प्रदूषण से न नदियां बचीं और न भूजल

प्रदूषण से नदियां बेमौत मारी जा रही हैं। अब तक किए समस्त प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रहे हैं

By Sushmita Sengupta

On: Thursday 01 April 2021
 
नदियों में बहाया जा रहा अशोधित अपशिष्ट जल की गुणवत्ता को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है (फोटो: आइ स्टॉक )

हमारे अहम सतही जलस्रोतों का 90 प्रतिशत हिस्सा अब इस्तेमाल करने के लायक नहीं बचा है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) और अलग अलग राज्यों की प्रदूषण निगरानी एजेंसियों के हालिया विश्लेषण ने इसकी पुष्टि की है। साल 2015 में वाटर ऐड की एक रिपोर्ट जारी हुई थी, जो शहरी विकास मंत्रालय, जनगणना 2011 और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़ों पर आधारित थी। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि सतही पानी का 80 प्रतिशत हिस्सा प्रदूषित है।

रिपोर्ट में प्रदूषण के लिए घरेलू सीवरेज, साफ-सफाई की अपर्याप्त सुविधाएं, खराब सेप्टेज प्रबंधन और गंदा पानी तथा साफ-सफाई के लिए नीतियों की गैरमौजूदगी को जिम्मेवार माना गया था। सिर्फ सतह का जल ही प्रदूषित नहीं है बल्कि हमारा भरोसेमंद भू-जल भी अब स्वच्छ नहीं रहा है। झारखंड में रांची महिला कॉलेज के शिक्षा विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर कुंजलता लाल का मत है कि भू-जल जल को पानी का भरोसेमंद और साफ स्रोत माना गया है। भू-जल जल सतही प्रदूषण से सुरक्षित होता है क्योंकि इसमें जियोलॉजिकल फिल्टर लगा होता है, जो पानी में से प्रदूषण तत्वों को बाहर निकाल देता है, जो मिट्टी के रास्ते रिस जाता है। हालांकि, तब भी भू-जल जल सभी प्रदूषक तत्वों से मुक्त नहीं है।

नदियां- गंदे और प्रदूषित पानी का ठिकाना

हमारी नदियां मर रही हैं। यही हाल ईकोसिस्टम का है, जो नदियों को बचाए रखता है। नदियों पर न केवल प्रदूषण बल्कि इसके रास्ते में बदलाव, खत्म होती जैवविविधता, बालू खनन और कैचमेंट एरिया के खत्म होने का भी असर पड़ा है। अन्य खुले जलाशय जैसे झील, तालाब या टैंक या तो अतिक्रमण का शिकार हैं या फिर वे सीवेज और कूड़े का डंपिंग ग्राउंड बन गए हैं।

अपरिशोधित सीवेज और औद्योगिक कचरा बहाये जाने के कारण बंगलुरू के बेल्लादुर और वाथुर झील में जहरीला झाग कई बार समाचारों की सुर्खियां बन चुका है। ठोस कचरा व अंधाधुंध अतिक्रमण के कारण असम के दीपोर बील व अन्य झीलों को लेकर नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) जांच कर चुका है।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक 36 राज्य व केंद्र शासित प्रदेशों में से 31 में नदियों का प्रवाह प्रदूषित है। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा 53 प्रदूषित प्रवाह हैं। इसके बाद असम, मध्यप्रदेश, केरल, गुजरात, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, गोवा, उत्तराखंड, मिजोरम, मणिपुर, जम्मू-कश्मीर, तेलंगाना, मेघालय, झारखंड, हिमाचल प्रदेश, त्रिपुरा, तमिलनाडु, नागालैंड, बिहार, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, सिक्किम, पंजाब, राजस्थान, पुडुचेरी, हरियाणा और दिल्ली का नंबर आता है।

साल 2015 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की तरफ से जारी की गई रिपोर्ट में बताया गया था कि 275 नदियों के 302 प्रवाह प्रदूषित हैं जबकि साल 2018 की रिपोर्ट में 323 नदियों के 351 प्रवाह के प्रदूषित होने का जिक्र है (नीचे देखें, ग्राफ: राज्यों में सबसे प्रदूषित प्रवाहों की संख्या)। पिछले तीन सालों में देखा गया है कि खतरनाक रूप से प्रदूषित 45 प्रवाह ऐसे हैं, जहां के पानी की गुणवत्ता बेहद खराब है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अधिसूचित किया कि नदियों में छोड़े जाने वाले परिशोधित गंदे पानी की गुणवत्ता काफी खराब है और इसमें बोयोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड यानी बीओडी (बीओडी प्रदूषण को मापने का एक पैमाना है) की मात्रा प्रति लीटर 30 मिलीग्राम है। एक लीटर पानी में 30 मिलीग्राम से अधिक बीओडी को पानी की गुणवत्ता बेहद खराब होने का संकेत माना जाता है।

देश की राष्ट्रीय नदी गंगा अभी बहस के केंद्र में है। साल-दर-साल गंगा नदी के प्रवाह में दर्ज होते प्रदूषण के स्तर से नदी को साफ करने के लिए की जा रही कोशिशों पर सवाल उठते हैं। पिछले साल अगस्त में एनजीटी, जो गंगा को साफ करने के कार्यक्रम की निगरानी करता है, ने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से कहा था कि वह नदी के इन हिस्सों की शिनाख्त करे, जहां का पानी नहाने और पीने के योग्य है। बोर्ड ने इस बाबत एक मानचित्र तैयार किया जिसमें बताया गया है कि गंगा के मुख्य मार्ग के पानी की गुणवत्ता चिंताजनक रूप से खराब है।

यहां तक कि सितंबर 2018 का मानचित्र बताता है कि मॉनसून खत्म होने के बाद भी प्रवाह प्रदूषित है और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्लास-ए या क्लास-सी में भी नहीं आता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्लास ए का मतलब उन पेयजल स्रोतों से है, जिनके पानी को पारंपरिक तरीके से परिशोधित किए बिना रोगाणुमुक्त कर इस्तेमाल किया जा सकता है। वहीं, क्लास सी का मतलब उन पेयजल स्रोतों से है जिसके पानी को पारंपरिक तरीके से परिशोधित व रोगाणुमुक्त कर इस्तेमाल किया जा सकता है।

एनजीटी ने यह पूछा था कि नदी का पानी नहाने लायक है कि नहीं, लेकिन मानचित्र में ये संकेत नहीं दिया गया कि नदी के पूरे बहाव में खुले तौर पर नहाने दिया जा सकता है या नहीं। क्लास सी गुणवत्ता वाले पानी का यह मतलब नहीं है कि वो क्लास बी की शर्तों को पूरा करता है। क्लास बी और सी के लिए बीडीओ की मात्रा प्रति लीटर अधिकतम 3 मिलीग्राम होनी चाहिए, लेकिन खुले तौर पर नहाने के लिए डिजॉल्व्ड ऑक्सीजन प्रति लीटर 5 मिलीग्राम होनी चाहिए जबकि क्लास सी के लिए प्रति लीटर 4 मिलीग्राम होनी चाहिए।

इसके अलावा खुले तौर पर स्नान के लिए कुल कोलीफार्म प्रति मिली लीटर 500 एमपीएन मिला है, जो क्लास सी के लिए मान्य स्तर का दसवां हिस्सा है। अतः मानचित्र में साफ तौर पर यह संकेत अंकित किया जाना चाहिए कि कहां लोग नहाने के लिए जा सकते हैं। गंगा नदी के कन्नौज से लेकर गाजीपुर तक के हिस्से ( मिर्जापुर और वाराणसी को छोड़कर) को मॉनसून के बाद (अगस्त 2018) के आंकड़ों में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने असंतोषजनक बताया है।

हालांकि, इन स्थानों पर टोटल कोलीफोर्म (टीसी)की मात्रा 500 मिनिमम प्रोपेबल नंबर (एमपीएन)/100 मिलीलीटर दर्ज की गई है, लेकिन जैव ऑक्सीजन मांग (बीओडी) और घुलनशील ऑक्सीजन (डीओ) की मात्रा क्लास बी के मानकों के भीतर रहा। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मानचित्र, जिसे सुटेब्लिटी आफ रिवर गंगा नाम दिया गया है, में दर्ज लाल बिन्दुओं के जरिए बताया गया है कि इन स्थानों (ये क्लास ए और सी में शामिल नहीं हैं) के पानी को पारंपरिक/आधुनिक तौर पर परिशोधित व रोगाणुमुक्त करने के बाद पीने की इजाजत दी गई है। इस तरह के स्तर को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के असल “वाटर क्वालिटी क्राइटेरिया” में श्रेणीबद्ध नहीं किया गया है।

बोर्ड ने यह भी स्पष्ट नहीं किया है कि क्लास सी में जिस अत्याधुनिक ट्रीटमेंट या संगठित पारम्परिक व्यवस्था का जिक्र किया गया है, वो क्या है। ताजा रिकॉर्ड के मुताबिक, गंगा की सफाई पर मार्च 2017 तक 7,304.64 करोड़ रुपए खर्च किये जा चुके हैं, लेकिन गंगा और उसकी सहायक नदियों के पानी की गुणवत्ता में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है। केंद्रीय जल आयोग के आंकड़े (मई 2016-जून 2017 तक) बताते हैं कि गढ़मुक्तेश्वर से शहजादपुर के बीच गंगा में औसत बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड वैल्यू (प्रदूषण का स्तर मापने का पैमाना) स्नान करने के योग्य भी नहीं है।

प्रदूषण जस का तस

केंद्र सरकार ने गंगा की सफाई को प्रमुख एजेंडे के रूप में प्राथमिकता देते हुए तीन साल पहले नदी सफाई कार्यक्रम शुरू किया था, लेकिन इस कार्यक्रम के शुरू होने के तीन साल बाद भी यमुना में पानी की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं दिखा है। सुप्रीम कोर्ट और एनजीटी के कई आदेशों के बावजूद दिल्ली में यमुना का लगभग पूरा इलाका बुरी तरह प्रदूषित है। पल्ला और सुरघाट (वजीराबाद के बहाव) को छोड़ दें, तो मॉनसून के बाद ये नदी खत्म हो जाती है। अब नजरें दो हस्तक्षेपों-नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के “मैली से निर्मल यमुना” को लागू करने और दिल्ली के तीन सबसे बड़े नालों के साथ इंटरसेप्टर सीवेज लाइनें बिछाने पर टिकी हुई हैं।

कोविड माहामारी के चलते भारत सरकार की तरफ से लागू किए गए लाकडाउन से गंगा और यमुना जैसी नदियों की गुणवत्ता पर पड़े प्रभावों को जानना भी दिलचस्प है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने लॉकडाउन से पहले (15 से 21 मार्च) व लॉकडाउन के दौरान (22 मार्च से 15 अप्रैल) गंगा नदी के पानी की गुणवत्ता का विश्लेषण किया, जिसमें साफ तौर पर पता चला कि लॉकडाउन से इस पर कोई असर नहीं पड़ा। इसके विपरीत यमुना नदी के पानी की गुणवत्ता में लॉकडाउन के दौरान मामूली सुधार हुआ, हालांकि नदी प्रदूषित ही रही।

गंगा पर तैयार की गई रिपोर्ट में असल आंकड़े साझा नहीं किए गए हैं, लेकिन एक मोटा-मोटी ट्रेंड दिखाया गया है, जिससे पता चलता है कि अध्ययन की अवधि में बीओडी और सीओडी के स्तर में किसी तरह का बदलाव नहीं आया, जो इस बात का संकेत है कि लॉकडाउन के दौरान गंदे पानी का बहाव कम नहीं हुआ। रिपोर्ट कहती है, “औद्योगिक गंदे पानी, कृषि सिंचाई के पानी की अनुपस्थिति और ताजा पानी के बहाव के कारण डिजॉल्व्ड ऑक्सीजन में औसत इजाफा और नाइट्रेट में गिरावट दर्ज की गई।”

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने उत्तर प्रदेश के बिजनौर से पश्चिम बंगाल के हावड़ा तक लगे 18 रियलटाइम निगरानी स्टेशनों से पानी की गुणवत्ता के आंकड़ों का विश्लेषण किया। एजेंसी ने गंगा की सहायक नदियों (9) और नालियों (9) के 18 स्थलों से नमूना संग्रह कर उनका भी अध्ययन किया। सहायक नदियों का ट्रेंड नदी की मुख्य धारा के समान ही दिखा, जबकि नालियों में अपशिष्ट जल की गुणवत्ता लॉकडाउन के दौरान अपरिवर्तित रही।

सप्ताह-दर-सप्ताह विश्लेषण प्रकाशित करने वाली रिपोर्ट से पता चलता है कि गंगा में डीओ का स्तर लॉकडाउन के पहले हफ्ते (22-28 मार्च) में भारी बारिश के कारण घट गया था, जिससे नदी में सस्पेंडेड ठोस और मैलापन आ गया था। 15 साइट्स जहां से अध्ययन की पूरी अवधि में डीओ का स्तर दर्ज किया गया था, उनमें से पश्चिम बंगाल के चार साइट्स में लॉकडाउन से पहले की अवधि के मुकाबले लॉकडाउन के शेष तीन हफ्तों में महत्वपूर्ण सकारात्मक बदलाव देखने को मिला। वहीं, उत्तर प्रदेश में 11 साइट्स में पिछले तीन हफ्तों में गैर-महत्वपूर्ण सकारात्मक बदलाव देखे गए।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व वरिष्ठ वैज्ञानिक आरएम भारद्वाज कहते हैं, “पश्चिम बंगाल में डीओ का उच्च स्तर केवल पानी में सुपोषक होने का संकेत देता है और इसे साफ पानी समझने का भ्रम नहीं किया जाना चाहिए। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को वास्तविक तस्वीर के लिए 24 घंटे तक डीओ के स्तरों की जांच करनी होती है।” पश्चिम बंगाल में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वैज्ञानिकों ने इस दावे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

लॉकडाउन में भी नहीं घटा प्रदूषण

17 स्थानों से एकत्र किए गए समग्र बीओडी का स्तर लॉकडाउन के दौरान उच्च स्तर पर रहा। खास तौर पर पश्चिम बंगाल के बहरमपुर में डाउनस्ट्रीम साइट्स और श्रीरामपुर में उच्चस्तर पर रहा। कानपुर में देवरीघाट साइट, जहां लॉकडाउन के तीसरे सप्ताह में बीओडी का स्तर 15 मिलीग्राम प्रति लीटर तक बढ़ गया था, को छोड़कर उत्तर प्रदेश की सभी साइट्स पर लॉकडाउन से पहले और लॉकडाउन के दौरान बीओडी में थोड़ा कम बदलाव दर्ज किया गया।

रिपोर्ट में कहा गया है, “लॉकडाउन की अवधि के दौरान बीओडी की मात्रा 1.13 मिलीग्राम/लीटर से 5.56 मिलीग्राम/लीटर के बीच रही, जो कमोबेश लॉकडाउन से पहले की अवधि के बराबर ही थी। लॉकडाउन से पहले बीओडी की मात्रा 1.37 मिलीग्राम/लीटर से लेकर 5.58 मिलीग्राम/लीटर तक थी। लॉकडाउन के दौरान सीओडी के स्तर में महत्वपूर्ण कमी दर्ज नहीं की गई। हालांकि, नदी के ऊपरी हिस्सों में कुछ स्टेशनों में चार हफ्तों के दौरान औसत कमी रही, लेकिन, कई स्थानों पर निचले हिस्से में लॉकडाउन से पहले की तुलना में सीओडी का स्तर ज्यादा रहा।

रिपोर्ट में कहा गया है कि 15 साइटों में से 11 में अमोनियाकल नाइट्रोजन की मात्रा ज्यादा रही, जो बताता है कि गंगा में अपरिशोधित और आंशिक रूप से परिशोधित सीवेज पानी ज्यादा डाला गया। औद्योगिक और कृषि गतिविधियों के बंद होने के कारण अधिकांश स्थानों पर नाइट्रेट के स्तर में (2 से 66 प्रतिशत तक) गिरावट आई।

वाराणसी में यूपी राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्षेत्रीय अधिकारी मलिका सिंह ने कहा, “कल-कारखानों के बंद होने से डीओ के स्तर में सुधार हुआ और घाटों के बंद होने से जैविक तत्व कम हो गया। इसके परिणामस्वरूप वाराणसी में नदी के पानी रंग में अंतर साफ तौर पर देखा जा सकता है।” उन्होंने आगे कहा कि पिछले साल की तुलना में इस साल अप्रैल में शहर के दो मॉनिटरिंग स्टेशनों पर साफ पानी था। लेकिन, वाराणसी में ऊपरी बहाव क्षेत्र और निचले बहाव क्षेत्र में पिछले एक साल में डीओ के स्तर में 2.2 मिलीग्राम/लीटर की बढ़ोतरी दर्ज की गई।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एक वरिष्ठ विज्ञानी का ये भी दावा है कि होटल और रेस्तरां बंद करने से लॉकडाउन के दौरान गंदे पानी के बहाव में 10-15 प्रतिशत तक की कमी रही। हालांकि, रिपोर्ट में इस उल्लेखनीय कमी के बारे में कोई संकेत नहीं मिलता है।

यमुना में दिखा असर

दिल्ली से होकर बहने वाली यमुना के 22 किलोमीटर लंबे हिस्से में लॉकडाउन का असर साफ तौर पर दिखा है। हालांकि, ध्यान से देखने पर पता चलता है कि लॉकडाउन के मुकाबले शहर में हुई बेमौसम बारिश ने पानी की गुणवत्ता को सुधारने में बड़ी भूमिका निभाई। इसे समझना आसान भी है क्योंकि नदी में औद्योगिक प्रवाह की हिस्सेदारी 1 प्रतिशत से थोड़ा अधिक है। इसके अलावा औद्योगिक गंदे पानी को नदी में छोड़े जाने से पहले उसे परिशोधित किया जाता है।

नदी पर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट में नजफगढ़ और शाहदरा नालों के साथ पल्ला (यमुना के दिल्ली में प्रवेश बिंदु), निजामुद्दीन पुल, ओखला बैराज पर लगे मैनुअल मॉनिटरिंग स्टेशनों से नमूनों का संग्रह कर विश्लेषण किया गया है।

रिपोर्ट के मुताबिक, 4 मार्च (लॉकडाउन से पहले) और 6 अप्रैल (लॉकडाउन) को एकत्र किए गए दो नमूनों में बीओडी के स्तर में निजामुद्दीन पुल (90 प्रतिशत) और ओखला ऊपरी बहाव (77 प्रतिशत) में उल्लेखनीय सुधार पाया गया। हालांकि, तब भी स्नान (5 मिलीग्राम/लीटर या अधिक) के लिए अयोग्य रहा। डीओ के पूरे स्तर की तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि तीन में से दो साइट्स का लॉकडाउन से पहले का आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। पल्ला में हालांकि लॉकडाउन के दौरान डीओ का स्तर 17.1 मिलीग्राम/लीटर से घटकर 8.1 मिलीग्राम/लीटर हो गया। ये आश्चर्यजनक है क्योंकि इस क्षेत्र में न कल-कारखाने हैं और न ही ठोस वर्ज्य पदार्थ की डम्पिंग होती है।

क्या भू-जल वाले जलाशय सुरक्षित हैं?

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के विज्ञानी सुधीर कुमार श्रीवास्तव कहते हैं, “भूजल प्राथमिक लोकतांत्रिक जल स्रोत और गरीबी कम करने के साधन के रूप में उभरा है। कम पूंजी लागत की वजह से ये भारत में पानी का सबसे पसंदीदा स्रोत है।” सतही पानी का प्रदूषण खुली आंखों से दिखता है, इसलिए इस पर ज्यादा ध्यान जाता है। लाखों ग्रामीण और शहरी परिवारों के लिए पीने के पानी के विकेन्द्रीकृत स्रोत के रूप में भू-जल महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इसलिए इसे अतिरंजित नहीं किया जा सकता। भू-जल पर निर्भरता दिनोंदिन बढ़ रही है।

कुछ अनुमानों के अनुसार, लगभग 80 प्रतिशत ग्रामीण घरेलू पानी की जरूरत भू-जल से पूरी होती है और भारत के शहरी क्षेत्रों में पानी की 50 प्रतिशत निर्भरता भूमिगत जल पर है। सतही पानी की तुलना में आमतौर पर भू-जल जल कम दूषित होना चाहिए, लेकिन देश में विभिन्न प्रकार की जमीन और पानी पर आधारित मानव गतिविधियां भू-जल के प्रदूषण का कारण बन रही हैं। इसके अति-दोहन से कुछ मामलों में दूषित तत्वों में वृद्धि हो रही है और दोहन के अवैज्ञानिक तरीकों से कभी-कभी भू-जल में दूषित तत्त्वों की बढ़ोतरी हो सकती है।

भूजल की गुणवत्ता

भूजल की गुणवत्ता मुख्य रूप से लवणता, क्लोराइड, फ्लोराइड, नाइट्रेट, आयरन और आर्सेनिक से संबंधित हैं। एनवायरनमेंटल साइंस एंड टेक्नोलॉजी लेटर्स नाम के जर्नल में प्रकाशित साल 2018 के अध्ययन से पता चला है कि देश के 16 राज्यों का एक्विफर यूरेनियम से दूषित है और कई अध्ययनों ने पेयजल में इसकी मौजूदगी को चिरकालिक किडनी रोग से जोड़ा है।

महत्वपूर्ण बात ये है कि ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड के पेयजल विनिर्देशों में जिन प्रदूषक तत्वों पर निगरानी रखी जाती है, उनमें यूरेनियम नहीं है। ये अध्ययन अमेरिका के ड्यूक विश्वविद्यालय में निकोलस स्कूल ऑफ एनवायरनमेंट में जियोकेमिस्ट्री और पानी की गुणवत्ता के प्रोफेसर अवनर वेंगोश के नेतृत्व में शोधकर्ताओं की एक टीम ने किया था।

अध्ययन में कहा गया है कि यूरेनियम का मुख्य स्रोत प्राकृतिक है, लेकिन सिंचाई के लिए भारी पैमाने पर भू-जल की निकासी से भू-जल स्तर में गिरावट और नाइट्रोजन उर्वरकों के बेतहाशा इस्तेमाल से फैलने वाला नाइट्राइट प्रदूषण इस समस्या को संभवत: और बढ़ा रहा है। वंगोश ने एक बयान में कहा, “राजस्थान में हमारे द्वारा परीक्षण किए गए कुओं में से एक तिहाई कुएं के पानी में यूरेनियम का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के सुरक्षित पेयजल मानकों से अधिक है।” डब्ल्यूएचओ ने यूरेनियम का सुरक्षित पेयजल मानक 30 पीपीबी निर्धारित किया है।

विज्ञानियों ने राजस्थान, गुजरात और 14 अन्य राज्यों में भूजल जियो केमिस्ट्री को लेकर पूर्व में हुए 68 अध्ययनों के आंकड़ों का विश्लेषण किया। इस विश्लेषण में उन्होंने पाया कि उत्तरी राज्यों जैसे पंजाब व हरियाणा के 26 जिले समेत दक्षिणी और पूर्वी राज्यों के कई जिलों के एक्विफरों में ये समस्या व्यापक रूप में पाई गई।

समुद्री जल की घुसपैठ, औद्योगिक गंदगी और अव्यवहार्य कृषि पद्धतियों के कारण भू-जल भारी स्तर पर दूषित हो रहा है। भू-जल दूषित हो जाए तो क्या इसे साफ किया जा सकता है? इस सवाल का जवाब मुश्किल है। उदाहरण के लिए, अनुसंधान से पता चला है कि वर्षा जल को भू-जल में पहुंचा कर फ्लोराइड, आर्सेनिक, लवणता/कठोरता के स्तर को कम किया जा सकता है। यहां मुख्य मुद्दा प्रभावी रिचार्ज स्कीम या नीतियों को युद्धस्तर पर लागू करना है। केंद्रीय भूमि जल बोर्ड की तरफ से साल 2013 में “भूजल को कृत्रिम तरीके से रिचार्ज करने के लिए एक मास्टर प्लान” बनाया गया था। इस योजना के अनुसार, ग्रामीण और शहरी इलाकों में लगभग 85,565 मिलियन घनमीटर क्षेत्र में अगले 10 वर्षों में चरणबद्ध तरीके से भू-जल को रिचार्ज किया जाएगा।

औद्योगिक गंदगी में जहरीले तत्वों की अधिकता के कारण प्रदूषित पानी को साफ करने वाली प्रभावी तकनीकी नहीं है। राजस्थान में एक सल्फूरिक एसिड उत्पादन इकाई ने 22 गांवों के पेयजल स्रोतों को बेकार कर दिया। साल 2006 में प्रकाशित दिनेश कुमार और तुषार शाह के एक लेख में बताया गया है कि भारतीय संदर्भ में एक्विफर को साफ करना आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं है। लेखकों ने अपने लेख में राजस्थान के एक्विफर की सफाई के लिए 40 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान लगाया था।

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