पुरखों की बनाई बेरियों को फिर से किया जीवित, पीने को मिला मीठा पानी

ऐसा कम ही होता है कि परंपरागत जल स्त्रोतों को सरकारें हाथ लगाएं। राजस्थान सरकार ने भुला दी गई सैकड़ों साल पुरानी पारंपरिक बेरियों के जीर्णोंद्धार का जिम्मा उठाया है। अनिल अश्विनी शर्मा ने क्षेत्र के 7 जिलों में जमींदोज हो चुकी बेरियों के निर्माण कार्यों को ग्रामीणों की नजरों से देखा-परखा

By Anil Ashwani Sharma

On: Thursday 19 September 2019
 
राजस्थान के बाड़मेर जिले में स्थित रामसर के पार में खत्म हो चुकी 220 बेरियों में से 117 को चिन्हित किया गया है। इनमें 14 का जीर्णोंद्धार हो चुका है, 18 पर काम चल रहा है (विरेंद्र बालाच)

बाड़मेर राष्ट्रीय राजमार्ग से भारत-पाक अंतरराष्ट्रीय सीमा की ओर बढ़ते हुए अचानक जब सड़क से दाईं तरफ नजर पड़ती है तो दूर तलक तक फैले रेतीले टीलों के बीच एक विशालकाय उथला तालाब दिख पड़ता है। तालाब में एक बारगी नजर पड़ी तो सैकड़ों की संख्या में सुरंग नुमा “गड्ढे” दिखते हैं। बाहरी मानुष के लिए यह केवल एक “गड्ढा” लेकिन यहां की जीवन रेखा “बेरी” है यानी छोटी कुंइयां (रेगिस्तानी इलाकों में बारिश के पानी को संचय करने की हजारों वर्ष पुरानी परंपरा)। तालाब के मुंहाने पर खड़े होकर जब दर्जनों बेरियों से औरतें-बच्चे-बुजर्गों को बेरियों से पानी निकालते देखा तो अहसास हुआ कि सचमुच में यह रेगिस्तान की एक अमूल्य धरोहर है। तभी एक नवनिर्मित बेरी से पानी खींचते 72 साल के हरलाल भंवर हांफते हुए बताते हैं, भाई साठेक साल बाद जाकर बेरी के मीठे पानी ने गले को तर किया।

आप शहरी लोग या सरकार कितना ही विकास की पीगें क्यों न भर लो लेकिन अंत में तो हमारे सूखे गले को हमारे पुरखों की बनाई बेरी ही तर करती आई है। रामसर गांव के सरपंच महिपाल ने कहा, बेरियों की असलियत जान अब सरकार भी हरकत में आई है। अब राज्य सरकार भी अपनी बीसियों साल से चल रही पानी सप्लाई योजना की जगह खत्म हो चली इन बेरियों को ठीक करने में जुट गई है और अच्छी खासी रकम (प्रति बेरी 80 हजार रुपए) भी खरच रही है। वह बताते हैं कि यहां की बेरियों पर 60 से 65 गांव के लोग पानी लेने आते हैं। आज भी एक बेरी में एक रात रुकने पर सुबह एक बड़े पानी के टैंकर के बराबर पानी रिस-रिस कर एकत्रित हो जाता है।

बाड़मेर के रामसर के पार (पार का मतलब राजस्थान के मरुक्षेत्र की ऐसी जगह, जहां बारिश का पानी रुक कर जमीन के नीचे चला जाता है) यह पहला गांव है, जहां सरकार ने अब तक (6 अगस्त, 2019) 14 बेरियों का जीर्णोद्धार किया है। इस संबंध में बेरियों के लिए लगातार आवाज उठाने वाले वरिष्ठ पत्रकार बाबू सिंह भाटी ने डाउन टू अर्थ को बताया कि पिछले 13 सालों से मैं लगातार स्थानीय प्रशासन से लेकर राज्य सरकार को इस बात के लिए अागाह करता रहा है कि इस क्षेत्र में पारंपरिक बेरी ही ग्रामीणों की प्यास साल भर बुझा पाएगी। लेकिन अब आखिरकार केंद्र सरकार के जल शक्ति अभियान के तहत हमारे इस पार की कुल 220 बेरियों में से 117 बेरी जो खुली (जिन पर रेत नहीं चढ़ पाई है) हुई चिन्हित की गई हैं, उनका जीर्णोद्धार किया जा रहा है। इनमें से 14 का हो गया और 18 पर काम चल रहा है। इनके लिए पैसा भी स्वीकृत (2,40,000 रुपए) हो चुका है। नवनिर्मित बेरी के चबूतरे पर खड़े आत्मा गांव से पानी लेने आए शिक्षक देवाराम चौधरी बताते हैं, यहां के सरहदी गांवों के अधिकांश इलाके का भूमिगत पानी खारा होता है, ऐसे में इन बेरियों से निकलने वाला मीठा पानी हम ग्रामीणों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है। वह बताते हैं कि अकेले बाड़मेर जिले में जिला प्रशासन ने 1,750 पुरानी बेरियों को चिन्हित कर उनका जीर्णोद्धार शुरू किया है। इस संबंध में जिलाधीश हिमांशु गुप्ता ने कहा कि यहां 60-60 सालों से बेरियां बंद पड़ी हुई थीं, उन्हें चिन्हित कर जिला प्रशासन उनका जीर्णोद्धार कर रहा है। इससे ग्रामीण जो पैसे देकर टैंकरों के माध्यम से पानी मंगा रहे थे, उन्हें राहत मिलेगी। हमारी जिला परिषद टीम यहां के स्थानीय लागों की मदद से यह काम कर रही है।

अवैज्ञािनक कोशिश

कहने के लिए तो पिछली सरकारों ने भी राजस्थान के सरहदी जिलों में पानी पहुंचाने की अपनी ओर से भरसक कोशिश की। लेकिन उनकी इस कोशिश पर बाबू सिंह कहते हैं, वह कोशिश अवैज्ञानिक थी और वह यहां के भौगोलिक इलाके के अनुरूप न थी। यही कारण है कि कहने के लिए तो यहां के गांवों तक पाइप लाइन बिछा दी गई लेकिन उसमें पानी ही न हो तो फिर क्या लाभ। देश में गहराते जल संकट के हल के लिए केंद्र सरकार की पहल पर राज्य सरकार ने गत एक जुलाई, 2019 से जल शक्ति अभियान शुरू किया। अभियान के तहत जल संरक्षण, परम्परागत जलाशयों का जीर्णोद्धार किया जाएगा। केंद्र सरकार ने देश के 36 राज्यों व संघ क्षेत्रों की 1,593 पंचायत समितियों में 313 क्रिटिकल ब्लॉक्स, 1,186 अति दोहित ब्लॉक्स और 94 न्यूनतम भू-जल उपलब्धता वाले ब्लॉक्स के रूप में पहचान की है। क्षेत्र के सामाजिक कार्यकर्ता राजेंद्र सिंह ने बताया कि राजस्थान के भी तीन दर्जन से अधिक ब्लॉक्स शामिल किए गए हैं। बाड़मेर का रामसर ब्लॉक उनमें एक है। जिलाधीश के अनुसार यहां काम पहले पायलट प्रोजेक्ट के रूप में शुरू किया गया था और उसकी सफलता से उत्साहित होकर अब पूरे जिले की परंपरागत जल स्त्रोतों का जीर्णोद्धार किया जाएगा। अभियान के तहत ब्लॉक और जिला जल संरक्षण योजना का निर्माण को जिला सिंचाई योजना के साथ मर्ज कर दिया गया है। प्रदेश में जल शक्ति अभियान के क्रियान्वयन और मॉनिटरिंग के लिए ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज विभाग के प्रमुख को नियुक्त किया गया है।

ग्राफिक: संजीत / सीएसई

परंपरागत जल स्त्रोतों की इस योजना को गांव में अमली जामा तो महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के माध्यम से ही पहनाया जाएगा। इस संबंध में जोधपुर में जल संरक्षण का काम करने वाले हनुमान सिंह बताते हैं, जब एक अप्रैल, 2008 को यह योजना पूरे देश में लागू की गई थी, तब इस योजना में जल भंडारण के लिए प्रावधान सुनिश्चित किया गया था। इस योजना में केद्रीय स्तर पर जिन कार्यों की सूची बनाई गई है, उसमें जल संरक्षण एवं जल संग्रहण को प्राथमिकता को पहले नंबर पर रखा गया है। साथ ही इन कार्यों को स्थानीय लोगों द्वारा ही पूरा कराया जाता है। इसके वित्तीय प्रबंध के संबंध में जोधपुर उच्च न्यायालय में पर्यावरण संबंधी विषयों को दायर करने वाले प्रेम सिंह राठौर बताते हैं कि इस राष्ट्रीय योजना में धन का पर्याप्त प्रावधान है। कार्य भी स्थानीय आवश्यकता के अनुरूप करवाया जा रहा है। साथ ही इस कार्य पर पूरी निगरानी रखी जा रही है, स्थानीय समस्याओं पर यदि पूरी तरह से ध्यान दिया जाए तो जल भंडारण के ये ढांचे राजस्थान में नहीं पूरे देश में जल की समस्या के समाधान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

जिले के समदड़ी तहसील में जल शक्ति अभियान का काम संभाल रहे जूनियर टेक्निकल असिस्टेंट मनोहर गहलोत ने बताया कि मनरेगा के प्लान स्वीकृत हो चुके हैं। यह गत एक जुलाई को शुरू हुआ था और इसे आगामी 15 सितंबर तक खत्म होना है। अब तक 25 फीसदी काम खत्म हो चुका है। उन्होंने बताया कि जल संचय के लिए तालाब, नाड़ी और टांके आदि के आगोर (कैचमेंट) को बढ़ा रहे हैं। अभियान के तहत आगोर की सफाई की गई है। नाड़ी और तालाब के कैचमेंट से झाड़ियों को हटाया गया है ताकि बारिश का अधिकाधिक पानी आगोर के माध्यम से संग्रहित हो। राज्य के सभी 25 जिलों में जल संचय का काम किया जा रहा है। इसकी रिपोर्ट प्रतिदिन जयपुर भेजी जा रही है। राज्य के पंचायती राज विभाग के ग्राम प्रचार अधिकारी विनोद कुमार ने डाउन टू अर्थ को बताया कि जिस प्रकार से आपने पिछले 5 सालों में केवल शौचालय निर्माण व स्वच्छता अभियान देखा था, ठीक उसी प्रकार से इस बार अगले पांच सालों तक आप राजस्थान में केवल जल जीवन मिशन को ही देखेंगे। चूंकि यहां तो एक बार ही मुश्किल से बारिश होती है, उसे कैसे स्टोर किया जाए, स्थानीय लोगों के सहयोग के बिना तो सोच ही नहीं सकते हैं। उनका कहना था कि हम भले ही चार किताबें पढ़ कर डिग्री हासिल कर लें लेकिन असली पारंपरिक ज्ञान तो ग्रामीणों के पास ही है। हम उनसे पूरी मदद लेते हैं। राज्य सरकार ने अब तक की राज्य में पानी से जुड़ी सभी योजनाओं को अब जल शक्ति अभियान से जोड़ दिया है। उन्होंने बताया कि बेरी व टांका के जीर्णोद्धार में एक माह और तालाब का 5 से 6 माह तक का समय लगता है। इसके तहत गाद निकालना और घाट का निर्माण शामिल है। इस अभियान के लिए हर हफ्ते अलग-अलग इलाकों के गांवों में कैंप का भी आयोजन किया जाता है। जिसमें आम लोगों को परंपरागत जल स्त्रोतों में सरकार की भागीदारी के बारे में बताया जाता है और उनसे सुझाव भी मांगा जाता है।

लौटे अपनी परंपरा की ओर

राजस्थान में पानी संकट धीरे-धीरे गहराता जा रहा है। इस संबंध में मीहितिला गांव के 80 वर्षीय बाकाराम कहते हैं, दुनिया पानी के बिना मर जाएगी लेकिन एक राजस्थानी पानी के बिना नहीं मरने वाला क्योंकि उसने पानी के बिना जीना सीख रखा है। वह अफसोस जताते हैं कि हमारी पानी संजोने की समृद्धता को जाने कौन की नजर आ लगी और देखते ही देखते क्या शहर- क्या गांव सब ओर पाइप लाइन बिछ गई। लेकिन क्या यह पानी दे पाई हमें। आखिर हमें एक बार फिर से हजारों साल पुराने परंपरागत जल संचय के स्त्रोतों की ओर निहारना पड़ा। वयुतु गांव के एक अन्य बुजुर्ग हरिराम ने तो यहां तक कह डाला कि बस इस बार अच्छी बात यह हुई कि यह बात अकेले एक ग्रामीण ने न सोची बल्कि देश को बड़ो आदमी तक ने सोची। तभी तो आप देख रहे हो कि इन दिनों गांव-गांव जल संचय करने की पीढ़ियों से भुला दिए गए तौर-तरीकों की अब कलेक्टर भी तारीफ करते नहीं अघा रहा। चटेलाव गांव के 60 वर्षीय भंवरलाल लगभग 70 भेड़ों के मालिक हैं और एक कच्चे घर में अपने बेटे, पत्नी और बुजुर्ग पिता के साथ रहते हैं। चूंकि वे भेड़ पालते हैं तो पाीनी की कमी के चलते कई-कई माह तक दूसरे इलाकों में चले जाते हैं अपनी भेड़ों के चारे और पानी के लिए।

लेकिन पिछले दो माह से उन्हें अपने घर से बाहर नहीं जाना पड़ा है क्योंकि अब उनके घर के अंदर ही सरकार ने पुराने टांके का जीर्णोद्धार कर दिया है। इसके चलते वह अब उनका और उनकी भेड़ों को इधर-उधर पानी के लिए भटकना नहीं पड़ता है। वह बताते हैं हमारा यह टांका मेरे पिता के समय का है लेकिन जब से पाइप लाइन आ गई थी तो हमने इसका रख-रखाव करना ही छोड़ दिया था। इसके चलते यह धसक गया। लेकिन पिछले कुछ सालों से पाइप लाइन का पानी बराबर नहीं मिलता था, ऐसे में एक हजार रुपए टैंकर वाले को देना पड़ता था, जब वह पानी देता था।

राजस्थान के बाड़मेर जिले के रामसर के पार में हाल में ही एक नवनिर्मित बेरी से मीठा पानी निकालते हरलाल अपने परिवार के साथ

गौरवशाली परंपरा

राजस्थान की जल संचयन की इतनी गौरवशाली परंपरा आखिर बिखर कैसे गई। इस संबंध में रामसर के भवरलाल सिंह कहते हैं, इसका असली कारण है कि हम बदल गए। जब हम बदल गए तो धरती कैसे न बदलेगी। यहां इतना पानी था कि हम चार-चार साल तक पुराना अनाज खाकर थकते न थे। सरकार ने विकास के नाम पर हमारे गांव में पंप लगा दिए और इसके बाद पाइप लाइन बिछा दी। फिर क्या था हर कोई इसी पर निर्भर हो गया। किसी ने बेरियों के रख-रखाव पर ध्यान न दिया। जब तक हमने अपनी बेरियों का संवारा तब तक वह जीवित रहीं लेकिन इसके बाद वे रेतीले अंधड़ों में गुम हो गईं। मजल गांव के हरिभवंर बताते हैं, जब से बेरियां खत्म हुईं, हम मीठे पानी के लिए तरस गए और अब जब एक फिर से बेरियों को हम सरकार के साथ मिलकर पुनर्जीवित कर रहे हैं तो बरसों पुराना मीठा पानी हमारी प्यास बुझा रहा है। वह कहते हैं, आधुनिकता अच्छी बात है लेकिन उसके पीछे अंधे होकर भागना अच्छा नहीं है। आखिर हमारी आजकल की पढ़ाई ऐसी है जिसके चलते हम पुरानी परंपराओं से दूर होते जा रहे हैं और इसी का नतीजा है कि अब हमारे पास अधिक संसाधन होने के बावजूद पहले के मुकाबले अधिक गरीब व लाचार नजर आते हैं।

उनके साथी गजेंद्र सिंह कहते हैं अब हमारी जेब में पैसा होता है, लेकिन मीठे पानी के लिए सालों से तरस रहे हैं। आखिर जब हम अपनी जड़ों से कट जाएंगे तो कैसे तरक्की कर पाएंगे। वहीं इसी गांव के हरिभंवर ने बताया कि यहां इतने विदेशी पर्यटक आते हैं, वे इन टूटी-फूटी बेरियों को देखते हैं तो सवाल करते हैं कि आपके पास तो आल रेडी मिनरल वाटर है, फिर क्यों आप लोग बाजार से बीस रुपए की महंगी बोतल खरीदते हो? वह कहते हैं यह हम सब के लिए एक यक्ष प्रश्न है कि एक बाहरी आकर हमें हमारी परंपराओं काे याद दिला रहा है।

बेरियों का जीर्णोद्धार बाड़मेर,जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर में चल रहा है। पश्चिमी राजस्थान के अन्य जिलों जैसे जालोर, पाली, सिरोही आदि में भी अन्य परंपरागत जल स्त्रोतों को चिन्हित करने का काम चल रहा है। जोधपुर के मलानावास गांव के राज सिंह कहते हैं, वास्तविकता तो यह है कि परंपरागत जल स्रोतों के जीर्णोद्धार के चलते सबसे अधिक लाभ तो हम जैसे गरीब मजदूर को हुआ है। आखिर जब ये स्रोतों नहीं थे तो हमें हर हफ्ते टैंकर से पानी खरीदना पड़ता था। गांव के ही बुजुर्ग प्रताप सिंह कहते हैं वास्तव में परंपरागत हमारे जल स्त्रोत तो हमारे सामाजिक जीवन के तानाबाना थे। इसके चलते गांव में कभी किसी प्रकार झगड़ा फसाद नहीं होता था क्योंकि इन जल स्त्रोंतों के चलते सभी एक-दूसरे के पूरक बने हुए थे। यही नहीं इन स्त्रोंतो ने हमारी धरती को भी नम करके रखते हैं और इसका परिणाम होता है कि जितना भी बड़ा जल संकट क्यों न हो हमें अपनी बेरियों पर आंख मूंदकर विश्वास करते हैं कि वह हमें हर हाल में जीवित रखेंगी।

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