रक्त के बाद अब पहली बार जीवित इंसान के फेफड़ों में मिले माइक्रोप्लास्टिक्स के कण
शरीर में प्लास्टिक की मौजूदगी के मिलते साक्ष्य यह स्पष्ट करते हैं वातावरण में पसरा यह जहर हमारी नसों और शरीर के अंगों तक में घुल चुका है
On: Thursday 07 April 2022

रक्त के बाद अब यह पहला मौका है जब इंसानी फेफड़ों के अंदर काफी गहराई में माइक्रोप्लास्टिक्स के कणों की मौजूदगी का पता चला है। शरीर में माइक्रोप्लास्टिक्स की मौजूदगी एक बड़े खतरे की और इशारा है। जो दर्शाता है कि प्लास्टिक का यह बढ़ता जहर न केवल हमारे वातावरण में बल्कि हमारी नसों और शरीर के अंगों तक में घुल चुका है।
देखा जाए तो आज धरती पर ऐसी कोई भी जगह नहीं है जो बढ़ते प्लास्टिक से मुक्त हो। माइक्रोप्लास्टिक्स के यह कण ऊंचे हिमालय से लेकर समुद्र की गहराइयों में और आर्कटिक और अंटार्कटिक जैसे स्थानों में भी पहुंच चुके हैं जहां मानव का नामोंनिशान भी नहीं है।
जर्नल साइंस ऑफ द टोटल एनवायरनमेंट में प्रकाशित इस शोध के मुताबिक माइक्रोप्लास्टिक्स के यह कण न केवल फेफड़ों के उत्तकों की गहराई में बल्कि साथ ही फेफड़ों के हर हिस्सों में मिले हैं। वैज्ञानिकों को सर्जरी से गुजर रहे 13 में से 11 रोगियों के ऊतकों में यह कण मिले थे, जिनमें पॉलीप्रोपाइलीन और पीईटी यानी पॉलीइथाइलीन टेरेफ्थेलेट सबसे आम थे।
गौरतलब है कि आमतौर पर पॉलीप्रोपाइलीन का उपयोग पैकेजिंग और पाइप्स में जबकि पीईटी को प्लास्टिक बोतलों के निर्माण में उपयोग किया जाता है। यूके के शोधकर्ताओं के मुताबिक संभव है कि माइक्रोप्लास्टिक के यह कण सांस के जरिए फेफड़ों में पहुंचे थे।
अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं को माइक्रोप्लास्टिक्स के 39 कण मिले हैं। इसके साथ ही शोध से पता चला है कि महिलाओं की तुलना में पुरुषों से प्राप्त नमूनों में कहीं ज्यादा कण पाए गए थे। शोधकर्ताओं को नमूनों में कुल 12 तरह के पॉलीमर के कण मिले हैं। शोध के अनुसार प्लास्टिक के इन 39 टुकड़ों में से 11 फेफड़ों के ऊपरी भाग, 7 मध्य भाग में जबकि 21 फेफड़ों के अंदरूनी हिस्सों में मिले हैं। जिनका वहां पाया जाना हैरान कर देने वाला है।
इससे पहले जर्नल एनवायरनमेंट इंटरनेशनल में प्रकाशित एक शोध में वैज्ञानिकों ने जानकारी दी थी कि माइक्रोप्लास्टिक के यह कण हमारे रक्त तक में मिल चुके हैं। अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों को 10 में से आठ लोगों के रक्त में माइक्रोप्लास्टिक के कण मिले थे, जिनमें से करीब आधे नमूनों में पीईटी प्लास्टिक पाया गया था।
इससे पहले कॉर्नेल और यूटा स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा किए एक अध्ययन से पता चला था कि सामान की पैकेजिंग और सोडा बोतलों में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक के छोटे-छोटे कण हवाओं के जरिए पूरी दुनिया की यात्रा कर सकते हैं|
शरीर में इसकी मौजूदगी के पहले भी सामने आ चुके हैं सबूत
शोधकर्ताओं के मुताबिक वातावरण में प्रवेश करने के बाद माइक्रोप्लास्टिक के यह कण लगभग छह दिनों तक हवा में रह सकते हैं| गौरतलब है कि इतने समय में यह कई महाद्वीपों की यात्रा कर सकते हैं या फिर सांस के जरिए हमारे शरीर के अंदरूनी अंगों में जा सकते हैं। फ्लोरिडा स्टेट यूनिवर्सिटी द्वारा किए एक अध्ययन में वैज्ञानिकों को पता चला था कि शरीर में पहुंचकर प्लास्टिक के यह महीन कण कोशिकाओं की कार्यप्रणाली को प्रभावित कर सकते हैं।
इतना ही नहीं एक बार फेफड़ों में पहुंचने के बाद यह कण फेफड़ों की कोशिकाओं के मेटाबॉलिज्म और उसके विकास पर असर डाल सकते हैं। यह कोशिकाओं के आकार को प्रभावित कर सकते हैं और उनकी रफ्तार को बाधित कर सकते हैं। इसी तरह जर्नल एनवायरनमेंट इंटरनेशनल में प्रकाशित एक शोध में भी अजन्मे बच्चे के प्लेसेंटा यानी गर्भनाल में माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी का पता चला था।
खतरा सिर्फ इतना ही नहीं है जर्नल ऑफ हैजर्डस मैटेरियल्स लेटर्स में प्रकाशित शोध में सामने आया है कि हमारी रोजमर्रा की चीजों जैसे टूथपेस्ट, क्रीम आदि से लेकर हमारे भोजन, हवा और पीने के पानी तक में मौजूद प्लास्टिक के यह कण बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स के खतरे को 30 गुणा तक बढ़ा सकते है।
किसने सोचा था कि शुरुआत में वरदान समझा जाने वाला यह प्लास्टिक भविष्य में इतनी बड़ी समस्या का रूप ले लेगा। गौरतलब है कि 1907 में पहली बार सिंथेटिक प्लास्टिक 'बेकेलाइट' का उत्पादन शुरू किया गया था| हालांकि इसके उत्पादन में तेजी 1950 के बाद से आई थी। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि तब से लेकर अब तक हम करीब 830 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन कर चुके हैं, जिसके 2025 तक दोगुना हो जाने का अनुमान है।
ऐसे में समय के साथ यह समस्या कितना विकराल रूप ले लेगी, इसका अंदाजा आप खुद ही लगा सकते हैं। ऐसे में यह समस्या न केवल पर्यावरण बल्कि हमारे स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा है, जिससे बचने के लिए तत्काल कार्रवाई करने की जरुरत है।