साॅलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट से लोगों को कैंसर का खतरा

ग्राउंड रिपोर्ट-2 : देहरादून से 30 किमी दूर कचरे के प्रबंधन के लिए बनाया प्लांट काम नहीं कर रहा है, जिससे आसपास रह रहे लोग कैंसर जैसी बीमारी का शिकार हो रहे हैं

By Trilochan Bhatt

On: Sunday 01 September 2019
 
उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से 30 किमी दूर बने सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट में खड़े कूडे का प्लांट दिखाते लोग । फोटो: त्रिलोचन भट्‌ट

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से करीब 30 किमी दूर सेलाकुई में 350 मीट्रिक टन क्षमता वाला शीशमबाड़ा सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट के आसपास के क्षेत्रों में रह रही करीब दो लाख की आबादी इस प्लांट से फैल रही बदबू के बीच रह रही है। ‘डाउन टू अर्थ‘ ने मौके पर जाकर मामले की पड़ताल की। प्रस्तुत है, रिपोर्ट का दूसरा भाग- 

 

साॅलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट से लगती सेलाकुई की बाईखाला बस्ती के शैलेन्द्र पंवार के घर पर जो दर्जनभर लोग जमा हुए हैं, उन सबके पास अपनी-अपनी कहानियां हैं। ये वे लोग हैं जो 2005 से 2014 के बीच यहां बसे थे। 2016 के सितम्बर तक उन्हें मालूम नहीं था कि जंगलों और हरे-भरे खेतों से लगते इस जमीन पर जहां वे घर बना रहे हैं, वह कुछ दिन बाद देहरादून शहर और राज्य के कई अन्य हिस्सों का कूड़ाघर बन जाने वाला है। गले में लगातार खरांश रहना, सिर में भारीपन, सांस लेने में परेशानी और खाना खाने के बाद जी मिचलाना सबकी शिकायत है। कुछ लोग डिप्रेशन के भी शिकार हैं। कहते हैं कि किसी काम में मन नहीं लगता। जीवन के प्रति उत्साह खत्म-सा हो गया है। जिन्दगी भर की पूंजी यहां लगा दी। अब कहीं दूसरी जगह जाने की स्थिति में भी नहीं हैं।

रविन्द्र भट्ट मूल रूप से पौड़ी जिले के रहने वाले हैं। बिजनेस करते हैं। 2005 में बाईखाला में शांत वातावरण देखकर प्लाॅट लिया था। नवम्बर 2016 में पता चला कि यहां कूड़ाघर बनाया जा रहा है। धरना प्रदर्शन शुरू किया। कई दिन तक जेल में रहे। भट्ट बताते हैं कि अप्रैल, 2017 में भारी पुलिस बल के बीच तत्कालीन मेयर ने शिलान्यास किया। हमने विरोध किया तो लाठियां भांजी गई। एक व्यक्ति की मौत हुई, लेकिन हार्ट अटैक बताया गया। दिसम्बर, 2017 से यहां कूड़ा आना शुरू हुआ और बदबू फैलने लगी। 23 जनवरी, 2018 को सीएम ने प्लांट की मशीनों का उद्घाटन किया। लोगों ने फिर विरोध किया। इसके बाद प्रशासन ने स्थानीय लोगों के साथ एक मीटिंग की। प्रोजेक्टर के माध्यम से बताया गया कि यह ‘फुली कवर्ड एंड मैकेनाइज्ड विंडो एरोबिक सिस्टम’ है। 20 दिन में मशीनें पूरी तरह चालू हो जाएंगी तो बदबू नहीं आएगी।

रविकांत सिंघल बात को आगे बढ़ाते हैं। कहते हैं जनवरी से अप्रैल 2018 तक हम लोग चुप रहे और उसके बाद प्लांट के गेट पर धरना शुरू कर दिया। 25 दिन तक कोई पूछने भी नहीं आया। उसके बाद हमने कूड़े की गाड़ियों को प्लांट में जाने से रोकनी शुरू कर दी, तब जाकर प्रशासन की नींद खुली। बैठक हुई और 40 फुट ऊंची चहारदीवारी के साथ ही कूड़े का कवर करने और एंजाइम के छिड़काव की बात पर सहमति बनी। लेकिन, चहारदीवारी अब भी 25 फुट के करीब ही है। एंजाइम का छिड़काव किया गया। इससे कूड़े की बदबू तो कुछ समय के लिए खत्म हो जाती थी, लेकिन एक घुटन हवा में फैल जाती थी। इसने लोगों की परेशानी और बढ़ा दी।

आशा कंडारी कहती हैं, वे घर का काम करते-करते अक्सर भूल जाती हैं कि वे क्या कर रही हैं। किसी काम में मन नहीं लगता है। बच्चे बार-बार बीमार पड़ रहे हैं। क्षेत्र के हर बच्चे को सिरदर्द और जी मिचलाने जैसी समस्या के चलते हफ्ते में दो या तीन दिन स्कूल से छुट्टी करनी पड़ रही है। उमादेवी बताती हैं कि कूड़े के ढेर से चील-कौवे मांस के लोथड़े उठा लाते हैं। घर में और छतों पर कई बार ऐसे लोथड़े गिरे मिलते हैं। वे कहती हैं कि हाल के दिनों में दो लोगों को कैंसर हो चुका है। अब तो तबीयत खराब होने पर डाॅक्टर के पास जाने में भी डर लग रहा है, कहीं कैंसर न हो जाए।

इस लंबी बातचीत के बाद अब प्लांट से फैल रही गंदगी को पास से देखने की बारी थी। प्लांट के पिछले हिस्से में कूड़े के ढेर के ठीक नीचे धान के खेतों को पानी दे रहे किसान दर्शन लाल से मुलाकात हुई। दर्शन लाल कहते हैं कि वे 1990 से यहां पांच बीघा जमीन पर खेती कर रहे हैं। सिंचाई के लिए बोरिंग की है। पहले चार फुट से ही पानी निकाल लेते थे। पानी अब भी चार फुट पर है, लेकिन गंदा होने के कारण 20 फुट बोरिंग की है। 20 फुट का पानी भी पीने लायक नहीं है। दर्शन लाल के अनुसार कचरे से रिसकर खेतों में आ रहे पानी को पीने से दो कुत्ते हाल में मर गये। इस पानी को पीने से पक्षी तक मर रहे हैं। वे सवाल करते हैं कि इन खेतों से कैसा अनाज पैदा होगा? इतनी बड़ी खेती छोड़ दें तो गुजारा कैसे करेंगे?

शीशमबाड़ा प्लांट से रिस रहा पानी से खेती भी हो रही तबाह। फोटो: त्रिलोचन भट्‌ट

प्लांट की चहारदीवारी एक जगह से टूट गई है। पिछले दिनों बारिश के दौरान दीवार के बनाए गए निकासी मार्ग चोक हो जाने से दीवार गिर गई थी। दीवार की मरम्मत की जा रही है। इसी टूटी दीवार को फांद कर अंदर जाने से कचरे का वह पहाड़ कुछ मीटर की दूरी से देखा जा सकता है। इस पहाड़ में प्लास्टिक, कपड़े, हड्डियां और यहां तक कि मेडिकल वेस्ट भी नजर आ रहा है। कचरे के पहाड़ के निचले हिस्से से पानी अब भी रिस रहा है, जो चहारदीवारी के आसपास छोटे-छोटे तालाबों के रूप में जमा होने के बाद निकासी मार्गों से बाहर खेतों की तरफ रिस रहा है। यहां से मात्र 300 मीटर दूर आसन नदी तक पहुंचकर यह पानी नदी को भी जहरीला बना रहा है।

अब शाम के 5 बज चुके हैं। आज दिन भर हवा का रुख पूर्व की ओर रहा, लिहाजा प्लांट से पश्चिम की तरफ बसी बाईखाला बस्ती और सेलाकुई औद्योगिक क्षेत्र में लोगों ने राहत महसूस की। लेकिन, प्लांट के सामने वाले हिस्से में जहां हिमगिरि जी यूनिवर्सिटी है, दिनभर हालत खराब रही। यूनिवर्सिटी के गेट पर विभिन्न पाठ्यक्रमों में पढ़ रहे ऋषभ, चिराग, राजू और अमन मिलते हैं। चारों इस बात पर सहमत हैं कि यदि उन्हें पहले पता होता कि इस बदबू में पढ़ाई करनी पड़ेगी तो किसी भी हालत में यहां एडमिशन न लेते। ऋषभ कहते हैं, क्लास रूम के दरवाजे बंद करने के बाद भी बदबू आती है।

हालांकि गेट से मुख्य भवन की दूरी 500 मीटर से अधिक है। तीन युवा फैकल्टी मैंबर से भी गेट पर ही मुलाकात होती है। हालांकि वे अपना नाम नहीं बताते हैं, लेकिन सवाल उठाते हैं कि यहां कई सालों से यूनिवर्सिटी है, इसके बावजूद कुछ मीटर की दूरी पर वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट को कैसे अनुमति मिल गई? एक महिला फैकल्टी मेंबर कहती हैं, अब या तो प्लांट यहां से हटे या फिर यूनिवर्सिटी बंद हो। एक हजार से ज्यादा स्टूडेंट्स और कर्मचारियों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता।

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