पक्षियों में पहली बार खोजी गई प्लास्टिक प्रदूषण से होने वाली नई बीमारी 'प्लास्टिकोसिस'

समुद्री पक्षियों में पहली बार खोजी गई इस बीमारी 'प्लास्टिकोसिस' की वजह कोई वायरस या बैक्टीरिया न होकर प्लास्टिक और उसके महीन कण यानी माइक्रोप्लास्टिक है

By Lalit Maurya

On: Monday 06 March 2023
 
प्लास्टिक को लेकर संघर्ष करते हंस; फोटो: मारिसा चिल्ड्स/आईस्टॉक

वैज्ञानिकों को पहली बार समुद्री पक्षियों में एक नई बीमारी का पता चला है। जानकारी मिली है कि पहली बार खोजी गई इस बीमारी की वजह वायरस या बैक्टीरिया न होकर प्लास्टिक और माइक्रोप्लास्टिक है। वैज्ञानिकों की मानें तो यह पहला मौका है जब किसी जंगली जीव में विशेष तौर पर प्लास्टिक से होने वाले फाइब्रोसिस का पता चला है। 

इस बारे में नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम के वैज्ञानिकों ने जानकारी दी है कि 'प्लास्टिकोसिस' नामक यह बीमारी समुद्री पक्षियों के पाचन तंत्र को नुकसान पहुंचाती है। इतना ही नहीं वैज्ञानिकों का कहना है कि इस बात की आशंका है, यह बीमारी समुद्र के अलावा अन्य पक्षियों को भी प्रभावित कर सकती है। अध्ययन के नतीजे जर्नल ऑफ हैजर्डस मैटेरियल में प्रकाशित हुए हैं।

पता चला है कि इस बीमारी में प्लास्टिक के छोटे कण पक्षियों के पाचन तंत्र में सूजन पैदा कर सकते हैं। वहीं समय के साथ, लगातार सूजन बने रहने के कारण ऊतक खराब और विकृत हो जाते हैं, जिससे पक्षियों के पाचन तंत्र के साथ-साथ उनके विकास पर भी असर पड़ता है। यहां तक की यह बीमारी उनके अस्तित्व को भी खतरे में डाल सकती है।

इस बारे में नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम में पक्षियों के विभाग के प्रधान क्यूरेटर और अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता डॉक्टर एलेक्स बॉन्ड का कहना है कि, "यह पक्षी बाहर से स्वस्थ दिख सकते हैं लेकिन वो अंदर से बीमार होते हैं।"

उनके अनुसार यह पहला मौका है जब पक्षियों में पेट के ऊतकों की इस तरह से जांच की गई है और यह दर्शाता है कि वातावरण में बढ़ता प्लास्टिक इन पक्षियों के पाचन तंत्र को गंभीर नुकसान पहुंचा सकता है।

देखा जाए तो प्लास्टिकोसिस नामक इस बीमारी का अब तक पता केवल एक प्रजाति में ही चला है। लेकिन वैश्विक स्तर पर प्लास्टिक प्रदूषण के पैमाने को देखते हुए लगता है कि इसका खतरा कहीं ज्यादा व्यापक हो सकता है। यहां तक कि यह बीमारी इंसानी स्वास्थ्य के लिए भी नुकसानदेह हो सकती है। 

अध्ययन के मुताबिक प्लास्टिक प्रदूषण का खतरा इतना व्यापक हो गया है कि अलग-अलग आयु आयु वर्ग के पक्षियों में इसके होने के व्यापक निशान मिले हैं। युवा पक्षियों में यह बीमारी पाई गई है।

वैज्ञानिकों के मुताबिक ऐसा लगता है कि समुद्री पक्षी मछली पकड़ते समय प्लास्टिक को निगल लेते हैं जो उसे गलती से सीधे अपने चूजों को खिला देते हैं। इस तरह चूजों को माता-पिता द्वारा गलती से भोजन में खिलाया गया प्लास्टिक प्रदूषण वापस इन्हें खाद्य श्रंखला का हिस्सा बना रहा है।

क्या है यह बीमारी 'प्लास्टिकोसिस'

'प्लास्टिकोसिस', एक प्रकार की फाइब्रोटिक बीमारी है। यह स्थिति बहुत ज्यादा घावों के होने से होती है। शरीर के एक हिस्से में जब बार-बार सूजन होती है, तो वो घावों को सामान्य रूप से ठीक होने से रोकती है।

आम तौर पर चोट या घाव के बाद उसमें अस्थायी तौर पर निशान बन जाते हैं, जो घावों को भरने और ठीक होने में मदद करते हैं। लेकिन जब बार-बार सूजन होती है तो बहुत ज्यादा मात्रा में घाव के निशान और उससे जुड़े ऊतक बनने लगते हैं।  जो उत्तकों की लचक को कम कर देते हैं और इस तरह उनकी संरचना में बदलाव का कारण बनते हैं।

प्लास्टिकोसिस के मामले में, पेट के ऊतकों में प्लास्टिक की वजह से जलन होने लगती है। वैज्ञानिकों ने पक्षियों में यह बीमारी अपनी शोध के दौरान ऑस्ट्रेलिया के लॉर्ड होवे द्वीप पर खोजी है जहां वे पिछले एक दशक से समुद्री पक्षियों पर रिसर्च कर रहे हैं।

रिसर्च से पता चला है कि जिन पक्षियों ने अधिक मात्रा में प्लास्टिक को निगला था उनके प्रोवेंट्रिकुलस में कहीं ज्यादा घाव थे। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि प्रोवेंट्रिकुलस पक्षियों के पेट का अगला भाग होता है।

शोधकर्ताओं ने पाया है कि पक्षियों की आंत में पाए जाने वाले अन्य अकार्बनिक पदार्थ, जैसे झांवा या कुस्र्न पत्थर इस तरह के घावों का कारण नहीं बनते हैं। पता चला है कि 'प्लास्टिकोसिस', प्रोवेंट्रिकुलस में ट्यूबलर ग्रंथियों के क्रमिक रूप से टूटने का कारण बन सकती है।

इस बीमारी से प्रभावित पक्षी संक्रमण और परजीवियों के प्रति कहीं ज्यादा संवेदनशील हो जाते हैं। साथ ही वो भोजन को ठीक से पचाने और विटामिन को अवशोषित करने के लिए संघर्ष करने लगते हैं।

वहीं एनवायर्नमेंटल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी, यूके द्वारा जारी हालिया रिपोर्ट ‘कनेक्टिंग द डॉटस: प्लास्टिक पॉल्यूशन एंड द प्लैनेटरी इमरजेंसी’ से पता चला है कि 2050 तक महासागरों में प्लास्टिक की मात्रा मछलियों के कुल वजन से भी ज्यादा होगा। अनुमान है कि महासागरों में पहुंच चुके कुल प्लास्टिक कचरे की मात्रा 2025 में करीब 25 करोड़ टन होगी, जो 2040 तक बढ़कर 70 करोड़ टन पर पहुंच जाएगी।

देखा जाए तो हमारे समुद्र अब प्लास्टिक के बड़े से सूप बाउल में बदल गए हैं। अकेले सतह पर मौजूद पानी में माइक्रोप्लास्टिक के करीब 51 लाख करोड़ टुकड़े मौजूद हैं। हालांकि यह प्लास्टिक प्रदूषण का एक बहुत छोटा सा हिस्सा है क्योंकि इसका अधिकांश हिस्सा माइक्रोप्लास्टिक के रूप में हमारी आंखों से ओझल रहता है।

एक रिसर्च के अनुसार प्राप्त जानकारी के मुताबिक दुनिया में 914 प्रजातियां सीधे तौर पर प्लास्टिक से प्रभावित हैं। इनमें धरती पर रहने वाली हाथी से लेकर समुद्री मछलियां, कछुए, पक्षी तक शामिल हैं। ऐसे में हर दिन विकराल रूप लेती इस समस्या से निपटने के लिए न केवल राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर बल्कि लोगों को अपने स्तर पर कदम उठाने की जरूरत है, जिससे इस बढ़ते प्रदूषण के जहर को वातावरण में घुलने से रोका जा सके।   

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