‘नमामि गंगे’ पर 'स्‍वच्‍छ भारत' का बोझ

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दो प्रमुख कार्यक्रम परस्पर विरोधी प्रयोजन में काम कर रहे हैं। जब तक स्वच्छ भारत मिशन पूरा होगा, गंगा किनारे लगभग तीन करोड़ सेप्टिक टैंक और गड्ढे खोदे जा चुके होंगे। इनसे नि‍कला मल-मूत्र नमाम‍ि गंगे पर पानी फेर सकता है 

By Anupam Chakravartty

On: Wednesday 15 February 2017
 
हजारीबाग बिहार के कटिहार शहर में अधिकांश शौचालय सेप्टिक टैंक वाले हैं। नगर पालिका इनसे निकलने वाले मल-मूत्र को एकत्रित कर सीधे कूड़े-कचरे के मैदान में डाल देती है (फोटो: अनिल यादव / सीएसई)

उत्तर प्रदेश के चुनार कस्बे में सब्जी उगाने वाली सुषमा पटेल सर्दी के इस मौसम में कुछ ज्यादा ही व्यस्त हैं। उनके खेत गंगा के उपजाऊ मैदान में हैं, जहां एक साल में तीन फसलें ली जाती हैं। लेकिन सर्दी ही एकमात्र मौसम है, जब वह सब्जियां उगा सकती हैं। लेकिन इससे पहले उन्हें अपने खेत से प्लास्टिक के रैपर और कतरनों को उठाना पड़ेगा। एक खुले नाले की तरफ इशारा करते हुए वह बताती हैं, “यह सब इसकी वजह से है। यह नाला आसपास के इलाके से सीवेज को उनके खेत से होते हुए गंगा में बहा ले जाता है।” बरसात में यह नाला गंदगी से लबालब भरा होता है और खेतों को प्लास्टिक कचरे और मल से पाट देता है। आसपास की हवा में बदबू भर जाती है, और हम अपने खेत तक भी नहीं जा पाते।” लेकिन वे इसकी शिकायत किससे करें? इस तरह के पुराने शहर-कस्बों में रहने वाले ज्यादातर लोगों के लिए यही जीवन है।

चुनार में लगभग 70 प्रतिशत लोग ऐसे शौचालयों पर निर्भर करते हैं, जिनमें सेप्टिक टैंक और गड्ढों का उपयोग होता है। मल-मूूत्र निस्तारण की उचित व्यवस्था के अभाव में यहां के लोग मल को शहर की नालियों में बहा देते हैं। खेतों और भूजल को दूषित करते हुए ये 27 नालियां मल को गंगा और इसकी सहायक नदी जारगो में पहुंचा देती हैं। गंगा में अशोिधत सीवेज की अंधाधुंध निकासी को देखते हुए 18 मई 2016 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने चुनार सहित उत्तर प्रदेश की अन्य चार नगर पालिकाओं; मिर्जापुर, भदोही, फतेहपुर और हस्तिनापुर को कारण बताओ नोटिस जारी किया। एनजीटी ने नगर पालिकाओं से पूछा क‍ि इस प्रकार सीवेज को नदी में बहने से रोकने के लिए उनकी क्या योजनाएं हैं?

एनजीटी के कड़े रुख के बाद गंगा में सीवर का प्रवाह कम करने के लिए अधिकारी हाथ-पांव मार रहे हैं। चुनार नगर पालिका के स्वच्छता निरीक्षक शमशेर सिंह बताते हैं, “हम लोगों ने एक सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) स्थापित करने के लिए गंगा किनारे 10 हेक्टेयर जमीन का चयन किया है, इस संयंत्र की क्षमता रोजाना 80 लाख लीटर सीवेज को शोधित करने की होगी। फिलहाल चुनार से रोजाना 60 लाख लीटर घरों का गंदा पानी निकलता है, जो सीधे नदी में चला जाता है। हम चार जगह सीवेज पम्पिंग स्टेशन बनाने की योजना बना रहे हैं। ये पम्पि‍ंग स्टेशन गंदे नालों को नदी में जाने से रोककर प्रस्तावित एसटीपी तक पहुंचा देंगे।” लेकिन इसमें एक समस्या है। चुनार शहर चारों तरफ से पहाड़ों से घिरा हुआ है, जिससे सीवर को प्रस्तावित एसटीपी तक पहुंचाने में बहुत ही कठिनाई आ रही है। 

नई दिल्ली स्थि‍त सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) के शोधकर्ताओं के अनुसार, गंगा किनारे 2,500 किलोमीटर में बसी बस्तियों से निकले सीवेज का एक बड़ा हिस्सा सीधे नदी में पहुंचता है। गंगा में बहने वाले इस अशोधित मल-मूत्र की मात्रा का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि गंगा किनारे रहने वाले 40 करोड़ लोगों में से सिर्फ 25 प्रतिशत लोग ही घरों में शौचालय का इस्तेमाल करते हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, गंगा की मुख्य धारा के समीप कम से कम 1.80 करोड़ सेप्टिक टैंक और एक करोड़ गड्ढे वाले शौचालय हैं। इन टैंकों और गड्ढों से निकलने वाला मल सीधे नालियों में बहा दि‍या जाता है।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) द्वारा साल 2013 में तैयार की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, रोजाना 138 नालों से होकर 609 करोड़ लीटर से अधिक गंदा पानी गंगा में पहुंचता है। विशेषज्ञों का कहना है कि इसमें अधिकांश घरेलू सीवेज होता है। गंगा की मुख्य धारा देश के पांच राज्यों - उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल से होकर बहती है। इन राज्यों में रोजाना केवल 121 करोड़ लीटर सीवेज के शोधन की क्षमता है। इसके अलावा गंगा नदी में प्रति दिन 50 करोड़ लीटर उद्योगों का दूषित पानी भी पहुंचता है।

शौचालयों की बाढ़

केंद्र सरकार के स्वच्छ भारत अभियान की वजह से यह स्थिति और भी भयावह हो रही है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य है कि 2 अक्टूबर, 2019 तक पूरे भारत को खुले में शौच से मुक्त कर दिया जाए। इस मिशन के तहत सरकार की गंगा किनारे ग्रामीण क्षेत्रों में 15.2 लाख शौचालयों और शहरी क्षेत्रों में 14.5 लाख शौचालयों (इसमें निजी और सार्वजनिक शौचालय शामिल हैं) के निर्माण की योजना है। ये शौचालय सेप्टिक टैंक, ट्वीन पिट्स, बायोटॉयलेट और बायो डाइजेस्टर जैसी चार प्रकार की ऑन-साइट स्वच्छता तकनीक द्वारा बनाए जाएंगे। इसका मतलब है कि 2019 तक गंगा के किनारे 3 करोड़ से अधिक टैंक या गड्ढे खोदे जाएंगे।

सीएसई की गणना के अनुसार, इन टैंकों और गड्ढों से 18 करोड़ लीटर मल-मूत्र न‍िकलेगा, जिसमें 600 करोड़ लीटर सीवेज के बराबर प्रदूषण होगा। उचित मल प्रबंधन प्रणाली के अभाव में यह गंदगी आखिरकार गंगा में जा मि‍लेगी। (मानचित्र देखें:)।

डीटीई/सीएसई डेटा सेंटर द्वारा तैयार, इंफोग्राफिक: राज कुमार सिंह
(डेटा स्रोत: विभिन्न स्रोत )

यह एक नए संकट की आहट है, क्योंकि मल प्रबंधन के पर्याप्त इंतजामों के बिना गंगा क‍िनारे शौचालयों की बढ़ती तादाद ‘नमामि गंगे’ के प्रयासों पर पानी फेर सकती है। सीपीसीबी की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में कानपुर पार करने के बाद गंगा में मल कोलिफॉर्म का स्तर स्वीकार्य सीमा से अधिक हो जाता है। अंतरराष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान (आईडब्लूएमआई) के वरिष्ठ शोधकर्ता जेवियर मेटओ सगास्ता बताते हैं कि मल कीटाणुओं के स्तर में बढ़ोतरी के कारण गंगा का पानी पीने और स्नान के लायक नहीं रह जाता।

सीएसई की शहरी जल प्रबंधन इकाई के कार्यक्रम निदेशक सुरेश कुमार रोहिल्ला कहते हैं, “दुर्भाग्य से, स्वच्छ भारत मिशन जैसे स्वच्छता कार्यक्रमों में मल-मूत्र और सेप्टाज प्रबंधन का कहीं भी जिक्र नहीं है।” इसलिए आशंका है कि स्वच्छ भारत मिशन के तहत गंगा किनारे बनने वाले लाखों शौचालयों से निकला मल-मूत्र सरकार के महत्वाकांक्षी ‘नमामि गंगे’ कार्यक्रम को विफल न कर दे। हालांकि, इस मिशन के तहत 118 शहरों में प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए कई परियोजनाएं चलाई जा रही हैं, जिनमें शौचालयों और एसटीपी के निर्माण से लेकर घाटों का आधुनिकीकरण के योजनाएं शामिल है। लेकिन दुर्भाग्य से मल प्रबंधन को नजरअंदाज किया गया है।

जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय के सचिव शशि शेखर कहते हैं, “सीवेज के साथ-साथ मल निस्तारण के लिए हम एसटीपी स्थापित करने की योजना भी बना रहे हैं।” लेकिन फिलहाल ‘नमामि गंगे’ सीवर के प्रबंधन पर ही केंद्रित है। वह भी केवल ऐसे शहरों में जिनकी आबादी एक लाख से अधिक है।

अब तक शहरी विकास के लिए अटल मिशन ही एक मात्र ऐसा कार्यक्रम है, जिसमें शहरों को सीवर और सेप्टाज के इंतजाम की योजना प्रस्तुत करनी जरूरी है। लेकिन इसके विफल होने के दो कारण हैं। पहला, यह मिशन केवल पहले दर्जे के शहरों तक ही सीमित है। दूसरा, यह शहरी स्थानीय निकायों के प्रदर्शन का मूल्यांकन सीवरेज कवरेज के आधार पर करता है। यही वजह है कि अधिकारी सेप्टाज मैनेजमेंट प्लान बनाने में दिलचस्पी नहीं लेते।

एक सर्वेक्षण से पता चला है कि गंगा के किनारे शहरों में, मल अपशिष्ट का प्रबंधन करने में प्राधिकरण बुरी तरह से विफल रहे हैं। सीएसई के शोधकर्ताओं ने अक्टूबर और नवंबर के दौरान उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के 10 छोटे और मझोले शहरों का दौरा किया, जहां गंगा किनारे बसी बस्तियों की झलक देखी जा सकती है। इस दौरे के निष्कर्ष चौंकाने वाले रहे। सर्वेक्षण में पता चला कि केवल दो शहरों (रामनगर और बिजनौर) में सीवर लाइनें हैं। लेकिन अभी तक यहां अधिकारी एसटीपी स्थापित करने में विफल रहे हैं। सभी दस कस्बों और शहरों में कम से कम 60 फीसदी घरों में ऑनसाइट सैनिटेशन वाला शौचालय उपयोग होता है। लेकिन इस व्यवस्था में जो मल-मूत्र निकलता है, उसे बेतरतीब ढंग से खाली जमीन, खुली नालियों, गड्ढों और पास के नदी-नालों में बहा दिया जाता है। पश्चिम बंगाल के बांसबेरिया और बनगांव शहर में अधिकारियों ने सख्ती की है। इन शहरों में लगभग सभी घरों में स्वच्छ भारत मिशन के तहत शौचालयों का निर्माण हुआ है। बनगांव नगर पालिका के अधिकारी जगबंधु साहा बताते है,“हमें इसका कोई अंदाजा ही नहीं है कि आने वाले वर्षों में इन गड्ढों से निकले मल का निपटारा कैसे करेंगे।”

मल एवं सेप्‍टाज प्रबंधन की जरूरत 

यह साबित हो चुका है कि केंद्रीकृत सीवरेज प्रणाली की तुलना में मल प्रबंधन या फीकल स्लज एंड सेप्टाज मैनेजमेंट (एफएसएसएम) न केवल किफायती है, बल्कि शहरों को स्वच्छ बनाने के लिए इसे तुरंत लागू किया जा सकता है। आईडब्लूएमआई के हालिया अध्ययन में गंगा किनारे पांच राज्यों में बसे सभी 2,367 शहरों में मल अपशिष्ट प्रबंधन की लागत का विश्लेषण किया गया है। अध्ययन के अनुसार, इन शहरों में शौचालयों के गड्ढों से निकलने वाले मल का निपटारा करने पर करीब 18,900 करोड़ रुपये का खर्च आएगा, जबकि सीवरेज नेटवर्क बिछाने और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) बनाने पर इससे छह गुना ज्यादा खर्च आएगा। सीवर लाइन डालने में सात से आठ साल लगते हैं, जबकि मल निपटारे की व्यवस्था करने में सिर्फ एक या दो साल का समय लगता है।

सीवरेज सिस्टम में खर्च भी काफी आता है। सेप्टिक टैंक के विपरीत सीवर प्रणाली के लिए बहुत अधिक पानी की जरूरत पड़ती है। यह सिर्फ उन शहरों में कारगर है, जहां रोजाना प्रति व्यक्ति 135 लीटर पानी की आपूर्ति हो। अभी हमारे पहले दर्जे के शहरों में भी ऐसा मुमकिन नहीं है। सुरेश कुमार रोहिल्ला कहते है कि मल बहाने के लिए पानी का प्रयोग कीमती संसाधन की बर्बादी है। सीवरेज सिस्टम में मल बहाने और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट चलाने के लिए बिजली की जरूरी है। इसलिए बिजली की किल्लत का सामना करने वाले शहरों व कस्बों में यह प्रणाली कारगर नहीं हैं। इसके विपरीत, फिकल स्लज ट्रीटमेंट प्लांट (एफएसटीपी) को बहुत कम बिजली की आवश्यकता होती है, क्योंकि ये ज्यादातर प्राकृतिक प्रणालियों पर आधारित होते हैं।

एशिया के कई विकासशील देश मल प्रबंधन को दुरुस्त करने के प्रयास कर रहे हैं। आश्चर्य की बात है कि फिलीपींस जैसे छोटे देश, जहां 40 प्रतिशत आबादी सेप्टिक टैंक वाले शौचालय का उपयोग करती है, भी इस पर विचार कर रहे हैं। फिलीपींस के स्वच्छ जल अधिनियम, 2004 का मुख्य घटक सेप्टाज मैनेजमेंट है।

इन देशों की तरह भारत को भी इसी रास्ते पर आगे बढ़ना चाहिए। यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि लोग अपने क्षेत्र की भूगर्भ संरचना के हिसाब से शौचालयों का निर्माण कराएं। उदाहरण के तौर पर, गोवा के लोगों का कहना है कि स्वच्छ भारत मिशन के तहत जिस तरह के शौचालयों के निर्माण को बढ़ावा दिया जा रहा है, वे इस क्षेत्र के लिए उपयुक्त नहीं हैं। क्योंकि वहां भारी वर्षा होती है और जल स्तर ऊपर है। नदियों से घिरे इलाके और रेतीला समुद्र तट होने के कारण जुड़वां गड्ढों से मल व अपशिष्ट का रिसाव भू-जल को दूषित करता है। यहां सोक पिट वाले सेप्टिक टैंक भी कारगर नहीं हैं। इस क्षेत्र के लिए बायोडाइजेस्टर और बायोटॉयलेट्स उपयुक्त साबित हो सकते हैं। लेकिन वे महंगे हैं और लोग ऐसे शौचालयों का निर्माण और रखरखाव करना भी पूरी तरह नहीं जानते हैं।

मल-मूत्र प्रवाह प्रबंधन के अपने फायदे हैं। यह गंगा किनारे बसे अनियोजित शहरों में कारगार साबित हो सकता है। स्थानीय शहरी निकाय सीवरेज प्लान के साथ-साथ इसे भी अपने मास्टर प्लान, सिटी डेवलपमेंट प्लान या सिटी सेनिटेशन प्लान में शामिल कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें बस शौचालयों में सुधार के लिए मार्गदर्शन देने की जरूरत है कि प्राइवेट वैक्यूम टैंकरों का नियमन और फीकल स्लज ट्रीटमेंट सिस्टम का संचालन कैसे किया जाए। मल के निपटारे में शहरी निकायों को निजी कंपनियों के साथ भागीदारी के लिए भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। बांग्लादेश में एक गैर-लाभकारी संगठन ‘वाटरएड बांग्लादेश’ अपनी सहयोगी संस्था बांग्लादेश एसोसिएशन फोर सोशल एडवांसमेंट के साथ मिलकर शाकिपुर नगर पालिका में कंपोस्ट प्लांट चला रहा है, जिसमें खाद बनाने के लिए मल व जैविक कचरे का उपयोग किया जाता है।

आईडब्लूएमआई के शोधकर्ताओं का कहना है कि जिन शहरों में सीवरेज सिस्टम है, वहां ऐसा संयंत्र स्थापित किया जाना चाहिए जो मल और सीवेज दोनों का निस्तारण कर सके। जिन शहरों में सीवरेज सिस्टम नहीं है लेकिन प्रति व्यक्ति जलापूर्ति रोजाना 80 लीटर से अधिक है, वहां सेप्टिक टैंक से मलजल ले जाने के लिए एक सरल सीवर सिस्टम होना चाहिए। इस मलजल का शोधन अलग-अलग जगह किया जा सकता है। जिन शहरों में प्रति व्यक्ति जलापूर्ति रोजाना 80 लीटर से कम है, वे मल का शोधन वेटलैंड पर माइक्रोफाइट्स के जरिये भी कर सकते हैं।

गंगाघाट नगर पालिका परिषद् के अधिकारी नागेंद्र कुमार कहते हैं, “सबसे बड़ी बात यह है कि लोगों में जागरूकता होनी चाहिए। लोगों के सहयोग के बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता।” इस पर सहमति जताते हुए सुरेश कुमार रोहिल्ला कहते हैं, “शहरों में स्वच्छता के साथ-साथ गंगा की सफाई तभी हो सकती है, जब सरकार, नागरिक समाज और लोग सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के साथ-साथ मल-मूत्र के निपटारे की व्यवस्था की अहमियत को भी समझें। जरूरी है कि जल, स्वच्छता व स्वास्थ्य के मुद्दों को नदियों में प्रदूषण की समस्या से जोड़कर देखा जाए।”

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शोध: भितुष लुथरा, शांतनु कुमार पाढ़ी, अनिल यादव, अमृता भटनागर, भाविक गुप्ता, एश्वर्या वरदराजन

 

 

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