खास रिपोर्ट : पूरे भारत में 98 फीसदी निगरानी स्टेशनों पर मिला नाइट्रेट प्रदूषण, सेहत पर बड़ा खतरा

पानी या खाने के जरिए अधिक नाइट्रेट का उपभोग शरीर में कई तरह के कैंसर पैदा कर सकता है।

By Vivek Mishra

On: Friday 06 May 2022
 

देश में खेतों में बढ़ते रासायनिक खादों के इस्तेमाल और सीवेज व ठोस कचरे के कुप्रबंधन से एकमात्र जगह एक्विफर में सुरक्षित स्वच्छ भूजल पर बड़ा खतरा मंडरा रहा है। नेशनल वाटर मैनेजमेंट प्रोग्राम के तहत केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के ताजा आंकड़े चौंकाने वाले हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक 98 फीसदी निगरानी स्टेशनों पर भूजल में नाइट्रेट प्रदूषण पाया गया है। केंद्रीय भूजल बोर्ड के मुताबिक पानी में 45 एमजी प्रति लीटर से अधिक की मात्रा जहरीली मानी जाती है। 

डाउन टू अर्थ को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) से सूचना के अधिकार के तहत यह आंकड़े हासिल हुए हैं। सीपीसीबी ने आरटीआई के जवाब में बताया है कि देश की 883 लोकेशन में 865 जगहों पर भू-जल में नाइट्रेट की मात्रा सामान्य से अधिक रही है। 

केंद्रीय भूजल बोर्ड के जरिए देश में भूजल प्रबंधित रखने के लिए कुल 15 हजार लोकेशन पर भू-जल की निगरानी की जाती है। हालांकि, नेशनल वाटर क्वालिटी मॉनिटरिंग प्रोग्राम के तहत सीपीसीबी भी सीमित निगरानी स्टेशनों पर भू-जल गुणवत्ता की निगरानी रखता है। सीबीसीबी के जरिए समूचे भारत में 1045 निगरानी स्टेशनों के जरिए भू-जल गुणवत्ता की निगरानी की जाती है। हालांकि, इन सीमित निगरानी स्टेशनों का भी पूरी क्षमता के साथ इस्तेमाल नहीं हो पाता।

आधी-अधूरी निगरानी 

सीपीसीबी के जरिए हासिल आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि 2020 में निगरानी वाले स्टेशनों की कुल संख्या को काफी कम कर दिया गया। 2020 से पहले कुल 1241 निगरानी स्टेशन थे। इनमें 196 स्टेशनों की कमी करके 2020 में कुल 1045 स्टेशन हो गए। इन 1045 स्टेशन में सिर्फ 883 लोकेशन को मॉनिटर किया गया। 

आंकड़ों से पता चलता है कि जिन जगहों पर ज्यादा निगरानी की गई वहां नाइट्रेट प्रदूषण के ज्यादा मामले मिले। सर्वाधिक प्रभावित राज्यों में  राजस्थान, गुजरात, पंजाब, पश्चिमबंगाल, उड़ीसा, बिहार, असम, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना जैसे प्रधान कृषि राज्य शामिल हैं। हालांकि सीपीसीबी के जरिए उत्तर प्रदेश में 2020 से पहले 40 निगरानी स्टेशन थे, इसे घटाकर 33 किया गया जिसमें से 12 लोकेशन पर ही नाइट्रेट प्रदूषण मिला। महाराष्ट्र के बारे में कोई परिणाम नहीं हासिल हुआ। क्योंकि 2020 में कोई भी निगरानी स्टेशन सीपीसीबी के पास नहीं था, जबकि इससे पहले 50 स्टेशनों का जिक्र था। 

दो दशक में 52 फीसदी बढ़ा नाइट्रेट प्रदूषण 

केंद्रीय भूजल बोर्ड के वर्ष 2000 और 2018 के आंकड़ों का भी डाउन टू अर्थ ने तुलनात्मक विश्लेषण किया। इससे पता चलता है कि दो दशकों में नााइट्रेट प्रदूषण में 52 फीसदी की बढोत्तरी हुई है। वर्ष 2000 में 22 राज्यों के 267 जिलों में 1549 साइटों पर नाइट्रेट प्रदूषण था, जबकि वर्ष 2018 में 22 राज्यों के 298 जिलों में 2352 साइटों पर नाइट्रेट प्रदूषण पाया गया। इनमें सर्वाधिक प्रभावित जिलों में केरल का मलप्पम, आंध्र प्रदेश का गुंतूर, गुजरात का बनासकांठा,जामनगर, जयपुर और भरतनगर व गोवा में उत्तरी गोवा, हरियाणा में हिसार, कर्नाटक में मैसूर, मध्य प्रदेश में बैतूल, महाराष्ट्र में धुले और नागपुर, पंजाब में मुक्तसर, उत्तर प्रदेश में हमीरपुर, बांदा, झांसी व पश्चिम बंगाल में पुरुलिया और अन्य शामिल है।

डीटीई ने केंद्रीय जल बोर्ड के आंकड़ों के विश्वलेषण में यह भी पाया कि वर्ष 2000 में देश में 36 जगहों पर नाइट्रेट प्रदूषण 500 एमजी प्रति लीटर से लेकर 2500 एमजी प्रति लीटर अधिक था, जबकि 2018 में 500 एमजी प्रति लीटर से लेकर 3348 एमजी प्रति लीटर तक वाले 67 प्रदूषित स्थान हो गए :- 

कुछ तथ्य : -

  • केंद्रीय भूजल बोर्ड के 2018 आंकड़ों के मुताबिक - हरियाणा के चरखी दादरी में दादरी तहसील, झज्जर में बहादुरगढ़ हिसार का अगरोहा, आदमपुर, हिसार-1 सर्वाधिक प्रभावित : इनमें 500 एमजी प्रति लीटर से 1314 एमजी प्रति लीटर तक नाइट्रेट की मौजूदगी
  • राजस्थान के चुरू में रतनगढ़ और सुजानगढ़, जयपुर में दुदू, जोधपुर में लूनी और मंदौर, सीकर में फतेहपुर, भरतपुर में नागर, उदयपुर में गिरवा, नागपुर जिले में डिडवाना
  • दिल्ली में नजफगढ़ी और पंजाब में सतलज वाला इलाका उच्च नाइट्रेट प्रदूषण से प्रभावित

38 करोड़ हैं जद में, हालिया शोध में पुष्टि 

मार्च, 2022 में भारत के भू-जल में नाइट्रेट प्रदूषण की स्थिति को अमेरिकन केमिकल सोसाइटी के जर्नल एसीएस पब्लिकेशंस में प्रकाशित शोधपत्र प्रिडिक्टिंग रीजनल स्केल एलिवेटेड ग्राउंड वाटर नाइट्रेट कंटेमिनेशन रिस्क यूजिंग मशीन लर्निंग ऑन नैचुरल एंड ह्यमून इंडयूस्ड फैक्टर्स  में बताया गया है कि भू-जल में नाइट्रेट कई स्रोतों से पहुंच सकता है। इसमें वातावरणीय, शहरी सीवेज का कुप्रबंधन, गंदेपानी के उपचार को लेकर लगाया गया प्लांट की खराब देखरेख और सेप्टिक सिस्टम हो सकते हैं। हालांकि प्रमुखता से पर्यावरण में नाइट्रेट की उपलब्धता कृषि में इस्तेमाल किए जा रहे रासायनिक खाद, जानवरों के खाद और फसलों को लगाने के दौरान होती है। इस शोध पत्र को आईआईटी खड़गपुर के सौम्यजीत सरकार, अभिजीत मुखर्जी, श्रीमंती दत्ता गुप्ता, सौमेंद्र नाथ भांजा और अनिमेष भट्टाचार्य ने संयुक्त तौर पर तैयार किया है। भारत में नाइट्रेट प्रदूषण की भयावह होती स्थिति और अधिक जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्रों पर मंडराते नाइट्रेट के स्वास्थ्य खतरे को जाहिर करने वाले इस शोधपत्र के मुताबिक देश के शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में पश्चिम, दक्षिण और केंद्रीय भाग सर्वाधिक जोखिम वाले क्षेत्रों की हिस्सेदारी करते हैं। शोध पत्र के मशीन लर्निंग डाटा सेट का अनुमान बताता है कि भारत के 37 फीसदी एरिएल एक्सटेंट और 38 करोड़ लोग नाइट्रेट प्रदूषण के जद में है। 

इसे साफ करना नामुमकिन 

आखिर भू-जल में नाइट्रेट पहुंचता कैसे हैनई दिल्ली स्थित थिंक टैंक के सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरमेंट के विशेषज्ञ डॉक्टर बसु बताते हैं कि यह प्रदूषण प्रमुखता से मानवजनित है। इसके दो प्रमुख स्रोत हैपहला कूड़े-कचरे के डंपिंग साइट से जमीन के भीतर गंदे-प्रदूषित पानी का रिसाव और दूसरा कृषि अभ्यास में रसायन का अत्यधिक इस्तेमाल किया जाना। डॉ बसु इस बारे में आगाह भी करते हैं कि भू-जल में एक बार नाइट्रेट प्रदूषण हुआ तो उसका साफ होना लगभग नामुमिकन है  

नाइट्रेट प्रदूषण से क्या हो सकती है समस्या 

नाइट्रेट जल या भोजन के माध्यम से शरीर में प्रवेश करता है। यह मुंह और आंतों में स्थित जीवाणुओं द्वारा नाइट्राइट में बदल दिया जाता है जो पूरी तरह से ऑक्सीकारक होता है। यह खून में मौजूद हीमोग्लोबिन में मौजूद लौह के फैरस को फैरिक में बदल देता है, जिस कारण हिमोग्लोबिन मैथमोग्लोबिन में बदल जाता है। ऐसी स्थिति में हीमोग्लोबिन अपनी ऑक्सीजन परिवहन की शक्ति खो देता है। जिससे सांस की समस्या हो सकती है। इसके अलावा शरीर भी नीला पड़ सकता है, जो कि बच्चों में ज्यादा देखने को मिलता है। इस अवस्था को ब्लू बेबी सिंड्रोम भी कहा जाता है। नाइट्रेट की अधिकता कई समस्याएं खड़ी कर सकती है। मसलन पाचन-तंत्र, लिंफोमा, मूत्राशय और डिंबग्रंथि के कैंसर जैसे मामले आ सकते हैं। यह मवेशियों के लिए भी खतरनाक है जो कि पशुपालकों को भी बड़ा झटका दे सकती है। 

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