिलायंस और चीन की हेंगली सबसे बड़े पॉलिएस्टर निर्माता हैं। ये दोनों कंपनियां युद्ध के बीच रूस से सस्ता तेल खरीदने में जुटी हैं

नाइकी, रैंगलर, लिवाइस जैसे कपड़ों के कम से कम 39 ग्लोबल ब्रैंड रूस से अप्रत्यक्ष तरीके से तेल खरीद रहे हैं। ये कंपनियां तेल की खरीद-फरोख्त दुनिया की 2 सबसे बड़ी पॉलिएस्टर निर्माता कंपनियों के जरिए कर रही हैं। इनमें से एक कंपनी भारत की रिलायंस इंडस्ट्री है और दूसरी चीन की हेंगली ग्रुप। रिलायंस इंडस्ट्रीज और उसकी पॉलिएस्टर बनाने वाली कंपनी के लिए रूस सबसे बड़ा तेल सप्लायर बन गया है। नीदरलैंड की गैर-लाभकारी संस्था “चेंजिंग मार्केट्स” ने अपनी रिपोर्ट में इसका खुलासा किया है। संस्था ने 4 नवंबर 2022 को “ड्रेस्ड टु किल: फैशन ब्रैंड्स हिडेन लिंक्स टु रशियन ऑयल इन ए टाइम ऑफ वॉर” के नाम से अपनी इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्ट जारी की थी। चेंजिंग मार्केट्स की पड़ताल में पाया गया कि हेंगली ग्रुप भी पॉलिएस्टर उत्पाद बनाने के लिए रूस से तेल खरीद रहा है।

ये दोनों कंपनियां अपना पॉलिएस्टर धागा और फैब्रिक दुनिया भर के वस्त्र निर्माताओं को बेचती हैं, जो दुनिया के कई सबसे बड़े ब्रैंड्स के लिए कपड़े तैयार करते हैं। हालांकि, फरवरी 2022 में यूक्रेन पर हमले के बाद एडिडास और इस्प्रिट सहित 39 में से 25 से ज्यादा ब्रैंड्स ने रूस में अपना कामकाज रोक दिया था या फिर पूरी तरह से बंद कर दिया था। लेकिन, चेंजिंग मार्केट्स की रिपोर्ट आरोप लगाती है कि सिंथेटिक्स पर निर्भरता के चलते ये ब्रैंड्स अप्रत्यक्ष तौर पर युद्ध को फंडिंग कर रहे हैं।

यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद से रिलायंस ने रूस से खरीदे जाने वाले तेल की मात्रा 12 गुना ज्यादा बढ़ा दी है। रिपोर्ट के मुताबिक हमले से पहले रिलायंस हर महीने 72 मिलियन डॉलर का तेल खरीद रहा था, जो जुलाई 2022 में बढ़कर 882 मिलियन डॉलर तक पहुंच गया। इस तरह रूस रिलायंस का सबसे बड़ा तेल सप्लायर बन गया। पड़ताल से पता चलता है कि कंपनियां रियायती कीमत पर मिल रहे रूसी तेल का फायदा उठा रही हैं और रूस को फंडिंग रोकने की पश्चिमी देशों की कोशिशों पर पानी फेर रही हैं। हेंगली ग्रुप की सस्ते क्रूड ऑयल की खरीद के साथ ही मई 2022 तक चीन का रूसी तेल का आयात एक साल पहले की तुलना में 55 गुना तक बढ़ गया था।

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