एशिया-प्रशांत क्षेत्र के महासागरों के लिए कोविड-19 बन सकता है वरदान: यूएन रिपोर्ट

कार्बन उत्सर्जन और ऊर्जा मांग में आई तात्कालिक कमी से समुद्री पर्यावरण बेहतर हुआ है। एशिया-प्रशांत क्षेत्र के देशों को इससे सीख ले कर आगे बढ़ने की जरूरत है

By Shashi Shekhar

On: Wednesday 13 May 2020
 
Photo: Piqsels

यूनाइटेड नेशन्स (संयुक्त राष्ट्र) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, हर साल 8 मिलियन टन प्लास्टिक कचरा समुद्र में फेंका जाता है। इससे करीब 8 बिलियन डॉलर के बराबर मेराइन इकोसिस्टम को नुकसान होता है और साथ ही 1 मिलियन समुद्री पक्षी और 1 लाख समुद्री स्तनपायी जीव असमय मर जाते हैं। समुद्र के भीतर माइनिंग, तेल का रिसाव, केमिकल और न्यूक्लियर कचरा, महानगरीय सीवेज आदि अन्य प्रदूषकों का योगदान अलग से है। 2019 के एक अध्ययन के मुताबिक, हिन्द महासागर के एक द्वीप पर 238 टन प्लास्टिक कचरा पाया गया था। ये स्थिति उस हिन्द महासागर की है, जिसे 21वीं शताब्दी का सबसे प्रभावी भू-राजनैतिक और आर्थिक ताकत बताया जा रहा है। इसे भारत की “ब्लू इकोनॉमी” का आधार भी कहा जाता है। समुद्री पर्यावरण की ये दुखद स्थिति पूरे एशिया-पैसिफिक (एशिया-प्रशांत) क्षेत्र में फैले महासागरों की भी है। एशिया-प्रशांत क्षेत्र को “मेराइन प्लास्टिक क्राइसिस” का केन्द्र कहा जाता है। 

ऐसी स्थिति में, यूनाइटेड नेशंस इकोनॉमिक एंड सोशल कमिशन फॉर एशिया एंड द पैसिफिक (ईएससीएपी) की नवीनतम रिपोर्ट उम्मीद की किरण जगाती है। ये रिपोर्ट बताती है कि कोविड-19 महामारी के कारण जिस तरह से समुद्री व मानव गतिविधियों, ऊर्जा की मांग, कार्बन उत्सर्जन में अस्थायी कमी आई है, उससे समुद्री पर्यावरण की रक्षा के लिए आवश्यक और बहुप्रतिक्षित उपायों को तलाशने और उसे आगे बढ़ाने में मदद मिल सकती है। 

रिपोर्ट जारी किए जाने के मौके पर यूनाइटेड नेशंस की अंडर-सेक्रेटरी-जनरल और ईएससीएपी की एक्जीक्यूटिव सेक्रेटरी आर्मिदा सालसिया एलिसजहबाना ने कहा, “महासागरों के बेहतर स्वास्थ्य का सीधा संबंध एशिया और पैसिफिक क्षेत्र के सतत विकास से है। कार्बन उत्सर्जन और ऊर्जा मांग में कमी के रूप में, कोविड-19 महामारी ने समुद्री पर्यावरण की रक्षा के लिए हमारे सामने अवसर पेश किया है। हमें इस अवसर का लाभ उठाना होगा।” 

“चेंजिंग सैल्स: एक्सेलेरेटिंग रिजनल एक्शन फॉर सस्टेनेबल ओसियंस इन एशिया एंड द पैसिफिक” शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि एशिया-पैसिफिक क्षेत्र में समुद्री प्रदूषण, मछली पकडने की गतिविधियां और जलवायु परिवर्तन का दर जिस तेजी से बढ़ रहा है, उससे मेराइन इकोसिस्टम के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। लेकिन, एशिया-पैसिफिक क्षेत्र के देश चाहे तो इसके संरक्षण और बेहतरी की दिशा में निवेश और प्रयास कर के तस्वीर बदल सकते है। रिपोर्ट के मुताबिक, इसके लिए पोस्ट कोविड-19 वर्ल्ड (कोरोना संकट के बाद की दुनिया) में इस क्षेत्र की सरकारों को समुद्री पर्यावरण संरक्षण के लिए दीर्घकालिक उपायों, मसलन ग्रीन शिपिंग, डी-कार्बनाइजेशन और हानिरहित फिशरीज, एक्वाकल्चर और टूरिज्म को अपनाना होगा। 

रिपोर्ट में इस क्षेत्र के महासागरों की बेहतरी के लिए समुद्री डेटा को पारदर्शी तरीके से साझा करने और राष्ट्रीय सांख्यिकी प्रणाली में मजबूत निवेश करने का सुझाव दिया गया है। ईएससीएपी वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति का लाभ उठाने की आवश्यकता पर बल देते हुए महासागरों की रक्षा और दीर्घकालिक इस्तेमाल के लिए अंतर्राष्ट्रीय समझौतों और मानकों को लगातार लागू किए जाने की सिफारिश करता है। 

एशिया और प्रशांत क्षेत्र के लिए यहां के महासागर बेहद महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र के महासागर  सिर्फ मत्स्य पालन क्षेत्र में लगे 200 मिलियन से अधिक लोगों के लिए भोजन और कमाई का जरिया है। 80 प्रतिशत से अधिक अंतरराष्ट्रीय व्यापार शिपिंग के जरिए होता है। इसमें भी दो-तिहाई शिपिंग सिर्फ एशियाई समुद्रों के रास्ते होता है। लेकिन, दुखद रूप से एशिया-पैसिफिक के देश दुनिया के शीर्ष प्लास्टिक प्रदूषकों में शामिल हैं। 

दुनिया भर के महासागरों में जाने वाले 95 प्रतिशत प्लास्टिक कचरे के लिए जिम्मेदार, दस नदियों में से आठ नदियां एशिया से हैं। इसमें भी गंगा नदी दूसरे स्थान पर है। ऐसे में नमामि गंगे जैसी योजना को समुद्री पर्यावरण के संरक्षण के साथ जोड़ कर देखे जाने की जरूरत है। क्या कोविड-19 संकट की पृष्ठभूमि में भारत सरकार अपनी “ब्लू इकोनॉमी” को बचाने पर ध्यान देगी? 

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