अपनी परंपराओं को सहेजते तो नहीं करना पड़ता जल संकट का सामना

जल संचय व्यवस्थाओं को जिंदा रखने में राजनैतिक या वैधानिक प्रयासों से कहीं ज्यादा बड़ी भूमिका प्रचलित रीति-रिवाजों और परंपराओं की रही

By DTE Staff

On: Thursday 27 February 2020
 
शिमोगा जिले का सुलेकेरे का निर्माण हरिद्रा नदी पर बांध डालकर किया गया था। यह जगह चन्नागिरी से 9 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है (सुशीला नैयर / सीएसई)

भारत में जल संचय की परंपरा से जाहिर होता है कि पानी के लिए लोगों के मन में कितना आदर भाव रहा है। पानी का पूजन, संग्रह और संरक्षण किया जाता था, कभी दुरुपयोग नहीं किया जाता था। जल संचय की व्यवस्थाओं के रखरखाव में कर्नाटक अग्रणी रहा। ये प्रबंध सुलेकेरे जैसे 32.26 वर्ग किमी. के विशाल तालाब से लेकर छोटे कट्टे या जलाशयों तक के आकार के थे और उनकी संख्या अनगिनत थी। इनके निर्माण का मुख्य उद्देश्य जल भंडारण व्यवस्था की शृंखला तैयार करना था। उनके निर्माण में कोई समरूपता नहीं थी।

कई तरह के ढांचे

कर्नाटक में जल संचय के लिए तालाब के अलावा अराकेरे, वोलकेरे, देवीकेरे, कट्टे, कुटे और कोल नामक व्यवस्थाएं बनाई जाती थीं। कई के नाम बस अलग थे, उनका ढांचा एक ही तरह का होता था। सबसे ज्यादा संख्या तालाबों की थी। आज भी कर्नाटक में 40,000 तालाब हैं। इन तालाबों को पत्थर, सीमेंट, गारे या इन सबको मिलाकर बनाया गया है। कई ढांचों को बड़ा करके छोटे-बड़े तालाबों में बदल दिया गया है।

अराकेरे का अर्थ है, “अर्द्ध तालाब”। नौवीं शताब्दी के नीतिमार्ग अभिलेख में इसका उल्लेख मिलता है। मंदिरों के लिए खास तौर से छोटे तालाब बनाए जाते थे जिन्हें देवीकेरे, देवगेरे या देवराकेरे कहा जाता था। उनका उपयोग मंदिर को साफ रखने के लिए किया जाता था। वोलकेरे का अर्थ है प्रतिबंधित क्षेत्र का पोखर जिसमें पानी उथली नहरों से आता है। इन तालाबों के स्थानीय नाम उनके उपयोग के आधार पर रखे गए हैं। तालाब शासकों (बिट्टी समुद्र), महत्वपूर्ण हस्तियों की पत्नियों (अरसिया केरे), देवी-देवताओं (पेरुमले समुद्र, देवकेरे), आकार (किरिया या हरिया केरे), पानी के स्वाद (उप्पनिकेरे), शहरों के नाम, (अलसुकेरे) और फूलों नाम (ताबरेकेरे) पर रखे जाते थे। कट्टे पानी जमा करने के लिए बनाए जाने वाले बांध को कहा जाता है। इनका इस्तेमाल नहाने, कपड़े धोने और पीने के पानी के लिए किया जाता है। कुछ कट्टों का उपयोग केवल पीने के पानी के के लिए किया जाता है।

कुछ इलाकों में गांववाले बहुत छोटे उन पोखरों को कट्टे कहते हैं जिनकी कोई नहर या नाली नहीं होती। बंगलूर में रामनगरम में ऐसे ही कट्टे हैं जिन्हें इजुर कट्टे कहा जाता है। केवल स्नान के लिए उपयोग किए जाने वाले कट्टे को स्नान घट्टा या कडाहु कहा जाता है। मलनाड में सूखे के दौरान घुमावदार संकरी घाटियों में बने बगीचे कट्टे से मिलने वाली नमी पर हरे-भरे रहते हैं। अगासरा कट्टे या कापना तीर्थ नामों से पता चलता है कि इन कट्टों का उपयोग किन कामों में होता था। कंुटे नाम का उपयोग कट्टे के लिए भी होता है। गड्ढे या निचले इलाके में जमा पानी को कुंटे या कोल भी कहा जाता है। पुराने शिलालेखों में रवि कुंटे और बसरी कुंटे जैसे नामों का उल्लेख मिलता है। कुंटे नालियों या प्राकृतिक जल के बंधारे को भी कहा जाता होगा। इसके पानी का उपयोग मवेशी और लोग भी करते हैं।

अलग-अलग शब्द रूप अलग-अलग क्षेत्रों के कारण बने होंगे जैसे बंगलूर जिले में अरिशिना कुंटे और कोलार जिले में येर्रप्पण कुंटे नाम प्रचलित है। कुछ इलाकों में कुंटे को गुडरा भी कहा जाता था जो प्राकृतिक रूप से बनता है। कोल भी प्राकृतिक ढाल जमीन पर बनते हैं यद्यपि अन्य जगह पर भी कहीं-कहीं बनाए गए हैं। कोल के पानी का उपयोग पीने और सफाई के लिए किया जाता है। मंदिर के पास के कोल को कल्याणी या तीर्थ कहा जाता है। देवीकोल विशेष देवी के लिए बनाए गए कोल को कहा जाता है। इसे पवित्र माना जाता है। बेलगोला का अर्थ “सफेद तालाब” है। इसका पानी स्वच्छ माना जाता है। बड़े कोल को अनेकोल कहा जाता है। इसका पानी हाथियों के पीने के लिए होता है। कुछ इलाकों में कोल को कोण, नीरीना होंडा या पुष्करणी कहा जाता है। ये मुख्यतः स्नान के लिए होते हैं। बंगलूर में बिदलुर गंगम्मा तालाब का, जिसे शुक्र कोला भी कहा जाता है, धार्मिक प्रयोजनों में उपयोग होता है। जब यह सूख जाता है तो भी कोण में पानी होता है, क्योंकि यह इस तरह से बनाया गया है।

चिकमगलूर जिले में मड़गकेरे से निकलती नहर (भास्कर राव / सीएसई)

लोकभाषा में मज्जन कोण और हूविना कोण नामों का उपयोग होता है। ये पोखर स्नान और फूल खिलाने के काम में आते हैं। ये कोण भी प्राकृतिक तौर पर बने होंगे। कंुड खाली गड्ढे में प्राकृतिक तौर से भरे जल को कहते हैं। इनमें से कुछ झरने भी होते थे। कूर्ग जिले में कावेरी नदी के स्त्रोत ताल कावेरी में कुंडों को कुंडिके कहा जाता है जिसका अर्थ झरना भी होता है। कुछ इलाकों में कुंडों को कोल या होंड भी कहा जाता है।

छोटी दरिया या सोते को कलडोर कहा जाता है, जिसे पैदल चलकर पार किया जा सकता है। कूर्ग जैसे मालनाड इलाकों में ये आम हैं। इनका पानी बगीचों की सिंचाई में काम आता है। कलडोर का पानी अंततः बड़े तालाबों में पहुंचता है। घाटी में जमा पानी या छोटे दरिया को कोवू कहा जाता है। कुर्ग में नककेरी कोवू और बिदरूरू कोवू इसके उदाहरण हैं। हल्ल छोटी नदी या छोटी सोते को कहा जाता है जबकि कोल्ल उस दर्रें को कहते हैं, जिससे बरसात का पानी बहता है। हल्ल के पानी से खेती और बागवानी की जाती है। हाल्ल और कोल्ल के उपयोग का वर्णन लोक कथाओं, लोकगीतों में मिलता है। छोटे, उथले में जमा पानी को नीरगुंडी कहा जाता है। कुछ इलाकों में इनका नाम अलग-अलग परिवारों पर रखा गया है।

इसी तरह, कूर्ग में देवारा गंुडी देवी-देवताओं के स्नान के लिए है। गह्य अगस्तेश्वर मंदिर के लिए कावेरी में स्थान विशेष निर्धारित है, जहां से पानी लाकर देवताओं को स्नान कराया जाता है।

कल्याणी मंदिर के पास बनाए गए जलाशय (कोल) को कहते हैं जिसका उपयोग मंदिर और उसके भक्तगण करते हैं। कल्याणी का पानी मंदिर के देवी-देवताओं के स्नान और पीने के लिए उपयोग किया जाता है। इसमें नहाना-धोना मना है। ओंकारेश्वर मंदिर के कल्याणी के पानी को स्वच्छ रखने के लिए उसमें मछलिया पाली जाती हैं। देवरा कल्याणी नाम से स्पष्ट है कि यह देवी-देवताओं के लिए ही होता है (भैरव पर लोकगीतों में उल्लेख)। पहले केवल हाथ-मुंह धोने के लिए अलग कल्याणी होते थे। कल्याणी को प्रदूषण मुक्त रखने के लिए कड़े नियम थे।

सरोवर नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें कमल खिलता है। इसका पानी धुलाई में उपयोग होता है, लेकिन लोग इसके संरक्षण के प्रति सचेत रहते हैं। पुराने शिलालेखों में इसी तरह के तालाबों के लिए ताटक और महाताटक नाम मिलते हैं। गोकट्टे प्राकृतिक पद्धति से पानी के संग्रह के लिए बनाया जाता है और केवल मवेशियों के काम में आता है। पहाड़ों आदि में पत्थरों के बीच बने जलाशय को दोन या सोन कहा जाता है। कई पवित्र स्थलों में इसे तीर्थ कहा जाता है जैसे, रामतीर्थ, दधितीर्थ, न्येदिलेदीर्थ। दोन का पानी बहकर हल्ल के रूप में झरने की तरह बहता है। इससे सिंचाई की जाती है। रामनगरम भक्षीकेरे इसका उदाहरण है। होंडा बड़े पोखर या गुंडी को कहा जाता है। लोग दैनिक कामों के लिए इसका उपयोग करते हैं। इससे कोई नाली आदि नहीं निकलती। प्राकृतिक झरने को चिलुमे कहा जाता है।

छोटे कुएं को पिल्ला भावी या गारांदा कहा जाता है। इसे जमीन के नीचे फूटे सोते या भूमिगत जल के उपयोग के लिए खोदा जाता है। कोलार जिले में कई गरांदा हैं। एक-डेढ़ मीटर गहरे वृताकार या आताकार अस्थायी जल स्त्रोत को नीरगुनी कहा जाता है। नदी में मिलने वाले हल्ल को इति कहा जाता है। अभिलाषिता चिंतामणि के मुताबिक, पानी के बंद स्त्रोत को कूप, एक निकास वाले स्त्रोत को वापि और कई निकासों वाले स्त्रोत को पुष्करणी कहा जाता है। जब किसी तालाब के आगोर में बारिश नहीं होती तो किसान तेलुपरागी तकनीक का प्रयोग करते हैं। तालाब के बीच वृताकार बांध बनाया जाता है। तेलुपरागी तक उथली नहरें, जिन्हें तेलुकलुवे कहा जाता है, बनाई जाती हैं। जब तालाब में कम पानी रह जाता है तब तेलुपरागी का उपयोग केवल दैनंदिन जरूरतों के लिए किया जाता है। तालाब भर जाता है तब तालाब के बाहर बगीचों की सिंचाई के लिए निकास बनाए जाते हैं। तालाब के आसपास सूखे क्षेत्र को केरेहोला कहा जाता है। इसे तेलुकलुवों से सींचा जाता है।

सन 1900 में चिकमगलूर जिले में 9656 तालाब थे। मडगकेरे का निर्माण दो पहाड़ियों के बीच अवती नदी को घेरकर किया गया था (भास्कर राव / सीएसई)

लोगों की लगन

जल संग्रह व्यवस्थाओं, ढांचों के निर्माण और रखरखाव की पहल राजाओं, अमीरों, ग्राम संस्थाओं की ओर से होती थी, क्योंकि उन्हें लगता था कि यह उनके लिए समृद्धि लाएगी। इसके अलावा पेग्गडे और शिव संन्यासी जैसे साधु तालाब बनवाते थे। विवाह, यज्ञोपवीत आदि में मिले दान को ब्राह्मण लोग तालाबों के रखरखाव पर भी लगाते थे। भूमिकर बिट्टवता का उपयोग भी इस काम में किया जाता था। बगीचे के कुओं पर कुलिया सुंका नामक कर लगाया जाता था, ताकि कुएं के पानी का दुरुपयोग न किया जाए। विवाह आदि समारोहों पर कर वसूला जाता था, जिससे गांव के तालाब या मंदिर का रखरखाव किया जाता था।

मंदिरों की ओर से भी जल संग्रह संचय व्यवस्थाओं पर खर्च किया जाता था। तिरुमलिशै अलवार के खजाने से दो भूखंड खरीदे गए थे। उसके कोष से सिंचाई की छोटी प्रणालियों को पुनः उपयोगी बनाया गया। जल स्त्रोत के पास जिस किसानों की जमीन होती थी, उन्हें नदी तल को गहरा करने या मिट्टी निकासी के लिए मजदूर देने होते थे। मिट्टी निकासी और स्नान घाट बनाने के लिए दान में 100 सुब्बराया वाराह (स्थानीय मुद्रा) देने पड़ते थे। तालाब जैसे जल स्त्रोतों के निर्माण धार्मिक उद्देश्यों से किए जाते थे और उनसे आर्थिक तथा कृषि संबंधी जरूरतें भी पूरी होती थीं। देवी-देवता के प्रतिष्ठान या प्रियजन की मृत्यु आदि पर तालाब वगैरह बनवाए जाते थे।

ऐसी कई किंवदंतियां हैं कि स्त्री-पुरुष और बच्चों तक ने यह सोचकर अपनी कुर्बानी दी कि इससे उनके इलाके में पानी आएगा। इन तमाम परंपराओं और पराक्रमों से पता लगता है कि जल संचय व्यवस्थाओं को जिंदा रखने में राजनैतिक या वैधानिक प्रयासों से कहीं ज्यादा बड़ी भूमिका प्रचलित रीति-रिवाजों और परंपराओं की रही। आज जल संचय की विशद् तकनीक के बावजूद जल व्यवस्थाएं बदहाल हैं। यह भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन, कुओं, नलकूपों आदि के नाकाम होने, दक्षिणी पठार के गांवों में पीने के पानी के व्यापक संकट से जाहिर हैं। इसमें जल संग्रह की छोटी इकाइयां मददगार हो सकती हैं। जल संचय की हरेक पारंपरिक तकनीक पर ध्यान देना और हरेक गांव के लिए उपयुक्त व्यवस्था करना जरूरी है। कभी मवेशियों के लिए अहम स्त्रोत रहे गोकट्टे पर ध्यान देना जरूरी है, जिनकी उपेक्षा आज इसलिए हो रही है कि चरागाहों पर भी अतिक्रमण हो रहा है। गोकट्टे के रखरखाव की संस्थाओं को पुनर्जीवित करने की जरूरत है।

(“बूंदों की संस्कृति” पुस्तक से साभार)

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