अद्भुत जल सुरंगें

सुरंगम पहाड़ी के अंदर बना एक तरह का क्षैतिज कुआं है, जिससे कठोर चट्टानों से रुका पानी बाहर आ जाता है। अक्सर इस पानी को सुरंगम के बाहर बने कुएं या तालाब में संचित किया जाता है। लेकिन सदियों पुरानी सिंचाई व्यवस्था अब विनाश के कगार पर है

On: Wednesday 15 February 2017
 
(बाएं से) आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त सुरंगम के अंदर का दृश्य। इन सुरंगमों की खुदाई धीरे-धीरे होती थी और अक्सर ये कई पीढ़ियों मेे पूरी होती थी।

केरल के रेतीले तटीय इलाकों में कुएं बहुत आम हैं, जबकि मध्य भूमि में मध्य से बड़े मुंह वाले गहरे कुएं पर्याप्त हैं। पर्वतीय ऊंचे इलाकों में कुएं, झरने, सोतों के साथ तालाब भी जल प्रबंध का हिस्सा हैं। पर उत्तरी मालाबार क्षेत्र के कसारगोड जिले में जल संचय की एक विशिष्ट प्रणाली प्रचलित है जिसे सुरंगम कहते हैं। यह असल में मखरली पहाड़ी से होकर खोदी गई सुरंग है जिससे पानी या नमी बाहर आती है। इस स्रोत से पानी लेना ज्यादा झंझट का काम नहीं है और यह पानी आमतौर पर अच्छा होता है। इस व्यवस्था में सुरंग खोदने का शुरुआती खर्च ही उठाना पड़ता है। बाद में इसके रखरखाव पर कोई खास खर्च नहीं होता। पारंपरिक रूप से इसकी खुदाई बहुत धीरे-धीरे होती थी और कई पीढ़ियों में जाकर एक सुरंगम पूरी हो पाती थी।

सुरंगम ई.पू. 700 के आसपास मेसोपोटामिया और बेबीलोन में प्रचलित क्वेनाट की तरह की ही संरचना है। ई.पू. 714 तक यह तकनीक मिस्र, फारस (ईरान) और भारत तक आ चुकी थी। उत्तरी मलाबार के अपेक्षाकृत शुष्क इलाकों में सुरंगम सदियों से आज तक उपयोग किए जा रहे हैं। पर इनकी अवस्थिति, क्षमता, इनके पानी की गुणवत्ता, उपयोग की पद्धति, सामाजिक-आर्थिक महत्ता, जमीन और जलवायु पर इनके प्रभाव के बारे में कोई अध्ययन नहीं हुआ है, न ही इसके लिखित प्रमाण उपलब्ध हैं। इसलिए कोझिकोड के सेंटर ने इनका सर्वेक्षण किया।

जिस कसारगोड तालुका का सर्वेक्षण किया गया वहां की बरसात के 1907 से 1956, अर्थात 50 वर्षों के आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि यहां औसत 3,500 मिमी. वर्षा होती है। इसका 2650 मिमी. पानी तो दक्षिण-पश्चिम (जून-अगस्त) मानसून के दौरान बरसता है और 560 मिमी. उत्तर-पूर्व मानसून (सितंबर-दिसंबर) के समय पड़ता है। यहां से गुजरने वाली पांच नदियां लक्षद्वीप सागर में गिरती हैं और चद्रागिरी इनमें सबसे बड़ी है। इन नदियों में मानसून के समय तो काफी पानी रहता है और बाकी समय पानी की मात्रा एकदम कम हो जाती है। गर्मियों में अक्सर सूखा पड़ता है। इससे लोग मजबूरन भूजल की मदद लेते हैं। यह इलाका पहाड़ी है और यहां सामान्य कुआं खोदकर पानी निकालना आसान नहीं है। शायद इन्हीं कारणों से लोगों ने पानी के लिए सुरंगमों का सहारा लेना शुरू किया।

सुरंगम संस्कृत और कन्नड़ के सुरंग से बना है। इसे थुरंगम, थोरापु, माला जैसे नामों से भी जाना जाता है। यह पहाड़ी के अंदर बना एक तरह का क्षैतिज कुआं है, जिससे कठोर चट्टानों से रुका पानी भी इससे होकर बाहर आ जाता है। अक्सर इस पानी को सुरंगम के बाहर बने कुएं या तालाब में संचित किया जाता है।

आमतौर पर सुरंगम 0.45-0.70 मीटर चौड़ा और 1.8-2.0 मीटर ऊंचा होता है। इसकी लंबाई तीन मीटर से लेकर 300 मीटर तक होती है। अक्सर कई-कई छोटी सुरंगमें बनाकर उन्हें मुख्य सुरंगम से जोड़ दिया जाता है। अगर सुरंगम की लंबाई ज्यादा हो तो जगह-जगह पर लंबवत खुदे वायु कूपक उसके अंदर के दबाव को सामान्य रखते हैं। इन वायु कूपकों के बीच अक्सर 50-60 मीटर की दूरी होती है। ये वायु कूपक अक्सर पतले कुओं की तरह दो मीटर-व्यास वाले होते हैं।

खुले तालाब के किनारे या निचले इलाकों में स्थित कुओं के नीचे भी सुरंगम मिले हैं। सुरंगम खोदने का खर्च प्रति 0.72 मीटर (स्थानीय लोग जिसे एक कोलु कहते हैं) पर 100-150 रुपए आता है।

अक्सर सुरंगमों की खुदाई कठोर मखरली चट्टानों के बीच से की जाती है। जब तक पानी का अच्छा स्रोत नहीं मिलता, खुदाई जारी रहती है। कठोर चट्टान आने से ठीक पहले इसकी नरम परत जरूर मिलती है। पानी से तर होते ही यह परत अक्सर धसक जाती है और फिर सुरंगम से मिलने वाले पानी की मात्रा काफी कम हो जाती है।

स्रोत: पी. बसाक, पी. एम. राघवेंद्र प्रसाद और के. ई. श्रीधरन (तारिक अजीज / सी एस ई)

कोझिकोड सेंटर के सर्वेक्षण में कसारगोड तालुका में 388 सुरंगमें मिलीं। इनमें से सिर्फ 17 फीसदी ही 1950 के पहले मौजूद थीं। इन 388 में से 136 सुरंगमें तालाब या कुएं के अंदर मिलीं, जो जल संग्रहित करने के लिए बने थे। 61 फीसदी सुरंगमें पानी के बाहरमासी स्त्रोतों से जुड़ी थीं। लेकिन गर्मियों में इनसे मिलने वाला पानी प्रति मिनट 2 से 60 लीटर तक अलग-अलग पाया गया। इनमें से 18 फीसदी सुरंगमों का पानी सिर्फ घरेलू कामों के लिए उपयोग होता था, 36 फीसदी का पानी घरेलू कामों और सिंचाई, दोनों कामों में इस्तेमाल में लाया जाता था और 37 फीसदी सिर्फ खेतों को सींचने के काम आता था, जबकि 9 फीसदी सुरंगमें उपयोग में नहीं थीं।

सर्वेक्षण वाले इलाके में करीब 2,000 लोगों के घरेलू उपयोग का पानी मुख्यतः इन सुरंगमों से ही आता था। इनसे 136.48 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई हाती थी और उनका पानी नालियों के सहारे खेतों तक पहुंचाया जाता था। इन खेतों में मुख्यतः सुपारी, नारियल और धान की पैदावार होती है। इनका पानी विश्व स्वास्थ्य संगठन और भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद द्वारा तय मानकों पर खरा पाया गया है। कुछ दशक पहले तक केरल की सिंचाई व्यवस्था में तालाब और पोखरों की हिस्सेदारी काफी अच्छी थी। गर्मियों में तालाबों और नहरों से ही सिंचाई होती थी। ऊंचाई पर बने पोखर भी काम आते थे। लेकिन अब इन तालाबों और पोखरों का उपयोग काफी घटा है। इनमें पानी नहीं रहता। सर्वेक्षण में आए सात तालाबों में गर्मियों में सिर्फ 0.72 घन मीटर पानी मिला।

उत्तरी मालाबार में हुए सर्वेक्षण से यह बात भी सामने आई कि भूजल निकालने की आधुनिक तकनीक आने के बाद भी स्थानीय लोग पारंपरिक जल प्रबंधों पर भरोसा करते हैं। सुरंगमें हजारों साल से बन रही हैं तथा अब भी इसका जोर बढ़ रहा है, जो इनकी उपयोगिकता का प्रमाण है।

करेज प्रणाली
 
हजारों साल पुरानी जल प्रणाली ओसामा बिन लादेन जैसे आतंकियों की पनाह बनकर रह गई

अमेरिकी जासूसी उपग्रहों की नजर अक्सर शुष्क दक्षिण और पूर्वी अफगानिस्तान में हरियाली से घिरे टीलों पर रहती है। वास्तव में इनमें दुनिया का सबसे प्राचीन तकनीकी चमत्कार छिपा है जिसे करेज (या कनात) के रूप में जाना जाता है। यह एक जल संचयन प्रणाली है, जिसका उपयोग प्राचीन समय में, पूर्वी और दक्षिणी अफगानिस्तान में किसान सिंचाई के लिए करते थे। दुर्लभ भूजल का उपयोग करने के लिए भूमिगत सिंचाई चैनलों के इस नेटवर्क का निर्माण किया गया था। करेज प्रणाली लगभग 3,000 साल पहले उत्तर-पश्चिमी ईरान में विकसित हुई। ईसा से 714 वर्ष पूर्व यह प्रणाली दक्षिण भारत, मिस्र, अफगानिस्तान सहित दूर-दूराज के क्षेत्रों तक फैल गई। यह बराबर अंतराल में शाफ्ट के साथ एक बिना अस्तर की सुरंग है जो गुरुत्वाकर्षण का उपयोग कर सतह तक पानी लाती है।

सबसे पहले, एक कुआं अच्छी तरह से पानी के स्तर तक खोदा जाता है और फिर मिट्टी को हटाने के लिए सक्षम शाफ्ट खोदा जाता है। पानी इन सुरंगों के माध्यम से निचले मैदान पर स्थित खेतों तक यात्रा करता है। कुछ करेज जमीन के नीचे कई किलोमीटर तक फैले होते हैं। किसान इन संरचनाओं का निर्माण और प्रबंधन उपयोगकर्ताओं के समूहों के माध्यम से करते हैं। करेज के रखरखाव में काफी श्रम लगता है। शाफ्ट की सतह से गाद को हर साल हटाना और साफ करना चाहिए। एक करेज के निर्माण में कई साल लग जाते हैं, लेकिन इसकी परिचालन लागत कम है। एक करेज से 10-20 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई कर सकते हैं। अफगानिस्तान में करीब 6,500 करेज हैं और लगभग सात फीसदी भूमि की सिंचाई कर सकते हैं।

सिंचाई के अलावा, इन सुरंगों का इस्तेमाल छुपने के ठिकानों के रूप में भी किया जाता है। अफगान लड़ाके हथियारों और लोगों को छिपाने के लिए शाफ्ट के किनारे गुफा खोद देते हैं। ओसामा बिन लादेन ने इन सुरंगों और भूमिगत बंकरों का खूब इस्तेमाल किया था।

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