भारतीय वैज्ञानिक ने बनाया ऐसा सेंसर, 15 मिनट में भोजन तथा पानी में मौजूद आर्सेनिक का लगा सकता है पता

मेटल-आर्गेनिक फ्रेमवर्क पर आधारित यह सेंसर आर्सेनिक की एक विस्तृत श्रृंखला - 0.05 पीपीबी से 1,000 पीपीएम तक का पता लगा सकता है

By Lalit Maurya

On: Wednesday 28 July 2021
 

भारतीय वैज्ञानिक डॉ. वनीश कुमार ने एक अत्यंत-संवेदनशील सेंसर बनाया है जो केवल 15 मिनट में ही भोजन और पानी में मौजूद आर्सेनिक का पता लगा सकता है। यही नहीं यह सेंसर उपयोग में भी काफी आसान है।

यह सेंसर अत्यंत संवेदनशील, चयनात्मक तथा एक ही चरण की प्रक्रिया वाला है। साथ ही यह विभिन्न तरह के पानी और खाद्य नमूनों के लिए बिल्कुल उपयुक्त है। अपनी तरह के इस विशेष सेंसर को केवल स्टैन्डर्ड लेबल की मदद से रंग परिवर्तन (सेंसर की सतह पर) को परस्पर संबंधित करके एक आम आदमी द्वारा भी आसानी से प्रयोग किया जा सकता है।

गौरतलब है कि डॉ कुमार वर्तमान में राष्ट्रीय कृषि-खाद्य जैव प्रौद्योगिकी संस्थान (एनएबीआई) मोहाली में तैनात हैं, जिन्हें भारत सरकार में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के इंस्पायर फैकल्टी फेलोशिप भी मिली हुई है। इस सेंसर का परीक्षण तीन तरीकों, स्पेक्ट्रोस्कोपिक मापन, कलरमीटर या मोबाइल एप्लिकेशन की सहायता से रंग की तीव्रता को मापकर या फिर सिर्फ आंखों की मदद से देख कर भी किया जा सकता है। 

 मिश्रित धातु (कोबाल्ट/मोलिब्डेनम) आधारित मेटल-आर्गेनिक फ्रेमवर्क पर विकसित यह सेंसर आर्सेनिक की एक विस्तृत श्रृंखला - 0.05 पीपीबी से 1,000 पीपीएम तक का पता लगा सकता है। गौरतलब है कि कागज और कलरमीट्रिक सेंसर के मामले में आर्सेनिक के संपर्क में आने के बाद मेटल-ऑर्गेनिक फ्रेमवर्क (एमओएफ) का रंग बैंगनी से नीले रंग में बदल जाता है। इसमें नीले रंग की तीव्रता आर्सेनिक की मात्रा में वृद्धि होने के साथ बढ़ती जाती है।

आम आदमी भी कर सकता है इस सेंसर का उपयोग

इस सेंसर को भूजल, चावल के अर्क और आलू बुखारा के रस में आर्सेनिक का पता लगाने के लिए सफलतापूर्वक परीक्षण किया जा चुका है। आर्सेनिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक होता है ऐसे में इससे बचने के लिए पानी और भोजन में सेवन से पहले ही इसकी पहचान करना जरूरी है। यदि देखा जाए तो वर्तमान समय में हानिकारक तत्वों का पता लगाने के लिए जो तरीके मौजूद हैं उन्हें आम आदमी आसानी से इस्तेमाल नहीं कर सकता, लेकिन यह सेंसर प्रयोग करने में इतना आसान है कि इसे कोई भी इस्तेमाल कर सकता है। 

यदि देखा जाए तो मोलिब्डेनम-ब्लू टेस्ट जैसी उन्नत तकनीक की तुलना में यह नई विकसित परीक्षण किट 500 गुना ज्यादा संवेदनशील है, जो आर्सेनिक आयनों के संवेदन के लिए उपयोग में लाए जाने वाले सबसे आम और पारंपरिक परीक्षणों में से एक है।

यह एटामिक अब्सॉर्प्शन स्पेक्ट्रोस्कोपी (एएएस) और इंडक्टिवली-कपल्ड प्लाज़्मा मास स्पेक्ट्रोमेट्री (आईसीपीएमएस) जैसी आमतौर पर इस्तेमाल की जाने वाली विश्लेषणात्मक तकनीकों की तुलना में किफायती व सरल है। जिनके लिए महंगे सेट-अप, लंबी और जटिल कार्यप्रणाली, कुशल ऑपरेटरों, जटिल मशीनरी तथा क्लिष्ट नमूने तैयार करने की आवश्यकता पड़ती है। वनीश कुमार और उनकी टीम एमओ-एएस अंतःक्रिया के आधार पर आर्सेनिक आयनों की संवेदन के लिए एमओएफ का पता लगाने वाली पहली टीम है।

डॉ. कुमार के अनुसार आर्सेनिक आयनों के लिए संवेदनशील और चयनात्मक संवेदन पद्धति का न होना हमारे समाज के लिए चिंता का विषय है। इसे एक चुनौती मानते हुए उन्होंने आर्सेनिक की तुरंत और सटीक पहचान के लिए एक तरीके के विकास पर काम करना शुरू किया।

उन्हें मोलिब्डेनम और आर्सेनिक के बीच पारस्परिक प्रभाव की जानकारी पहले से थी, इसलिए उन्होंने मोलिब्डेनम और एक उत्प्रेरक से युक्त सामग्री बनाई, जो मोलिब्डेनम और आर्सेनिक की परस्पर क्रिया से उत्पन्न संकेतों की जानकारी दे सकती है। उन्होंने आगे जानकारी देते हुए बताया कि वो कई प्रयासों के बाद मिश्रित धातु एमओएफ को विकसित करने में सक्षम हुए थे जो आर्सेनिक की तुरंत और सटीक तरीके से पहचान करने में सक्षम थी। 

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