स्वच्छ भारत में शौचालय बने पर व्यवहार नहीं बदला, विशेषज्ञों ने उठाए सवाल

स्वच्छ भारत मिशन के तहत सामुदायिक स्तर पर जो प्रयास होने चाहिए थे, उसे प्रशासनिक अधिकारियों पर दबाव बना कर कराया गया

By DTE Staff

On: Monday 29 April 2019
 
Photo : Vikas Choudhary

स्वच्छ भारत मिशन को पूरा करने के लिए सरकार ने प्रशासनिक अधिकारियों पर दबाव बनाया और जो काम सामुदायिक स्तर पर पूरा होना चाहिए था, उसे कलेक्टर के माध्यम से पूरा किया गया।

यह बात 29 अप्रैल को सीएलटीएस फाउंडेशन के संस्थापक कमल कार द्वारा लिखी गई किताब “स्केलिंग अप सीएलटीएस: फ्रॉम विलेज टू नेशन” के विमोचन समारोह के मौके पर सेनिटेशन एक्सपर्ट्स ने कही।

वाटर ऐड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी वीके माधवन ने कहा कि हमें स्वच्छता को एक व्यवहार के तौर पर देखना चाहिए, जिसमें समाज की भागीदारी हो, लेकिन स्वच्छ भारत मिशन एक राजनीतिक अनिवार्यता बन कर रह गया। हमने देश भर में शौचालयों का निर्माण तो कर दिया, लेकिन इस तरह का व्यवहार विकसित नहीं कर पाए, जिससे इन शौचालयों का इस्तेमाल सुनिश्चित हो सके।

उन्होंने निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि स्वच्छ भारत मिशन में समुदाय के नेतृत्व वाले कुल स्वच्छता (सीएलटीएस) के मूल सिद्धांतों की अनदेखी की गई।

कमल कार, ​​जिनके संगठन ने एशिया और अफ्रीका में तकनीकी सहायता और नीति वकालत के माध्यम से स्वच्छता प्रथाओं पर काम किया है, ने कहा कि स्वच्छ भारत मिशन एक बड़ी पहल है क्योंकि यह प्रधानमंत्री का नंबर एक राष्ट्रीय एजेंडा है, जिसकी अपनी ताकत होती है। और इसने एक जन अभियान को सरकारी अभियान में बदल दिया।

सरकार ने 2 अक्टूबर, 2019 तक भारत को खुले में शौच मुक्त बनाने का संकल्प लिया है, जिसका मकसद सभी गांवों में घरों में बने शौचालय का उपयोग करना है। सरकारी अनुमानों के अनुसार, स्वच्छ भारत मिशन के तहत 5 फरवरी, 2019 तक देश भर में नौ करोड़ से अधिक शौचालयों का निर्माण किया गया।

इस मौके पर विशेषज्ञों ने कहा कि निर्मित शौचालयों की संख्या में वृद्धि होने के बावजूद, देश को खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) घोषित करना किसी चुनौती से कम नहीं है। यहां यह भी ध्यान देना होगा कि आने वाले दिनों में आबादी बढ़ने के साथ नए शौचालयों की जरूरत पड़ेगी।

कार ने कहा कि हम में से जो लोग जमीन पर काम करते हैं, वे जानते हैं कि एक गांव को ओडीएफ घोषित करना कितना मुश्किल है। यह एक आसान काम नहीं है और खासकर सामुदायिक भागीदारी बिना यह काम नहीं किया जा सकता।

उन्होंने कहा कि 1999 में तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने निर्मल भारत अभियान की शुरुआत की थी, इस अभियान के तहत लोगों के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए पैसा खर्च किया जा रहा था, लेकिन स्वच्छ भारत मिशन ने उस पैसे का इस्तेमाल शौचालयों के निर्माण में किया जाने लगा।

शौचालय की कमी के लिए सब्सिडी देने के सरकारी मॉडल की आलोचना करते हुए, कार ने बांग्लादेश के बारे में बात की, जो कभी खुले में शौच का केंद्र था और स्वच्छता रैंकिंग में भारत से नीचे था। लेकिन बांग्लादेश ने 2015 में ओडीएफ दर्जा हासिल कर लिया।

सीएलटीएस मॉडल पहली बार, बांग्लादेश में पेश किया गया था। यहां सब्सिडी देकर लोगों से शौचालयों का निर्माण नहीं कराया गया। बल्कि बांग्लादेश सरकार ने खुले में शौच से होने वाली बीमारियों के बारे में लोगों को जागरूक किया और सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से ओडीएफ कार्यक्रम चलाया।

माधवन ने भी कहा कि अगर हम समुदायों के बारे में बात करते हैं तो सब्सिडी की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। दुर्भाग्यपूर्ण वास्तविकता यह है कि सब्सिडी इस देश में राजनीतिक अनिवार्यता और आवश्यकता का हिस्सा बन गई है। यहां तक ​​कि व्यक्तिगत घरेलू शौचालय के लिए भी सब्सिडी दी जा रही है। जबकि समुदायों के भले के लिए हमें सामुदायिक प्रयासों पर ध्यान देना चाहिए।

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