तालाबों पर टिकी तरक्की, अंग्रेजों ने ऐसे पहुंचाया नुकसान

अंग्रेजी राज के दौरान तालाबों की बदहाली हुई, लेकिन ग्रामीण समुदाय पानी के बंटवारे का प्रबंध करते रहे। बाद में अंग्रेजों ने कानून बना दिया और ग्रामीण समुदाय इससे दूर हो गया 

On: Thursday 11 July 2019
 
तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले का पझावुर इरी और चेंगलपट्टू जिले का मदुरंतकम इरी। तमिलनाडु में आज भी एक-तिहाई सिंचाई पुराने तालाबों से होती है। इन्हें इरी कहा जाता है। जो पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने, बाढ़, भूक्षरण रोकने, बरसाती पानी को संग्रहित करने का काम करते हैं (फोटो: एस राजम / सीएसई)

तमिलनाडु के सिंचित क्षेत्र का एक-तिहाई हिस्सा इरी (तालाबों) से सिंचित है। इरी प्राचीन तालाब हैं। इन्होंने बाढ़ नियंत्रण प्रणालियों के रूप में पारिस्थितिकीय संतुलन बनाए रखने, भूक्षरण को रोकने और वर्षा जल की बर्बादी को रोकने, भूजल भंडार को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है। इरी स्थानीय क्षेत्रों को उपयुक्त जलवायु देते थे। उनके बिना धान की खेती असंभव होती है।

अंग्रेजों के आने से पहले 1600 ई. तक इन तालाबों का रखरखाव स्थानीय समुदाय स्थानीय संसाधनों की मदद से करते थे। चेंगलपट्टू जिले के ऐतिहासिक आकंड़े बताते हैं कि 18वीं सदी में हर गांव की पैदावार का 4-5 प्रतिशत तालाबों और सिंचाई की दूसरी व्यवस्थाओं के रखरखाव के लिए दिया जाता था। जल वितरण और प्रबंधन के जिम्मेदार कर्मचारियों को भी पैदावार दी जाती थी। इस काम में लगे गांव के पदाधिकारियों की सहायता के लिए राजस्व मुक्त भूमि मण्यम भी आवंटित की जाती थी। इन आवंटनों से इरी की नियमित सफाई, नहरों का रखरखाव किया जाता था। अंग्रेजी राज के शुरू में ज्यादा राजस्व उगाहने के चक्कर में भूमि काश्तकारी व्यवस्था में घातक प्रयोग किए गए। राज्यतंत्र ने गांव के संसाधनों पर कब्जा शुरू कर दिया जिससे पारंपरिक समाज अर्थव्यवस्था और राजतंत्र बिखरता गया। अब ग्रामीण समुदाय इरी के रखरखाव में योगदान नहीं कर सकते थे और इन असाधारण जल संग्रह प्रणालियों का पतन शुरू हो गया।

अंग्रेजी सोच में खोट

उन्नीसवीं सदी के मध्य में इन तालाबों का रखरखाव लोक निर्माण विभाग और उसके सिविल इंजीनियरों के हवाले कर दिया गया। इस केंन्द्रीकृत व्यवस्था में, जो इन देसी प्रणालियों के बारे में अनजान इंजीनियरों पर चलती है, तालाबों की देखभाल असंभव थी। उनके रखरखाव के लिए सरकार की ओर से पैसा भी नगण्य मिलता था। अंग्रेज शासकों को तुरंत एहसास हो गया कि तालाबों का रखरखाव ग्रामीण समुदाय के सहयोग के बिना नहीं हो सकता। चूंकि इन समुदायों के पास संसाधनों का अकाल पड़ गया था, इसलिए वे कोई सहयोग नहीं कर सकते थे।

अब इसके लिए सरकार उन पर दबाव ही डाल सकती थी। इसलिए यह मिथक गढ़ा गया कि ग्रामीण समुदाय तालाबों के रखरखाव के लिए श्रमदान करता रहा है जिसे पहले कुडिमरमथ कहा जाता था। अब फिर से लोग श्रमदान करेंगे। सरकार ने कानून के जरिए खेतिहरों को “स्वयंसेवा” करने के लिए मजबूर करने की कई कोशिशें कीं। ऐसे कानूनों में पहला था कुख्यात मद्रास कम्पलसरी लेबर एक्ट 1858, लेकिन तमाम कानूनी उपाय खेतिहरों का सहयोग हासिल करने में विफल साबित हुए। ब्रिटिश राज से पहले भी काश्तकार तालाबों के लिए श्रमदान नहीं करते थे। गांव में उगाहे गए चंदे से उनके श्रम का भुगतान किया जाता था।

आजादी के बाद भी सरकारी हस्तक्षेप के कारण ग्रामीण स्तरीय बिखराव जारी रहा। भारतीय शासक वर्ग भी मानता है कि गांव “अपनी जिम्मेदारी भूल गए हैं।” उदाहरण के लिए, 1960 में आंध्र प्रदेश की लघु सिंचाई प्रणालियों पर परियोजनाओं की समिति ने पुराने तालाबों के समय पर रखरखाव की कमी के लिए “रैयतों द्वारा मरम्मत की परंपरा” की उपेक्षा को जिम्मेदार बताया। समिति ने 1858 वाले कानून को असरदार तरीके से लागू करने की सिफारिश की थी।



सामुदायिक जल प्रबंधन

अंग्रेजी राज के दौरान तालाबों की बदहाली हुई, लेकिन ग्रामीण समुदाय पानी के बंटवारे का प्रबंध करते रहे। यद्यपि तालाबों पर लोक निर्माण विभाग का औपचारिक नियंत्रण था, लेकिन इसका दबदबा तालाब के बांध तक ही रहता था। इसमें जमा पानी का किस तरह उपयोग करना है, नहरों को कब और कब तक खोलना है, हर खेत में कितना पानी जाना है, अयाकट के किस हिस्से में कौन फसल लगेगी, ये तमाम बातें ग्रामीण समुदाय ही तय करता था। खेतिहर इन पर फैसले आम सहमति से करते थे। एक या एक से ज्यादा तालाब वाले हर गांव में सभी खेतिहरों को मिलाकर एक अनौपचारिक संगठन होता था। इनमें से कोई भी संगठन अधिकृत नहीं था। वे भूमिगत संगठनों जैसे थे, जिन्हें शासन से न तो पैसा मिलता था और न कोई और मदद। सिंचाई से जुड़े ये संगठन कई तरह के थे और आज भी हैं। लेकिन इन सबके संविधान, कर्मचारियों व सदस्यों के आपसी संबंधों और जल वितरण के तौर-तरीकों से संबंधित आम सिद्धांत लगभग एक समान हैं। अध्ययन बताते हैं कि उनके पदाधिकारी गांव के विभिन्न धर्मों-जातियों के लोग होते हैं। पदाधिकारियों का चुनाव सभी सदस्य लोकतांत्रिक तरीके से करते हैं।

इरी का आधुनिकीकरण

सŸाठ वाले दशक के आखिरी दिनों में यूरोपीय समुदाय के पैसे से लोक निर्माण विभाग ने तालाबों के आधुनिकीकरण का कार्यक्रम शुरू किया। इसके अंतर्गत मुख्य काम खेतों पर किया गया। तमिलनाडु लोेक निर्माण विभाग ने 1979 में जो प्रस्ताव तैयार किया उसमें कहा गया कि “फिलहाल तालाब और कमांड क्षेत्र में पानी के नियंत्रण का कोई स्पष्ट और मान्य प्राधिकरण नहीं है। इस नियंत्रण को प्रभावी बनाने के लिए सरकारी तथा गैर-सरकारी सदस्यों की दो समिति बनाने का प्रस्ताव किया जाता है।”

इस तरह विभाग ने तालाबों से सिंचित हर गांव में सिंचाई से जुड़े अनौपचारिक संगठनों की गिनती नहीं की। दूसरी ओर सुझाव दिया गया कि सरकारी कर्मचारियों और उनके नामजद लोगों को किसानों की समिति में शामिल करने में सिंचाई का काम आसानी और कुशलता से चलेगा। पारंपरिक संगठनों की उपेक्षा के कारण ही पायलट परियोजनाएं विफल हुईं।

पारंपरिक संगठनों को अहमियत न देने के कारण विभाग और खेतिहरों के बीच संवाद नहीं हुआ। योजनाओं को बनाने और लागू करने में किसानों को शामिल नहीं किया गया। विभाग केवल पानी के रिसाव और बराबर बंटवारे पर ध्यान देता रहा। किसान जल रिसाव को बड़ी समस्या नहीं मानते, क्योंकि इससे भूजल भंडार बढ़ता है और खेतों को नमी मिलती है। फिर भी दूर तक पानी पहुंचाने के लिए सीमेंट की चिनाई का किसानों ने स्वागत किया। बराबर बंटवारे के लिए पूरे अयाकट में उपयुक्त प्रणाली बनाने का फैसला किया गया, ताकि हरेक किसान को तय रूप से समान पानी मिले, चाहे आयकट के जिस भी भाग में खेती हो रही हो। किसानों और दावों के आधार पर पानी का बंटवारा करते थे। वे इसे उचित और समतामूलक मानते थे। समानता के नाम पर लोक निर्माण विभाग जैसी बाहरी संस्था द्वारा नई व्यवस्था थोपने का किसानों ने स्वागत नहीं किया। इसमें उन्हें पानी पर नियंत्रण करने की मंशा दिखी और उन्होंने विरोध किया। ग्रामीण समुदाय चाहते हैं कि विभाग बांध और नहरों आदि का रखरखाव तो करे पर पानी के बंटवारे में उसका कोई दखल न हो। अब विभाग किसानों और पारंपरिक प्रबंधन व्यवस्था को ज्यादा तरजीह दे रहा है।

तालाबों के बिना दक्षिण भारत का बड़ा क्षेत्र भारी अकाल में पड़ सकता है। सिंचाई व्यवस्था के सुधार में पारंपरिक प्रणालियों का पूरा खयाल रखा जाना चाहिए। इन संगठनों के अच्छे कामकाज के लिए उन्हें संसाधन जरूर मिलने चाहिए। गांव-समुदायों को तालाबों के रखरखाव के लिए श्रमदान के लिए जोर डालने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। तालाबों को फिर से ग्रामीण समुदायों के हवाले करना होगा।

(“बूंदों की संस्कृति” पुस्तक से साभार)

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