खुद ही कचरा निस्तारण कर मिसाल बना रानीखेड़ा गांव

कभी शहर भर का कचरा अपने गांव के बाहर डालने का विरोध करने वाले गांव रानीखेड़ा के लोगों ने दिल्ली ही नहीं पूरे देश के लिए उदाहरण पेश किया है 

By Anil Ashwani Sharma

On: Wednesday 05 June 2019
 
रानीखेड़ा गांव के लोग वह जगह दिखाते हुए, जहां गांव भर का कचरा इकट्ठा होता है और उसका वहीं निस्तारण कर दिया जाता है। Photo: Adithyan P C

रानी खेड़ा गांव (दिल्ली) केवल कचरे के खिलाफ एकजुट हुए संघर्ष के लिए नहीं जाना जाता है, बल्कि यह गांव कचरा निस्तारण के लिए भी एक उदाहरण है। यह बात गांव के 68 वर्षीय पूर्व शिक्षक सुशील प्रकाश ने डाउन टृ अर्थ से कही। वह कहते हैं कि पर्यावरण दिवस क्या होता है। सही मायने में तो हर दिन पर्यावरण दिवस होना चाहिए। क्या हम एक ही दिन खाना खा कर साल भर भूखे रहते हैं। ऐसे में हमारी सब से यह पुरजोर गुजारिश है कि यह दिवस एक दिन का नहीं है यह तो हर दिन का है।

प्रकाश ने बताया कि यह सही है कि डेढ़ साल पहले जब हमने निगम की कचरा डालने वाले ट्रकों को यहां से भागने पर मजबूर कर दिया था, लेकिन यह हर किसी को करना चाहिए। और अपने कचरे का निस्तारण स्वयं ही करना चाहिए। किसी के भरोसे हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे रहना चाहिए। वह कहते हैं कि यह सही है कि आखिरकार संघर्ष ही रंग लाता है। यह संघर्ष किसी भी क्षेत्र में क्यों न हो। हम सब ग्रामीणों ने मिलकर दिल्ली नगर निगम के खिलाफ एक जुट होकर गांव के मुहाने पर आ खड़े हुए कि किसी भी हालत में आप दूसरों का कचरा हमारे  गांव के आसपास नहीं डालेंगे। और कई हफ्तों की लड़ाई के बाद आखिरकार हमारी जीत हुई। उस जीत का असर यह रहा, तब से अब तक नगर निगम ने सपने में भी नहीं सोचा कि रात के अंधेरे में जब रानी खेड़ा गांव के लोग गहरी नींद सोए होंगे तो हम दबे पांच जाकर कचरा डंप कर देंगे। इस संघर्ष में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने वाली गांव की ही कमला देवी कहती हैं कि एक लाख से अधिक आबादी वाले इस गांव को सरकार अब तक न स्कूल दे सकी और न ही स्वास्थ्य केंद्र लेकिन डेढ़ साल पहले सरकार हमें यह कचरा घर तोहफे में जरूर देना चाहती थी लेकिन हमने भी ठान ली थी कि हम मर जाएंगे लेकिन गांव के बाहर कचरा नहीं डालने देंगे। और अंत में हमरी ही जीत हुई उसका एक और परिणाम हुआ कि अब हमारे गांव में निगम रोज कचरा उठाने आने लगा। पहले तो वह हफ्ते पंद्रह दिन में आता था।

अकेले विरोध के लिए नहीं बल्कि कचरा निस्तारण के लिए भी जाना जाता है

यह गांव अकेले निगम के कचरा डालने के विरोध के लिए नहीं जाना जाता है। बल्कि यह गांव दिल्ली ही नहीं बल्कि देश के लिए एक उदाहरण बन गया है क्योंकि यहां के ग्रामीण स्वयं ही अपने आप अपने कचरे का निस्तारण करते हैं और सूखे-गीले कचरे को भी अलग-अलग करते हैं। गीले कचरे को अपने घर के आसपास ही जमीन में दबा देते हैं, जबकि सूखे यानी प्लास्टिक या कांच को एकत्रित कर निगम की आने वाली कचरा गाड़ी में डाल देते हैं। इस संबंध में इसी गांव की ही विद्या देवी बताती हैं कि हम तो निगम की कचरा उठाने वाली गाड़ी का कभी इंतजार नहीं करते। हम अपना कचरा खुद ही ठिकाने लगा देते हैं। कचरा खुद से ठिकाने कैसे लगाती हैं के सवाल पर वे कहती हैं कि यहां अधिकांश लोग अपना कचरा अपने घर के अंदर ही रखते हैं और वह भी अलग-अलग यानी सूखा और गीला कचरा। जहां तक सूखे कचरे की बात है तो ज्यादातर लोग दो-चार दिनों में जब यह थोड़ा इकट्ठा हो जाता है तो उसे जला देते हैं। हालांकि उन्होंने बताया कि हम इस जलाने वाले कचरे में कोई प्लास्टिक या रबड़ नहीं जलाते, बल्कि पंद्रह-बीस दिनों में निगम गाड़ी आती है तो उसे गीला और इस तरह का कचरा दे देते हैं।

गांव में यह कचरा अलग-अलग करना या सूखा कचरा जलाने की प्रक्रिया को क्या किसी बाहरी ने आ कर बताया था? यह सवाल जब गांव की सुनैना देवी से किया तो उन्होंने कहा कि हम तो जब से यहां आए हैं तब से दूसरों की देखा-देखी ही करने लगे। सुशील प्रकाश कहते हैं कि कचरा निस्तारण के लिए बहुत अधिक बुद्धि खरचने की जरूरत नहीं होती है। बस सोच की बात है। वैसे भी यह गांव कोई मंत्री महोदया के पुरस्कार देने मात्र से ही साफ नहीं कहलाने लगा था बल्कि इस गांव के ही पुराने लोगों ने साफ-सफाई की जो बुनियाद रखी दी थी, हम बस वही परंपरा चलाते आ रहे हैं।

कभी स्वच्छता का तगमा हासिल किया था

ध्यान रहे कि कभी रानी खेड़ा गांव ने दिल्ली का सबसे स्वच्छ गांव होने का तमगा हासिल किया था। यह बात 1962 की है जब तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री सुशीला नैयर ने खुद इस गांव में आकर उसे इस खिताब से नवाजा था। गांव के एक बुजुर्ग सेवानिवृत्त शिक्षक सुशील प्रकाश बताते हैं कि उस साल सरकार ने पूरी दिल्ली में स्वच्छता के लिए प्रतियोगिता आयोजित की थी। इस प्रतियोगिता में रानी खेड़ा को मंत्री महोदया ने सर्वश्रेष्ठ स्वच्छ गांव होने का पहला पुरस्कार दिया था। तब से लेकर अब तक आसपास तमाम इलाकों में आज भी हमारा गांव स्वच्छता का प्रतीक बना हुआ है। गांववाले सफाई का पूरा ध्यान रखते हैं नगर निगम पर निर्भर नहीं रहते हैं।’ वे कहते हैं कि इस गांव में जो भी देश के किसी भाग से आता है वह इसकी स्वच्छता में शरीक हो जाता है। गांव में आए किसी बाहरी व्यक्ति को कोई जोर-जबरन साफ रहने पर मजबूर नहीं करता है, बस वह दूसरों की देखा-देखी इस परिवेश में ढल जाता है।

आजमगढ़ से आए पत्थर घिसाई का काम करने वाले रविंदर चौरसिया इस गांव के वाशिंदे बन कर रह गए हैं, कहते हैं कि  देश के कोने-कोने से से लोग आ कर यहांकिराए पर रहते हैं। एक तर हसे आप इसे छोटा भारत कह सकते हैं लेकिन विभिन्न संस्कृतियों के लोग यहां आकर यहां की सफाई व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बन जाता है। आप देख सकते हैं कि गांव की मुख्य सड़क हो या छोटी गली, कहीं भी अपको गंदगी दिखाई नहीं पड़ेगी।

 इस गांव के मुख्य द्वार से अंदर घुसते ही एक सीधी लंबी सड़क दिखाई पड़ती है। सड़क देखकर मन में सवाल बार-बार यह उठता है कि क्या यहां निगमकर्मी दिन में तीन बार सफाई करते हैं। लेकिन इस खुशफहमी को दूर करते हुए गली के मुहांने पर खड़े गांव के बुजुर्ग रामचंद्र ने कहा कि निगम वाले तो अपने हिसाब से ही सफाई के लिए आते हैं। इसके बावजूद गांव की सड़कें या गलियां इतनी साफ कैसे? इस पर वे कहते हैं किअरे भाई आप अपना कचरा अपने घर में ही रखोगे तो कहां से गंदगी फैलेगी। गंदगी तो तभी फैलती है जब आप और हम अपना कचरा घर के बाहर लापरवाही से फेंक देते हैं। एक छत की मुंडेर पर खड़े लंबू उर्फ अजय ने बताया कि इस गांव की यह परंपरा ही बन गई है कि कोई भी यहां गंदगी नहीं फैलाएगी। यदि कोई फैलाता भी तो वह भी एक-दो दिन में यहां के लोगों के व्यावहार आदि को देखकर स्वयं ही अपना कचरा उठाकर ठीकाने लगता है। उसे कोई डांटता या फटकारता  नहीं है। बस वह देखादेखी ऐसा करने लगता है।

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