वर्ष 2100 तक तापमान 4 डिग्री सेंटीग्रेट तक पहुंच जाएगा?
जलवायु परिवर्तन से उठते कई सवालों का जवाब देती एक किताब, जो दुनिया की आंखें खोल देती हैं
On: Thursday 25 July 2019
जब भी जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतर-सरकारी पैनल कोई नई रिपोर्ट जारी करता है या पेरिस समझौते जैसी किसी महत्वपूर्ण संधि पर हस्ताक्षर किए जाते हैं या इसमें विलंब होता है तो जलवायु परिवर्तन को लेकर भाषणबाजी शुरू हो जाती है। कई बार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जैसे लोगों द्वारा जलवायु परिवर्तन की गंभीरता को नकारते हुए किए गए ट्वीट्स भी खबरों में छा जाते हैं और कुछ समय के लिए इस विषय को दोबारा जिंदा कर देते हैं। चक्रवात, धूल भरी आंधियों और अत्यधिक बारिश के कारण शहरों में बाढ़ जैसी बड़ी आपदाएं आने पर भी लोग जलवायु परिवर्तन और इसके विनाशकारी प्रभावों पर चर्चा करने लगते हैं।
जी-20 देशों की बैठक और विश्व आर्थिक मंच जैसी बड़ी कूटनीतिक बैठकों में भी जलवायु परिवर्तन का मुद्दा नाममात्र के लिए उठता है, हालांकि ऐसा दुर्लभ ही होता है कि कोई बड़ा राजनीति नेता या कारोबारी इसके बारे में कोई महत्वपूर्ण वादा करे या जलवायु परिवर्तन के प्रति प्रतिबद्धता दर्शाए। यदि दुनिया धरती के तापमान में अनियंत्रित बढ़ोतरी के विनाशकारी परिणामों को रोकने के प्रति गंभीर है तो ऐसी महत्वपूर्ण बैठकों में जलवायु संबंधी संवाद को तरजीह देनी होगी। डेविड वेलेस वेल्स की यह किताब इस बारे में फिर से चेतावनी देती है। यह मुख्य रूप से बताती है, यदि तापमान में बढ़ोतरी के अनुमान सच साबित हुए तो वर्ष 2100 तक दुनिया की क्या हालत होगी।
इस ब्यौरे का संदर्भ बिंदु पेरिस समझौता है जिसमें वैश्विक कार्य योजना बनाई गई है। इसका उद्देश्य तापमान को 2 डिग्री सेंटीग्रेट से नीचे लाकर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को रोकना है जबकि तापमान को 1.5 डिग्री सेंटीग्रेट तक रोकने की दिशा में सभी प्रयास करने की बात कही गई है। हालांकि यह किताब इस बात का उल्लेख करती है कि कार्बन उत्सर्जन के बढ़ते रहने के कारण और देशों द्वारा ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी) में कमी करने की शपथ के बावजूद हम तापमान को 3.2 डिग्री सेंटीग्रेट तक ही कम कर पाएंगे।
आखिरी परिणाम तो कई तरह की अनिश्चितताओं पर निर्भर करेगा, फिर भी किताब कहती है कि यदि आगामी दशकों में उत्सर्जन में बहुत ज्यादा कमी आती भी है तब भी वर्ष 2100 तक तापमान 4 डिग्री सेंटीग्रेट तक पहुंच जाएगा। चेतावनी के साथ की गई यह भविष्यवाणी क्योटो प्रोटोकॉल पर आधारित है जो अब तक उत्सर्जन में कमी करने संबंधी एकमात्र वैश्विक समझौता है। यद्यपि सभी जलवायु मॉडलों में उनकी अनिश्चितताओं सहित तापमान के अलग-अलग परिदृश्यों की भविष्यवाणी की गई है, तथापि आखिरी नतीजा एक ही बात पर निर्भर करेगा और वह यह कि आने वाले कुछ दशकों के दौरान हम हवा में कितना कार्बन घोलते हैं। इसका अर्थ है कि पृथ्वी कितनी गर्म होगी। यह विज्ञान से जुड़ा मसला नहीं है बल्कि मनुष्य के कृत्यों पर निर्भर करता है। इसलिए लेखक का कहना है कि “क्या होगा” की भविष्यवाणी करने से बेहतर यह बताना है कि क्या हो सकता है। इसके बाद लेखक ने तापमान बढ़ने के प्रभावों जैसे लू, समुद्र का स्तर बढ़ना, खाद्य असुरक्षा, प्राकृतिक आपदा, पानी की कमी और वॉर्मिंग के महामारी बनने के बारे में लगाए गए अनुमानों पर चर्चा की है।
गर्म होती इस दुनिया में खाद्य उत्पादन पर दबाव बढ़ेगा। एक ओर आबादी बढ़ेगी तो दूसरी ओर अनाज की पैदावार में कमी जाएगी। लेखक ने थॉमस माल्थस और पॉल हैरिच के प्राकृतिक व्यवस्था की धारण क्षमता और जनसंख्या विस्फोट के सिद्धांतों की याद दिलाई है तथा दुनिया के गरीबों को भुखमरी से बचाने के लिए हरित क्रांति की शुरुआत करने वाले नॉर्मन बोरलॉग का आभार व्यक्त किया है। इस जगह पर आकर किताब के तर्क कमजोर पड़ने लगते हैं। विश्व का तापमान बढ़ने का लगभग सारा दोष विकासशील देशों पर थोप दिया गया है। लेखक कहता है, “जो ग्राफ हमें गरीबी, भुखमरी, शिक्षा और शिशु मृत्यु दर तथा जीवन प्रत्याशा आदि की दिशा में विकासशील देशों द्वारा हाल में की गई प्रगति के बारे में बताते हैं, वास्तव में वही ग्राफ हैं जो वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में अत्यधिक वृद्धि करके पूरे ग्रह को विनाश की ओर ले जाने का खाका भी खींचते हैं।”
लेखक बिना कोई सबूत पेश किए कहता है, “शीत युद्ध समाप्त होने के बाद दुनिया के मध्यम वर्ग का मानवीय विकास जीवाश्म ईंधन आधरित औद्योगिकीकरण की बदौलत हुआ। पृथ्वी के पर्यावरण को संकट में डालकर दुनिया के दक्षिणी हिस्से की बेहतरी के लिए निवेश किया गया।” यदि पहले किए गए उत्सर्जन को दक्षिणी दुनिया के विकास के लिए किया गया “निवेश” मान भी लिया जाए तो क्या अब उनसे इसका बदला चुकाने को कहा जा रहा है?
यद्यपि यह किताब पश्चिम के उपभोक्तावाद और उत्सर्जन के बीच संबंध का उल्लेख करती है, तथापि वर्तमान और भावी उत्सर्जन की बात आने पर यह सारी जिम्मेदारी भारत और चीन जैसे विकासशील देशों पर डाल देती है। उदाहरण के लिए, “दुनिया की जलवायु का भविष्य काफी हद तक भारत और चीन के विकास के स्वरूप पर निर्भर करेगा जो यह जानते हुए भी कि उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में औद्योगिकीकरण के लिए चुना गया आसान रास्ता आज जलवायु समस्या का कारण बन चुका है, लाखों लोगों को दुनिया के मध्यम वर्ग में जोड़ते जा रहे हैं।” दूध उत्पादन का जिक्र करते हुए यह किताब कहती है कि अकेले चीन डेयरी उत्पादन में वैश्विक जीएचजी उत्सर्जन को 2050 तक 35 प्रतिशत बढ़ा देगा। लेखक पश्चिम द्वारा पहले किए गए उत्सर्जन और “वर्चुअल वाटर” जैसी अवधारणाओं तथा इससे होने वाले उत्सर्जन को नजरअंदाज कर देता है जिसके जरिए पश्चिम देशों ने पानी तथा कार्बन गहन विनिर्माण और खाद्य उत्पादन को आसानी से चीन और अन्य विकासशील देशों को स्थानांतरित कर दिया है।
कुल मिलाकर यह किताब पढ़ने योग्य है लेकिन कई जगहों पर मुख्य संदेश घुमावदार, अलंकृत भाषा, कविताओं और लंबे वाक्यों में उलझ जाता है। यद्यपि इसका विषय वैश्विक जलवायु परिवर्तन है, तथापि ज्यादातर उदाहरण और आंकड़े अमेरिकी पाठकों को ध्यान में रखकर दिए गए हैं। प्रलय का चित्रण करने की उत्कंठा में लेखक ने कुछ कमजोर अध्ययनों का सहारा लिया है। जलवायु पलायन और कृषि क्षेत्र में असंतोष जैसे प्रभावों के बारे में बात करते समय वेलेस-वेल्स ने तम्मा कार्लटन के पेपर का जिक्र किया है जिसमें भारत में 50,000 किसानों की आत्महत्या को वैश्विक तापमान से जोड़ा गया है।
इस पेपर को भारतीय वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों ने खारिज कर दिया है। फिर भी जलवायु संकट इतना व्यापक और कई पहलुओं को अपने में समेटे हुए है कि इसके रहस्यों से पर्दा उठाने और इसके प्रभावों पर बात करने वाली किसी भी किताब का स्वागत है।
(लेखक इंडिया साइंस वायर के प्रबंध संपादक हैं)