सरदार सरोवर बांध में 138.61 मीटर तक पानी भरने से सैकड़ों गांव डूब चुके हैं, इनमें से एक ऐतिहासिक गांव चिखल्दा के डूबने से दुखी मेधा पाटकर ने डाउन टू अर्थ के लिए लेख लिखा है -
एशियाखंड के पहले किसान का जन्म चिखल्दा में हुआ था, पुरातत्व शास्त्रों में इसका उल्लेख है। 50 प्रतिशत हिन्दू और 50 प्रतिशत मुस्लिम आबादी होने के बावजूद हमेशा शांत रहने वाला चिखल्दा। नर्मदा और कछार का जल, जमीन और आबादी भी बचाने के लिए भी चिखल्दा सतत संघर्षरत रहा। अति उपजाऊ जमीन पर चिखल्दा की खेती गेहूं, कपास, मकाई उगती रही। यहां चल रही कृषि उपज सहकारी सोसाइटी के गोदाम पर भर-भर के फसल आती रही। लाखों रुपए के बीमा की वसूली होती रही। सागवान के पेड़, केले की खेती, पपीते के बगीचे आदि से सजता रहा चिखल्दा। यहां के मछुआरे नर्मदा में सैर करते, मत्स्य व्यवसाय पर जीते एक मोहल्ला बनाकर, किनारे ही डटे रहे। दूसरी ओर दलित समाज भी, करीबन 100 से अधिक परिवार भी यहां बसे रहे।
चिखल्दा में बसे थे 36 धार्मिक स्थल, जिसमें थे कहीं 10 वीं, 12 वीं सदी के मंदिर – नीलकंठेश्वर, नरसिंह श्री राम आदि के। मस्जिद ए पीर दरगाह जमात खाना भी एक जैन मंदिर रहा, गांव के प्यारे युवा सरपंच दिवंगत निर्मल कुमार पाटोदी जी के परिवार का, गांव में कई शासकीय भवन, प्राथमिक माध्यमिक शालाएं भी थी, जहां बच्चों को शिक्षा मिलती थी। डॉक्टर सरकारी होते हुए भी निजी डॉक्टर से स्पर्धा करते, प्रभावी उपचार करते रहे। चिखल्दा के चौक पर बसों के आने जाने, रुकने की भीड़भाड़ के साथ सेवा देते रहे दस -बीस दुकानदार भी।
सालों से चिखल्दा के धनगरो के मवेशियों का दूध अन्य गावों के साथ दूर-दूर जाता रहा और भागीरथ धनगर ने तो मिठाई का व्यवसाय खूब बढ़ाते नर्मदा घाटी के धनगरों को विकास की दिशा दिखाई। चिखल्दा का जुड़वा भाई रहा गेहेलगाव । यहां किनारे का संगमरवरी मंदिर रहा, सकू भाई दरबार के परिवार का, इस परिवार ने केले के व्यवसाय से अपना नाम कमाया ।
गेहेल गांव में बहुत सारे गरीब भील आदिवासी दलित भी इन खेतिहरों के साथ रोजी रोटी कमाते रहे, जो आखिर तक कच्चे मकानों में ही रहे। चिखल्दा के पास खेड़ा फलिया भी भरा रहा, कुछ खेतिहर और भरपूर मजदूर तथा भेड़ बकरियों के साथ जाने वाले परिवारों से। चिखल्दा से कुछ 2 किलोमीटर दूर ही तो था खापरखेड़ा...।
देवराम भाई कनेरा, आंदोलन के वरिष्ठ कार्यकर्ता के नाम से मशहूर, जहां हर समर्थक पहुंचकर दाल रोटी खा चुका है, वहीं तो पुरातत्व शास्त्रज्ञ एस.बी. ओरा जी ने कभी डेरा डाला था। हजारों वर्ष पुराने चिड़िया के घोसले और बर्तन, सामान, धरती के नीचे से निकल आए, कुछ समय तक अखबारों में छाए और आज भूले भुलाए गए नर्मदा घाटी दुनिया की एकमात्र घाटी जिसके नीचे अशम युग से आज तक का मानवीय इतिहास छुपा है। उसे भी जलमग्न किया गया जिसे 100 वर्षों तक खुदाई से निकालने का एलान रहा रोमिला थापर का। एक समय था, जबकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, भारतीय मानवविज्ञान सर्वेक्षण और भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण जैसी संस्थाएं शासकीय या मानव संवैधानिक या वैधानिक सक्रियता से देखती रही नर्मदा को... अब मात्र गुजरात और केंद्र के अज्ञानी मंत्री, मंत्रालय ही पब्लिक रिलेशंस के मद्देनजर अपने भाषणों, पत्र पत्रिकाओं में नर्मदा का जिक्र करते हैं।
आज चिखल्दा नहीं रहा, ना खेती, ना घर। भंगार कर दिया गया, मात्र गांधीजी बैठे रहे। आंदोलनकारी साथियों ने मोहन भाई के नेतृत्व में हम सबको गवाह रखकर बड़ी कड़ी मेहनत से उठाया गांधी को। यह मूर्ति राजस्थान के रांका चैरिटेबल ट्रस्ट ने दान की थी। राजस्थान के सवाई सिंह, उत्तराखंड में संघर्षरत विमल भाई और भोपाल के गांधी भवन के नामदेव जी ने इसका उद्घाटन किया था 2018 में। उसके नीचे का संकल्प स्तंभ बना था 1996 में, जब बाबा आमटे जी छोटी कसरावद में थे। आज बाबा का “निजबल” भी डूब क्षेत्र में आ गया है, जिसने घाटी को ही क्या मुझे व्यक्तिगत भी बड़ा बल आधार दिया, धुआंधार संघर्ष में। ताई बाबा का स्नेह भरा आशीर्वाद और बाबा की हर वक्त बाहर से लौटने पर उनसे ही मुझे सुनाई जाती छोटी पर गहरी कविताएं आज सुन्न है।
इस वक्त के संघर्ष की एकेक निशानी गांव-गांव का संकल्प स्तम्भ ही था। तब भी पुलिस दौड़ी थी, पर नाना पाटेकर, मेनका गांधी कई सारे पहुंचे थे। आज तक चिखल्दा के चौक में बनी रही, संकल्प स्थान पर बैठी गांधीजी की ध्यानमग्न मुद्रा, जल मग्न होने से बचाई हमने। बीच में गांव के ही एक युवा ने निर्मित की थी गांधी जी की स्वदेशी क्या, ग्राम राजी मूर्ति।
नई सुंदर मूर्ति की स्थापना के वक्त बाकी उपस्थित रहे थे हजारों लोग, उस मूर्ति को डूबने या दूर धकेलने, चिखल्दा छोड़ने, मजबूर ना करने का निर्णय आंदोलन ने लिया था और 2 दिनों में तैयार हुआ नया ढांचा लोहे का। उसी पर विराजमान यह मूर्ति अब नए संकल्पों का भविष्य और पुराने संघर्षों का इतिहास उजागर करती रहेगी, यही है कामना।
संघर्षों में संघर्ष रहा 2017 का, चिखल्दा में पूरे गांववासी, सभी घाटी वासियों ने उसे चोटी पर पहुंचाया था। दिन-रात, हजारों बहन भाई और बच्चे भी डटे रहे। घाटी (नर्मदा) के प्रतिनिधियों का हमारा 17 दिनों का उपवास और फिर 15 दिनों जेल के दौरान भरपूर कार्यक्रम, ढोरों की रैली से लेकर जल सत्याग्रह तक अहिंसक संघर्ष चलता रहा। इस सब के गवाह थे, पुलिस बल के साथ, घाटी के वृक्ष, खेत। देश के कई समर्थकों ने इसे बल दिया और माध्यम बनकर देश भर में पहुंचाया। आज चिखल्दा की हत्या हो चुकी है। कल मूर्ति उठाने वक्त दिखाई दी टंगी हुई पाटियां.... सर्व शिक्षा अभियान की, स्कूल में लगी रही और कई दुकानों की, मंदिरों की भी। आज तक नरसिंह मंदिर, नीलकंठेश्वर मंदिर की मूर्तियां नहीं निकाली गई। नरसिंह मंदिर को मुआवजा समिति को देने के सर्वोच्च अदालत के आदेश का भी उल्लंघन हुआ है।
चिखल्दा में बोट नावडी से जाते वक्त एक दीवार, 1 मंजिली इमारत को भी धंसते हुए धमाका सुनाई देता है। भूखे प्यासे 40 से 50 कुत्ते और 10 से 20 सूअर छतों पर पड़े हैं। कोई रोटी लेकर डालते हैं, जैसा हमने कल किया तो रो पड़ते हैं। छोटा सा युवा हरि और अपने मोहल्ले के कुत्तों को देखकर हररवी मछुआरा और सुनीता जो हमारी नावडी थी, दोनों का दिल उनमें था। बड़े बट वृक्ष, पीपल और सागवान पानी में भी सीना तान कर खड़े हैं आज। कल क्या होगा? जलवायु परिवर्तन! चिखल्दा भी अब जलमग्न हुआ है और खेती जल घेरे में आ चुकी है व शहरों में कई सुंदर भव्य मकान बने हैं, फिर भी गरीबों पर काफी अन्याय है। पानी सबको एक चुका है, गांधी ध्यान मग्न होकर इसी के खिलाफ जल मंच पर आसीन हैं, सत्याग्रही हो तो ऐसा।
लेखिका नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता है। उनके लंबे संघर्ष का गवाह रहा गांव चिखल्दा के डूबने पर वह अपने आपको लिखने से नहीं रोक पाई। उनके शब्दों को लगभग ज्यों का त्यों प्रकाशित किया जा रहा है।
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