चुरु के खजाने
मॉनसून के जल को एकत्रित करने के लिए तैयार कुंड बदहाली से गुजर रहे हैं
On: Tuesday 13 November 2018
थार मरूस्थल का प्रवेश द्वार चुरु जिला एक निर्जन दिखने वाला क्षेत्र है। यहां आक-जवास के झाड़ और जगह बदलते बालू के ढूंह भरे पड़े हैं। गर्मी के दिनों में हर साल निश्चित रूप से यहां का तापमान सबसे अधिक रिकाॅर्ड किया जाता है। यहां के कुएं खारे और काफी गहरे होते हैं। पाइपों से अनियमित सप्लाई वाला पानी घरेलू जरूरतों को भी पूरा नहीं कर पाता। इस समस्या से निपटने के लिए यहां गांववालों ने खुद मॉनसून में जल को इकट्ठा करने के लिए कुंडों को तैयार किया है।
लहसेडी गांव के रण सिंह, जो कुंडों को तैयार करने वाले माने हुए मिस्त्रियों में से एक हैं, के अनुसार, ”एक अच्छे कुंड को तैयार करना काफी कठिन काम है। इसके लिए जमीन पर उगे पेड़-पौधों को साफ करना होता है। आगोर को तैयार करने में काफी सावधानी बरतनी पड़ती है।“ पांच मीटर गहरे और 2.5 मी. व्यास के कुंड को तैयार करने में 25 दिन लगते हैं और कुल खर्च 12,000 रुपए आता है। तैयार किए गए कुंड को “भिडा” से ढका जाता है। पारंपरिक तौर पर आसानी से उपलब्ध फोग की लकड़ी से इसको तैयार किया जाता था। जिस पर बाद में मिट्टी लेप दी जाती थी। आजकल इसके लिए बलुआ पत्थर या सीमेंट का प्रयोग होता है।
हालांकि अधिकतर कुंडों पर स्वामित्व निजी लोगों का है, फिर भी कुछ का निर्माण सार्वजनिक उपयोग के लिए भी किया गया है। निहाल सिंह कहते हैं, “गांव (लहसेडी) के बाहर चुरु के एक बनिये ने सौ वर्ष पहले एक बड़े कुंड का निर्माण करवाया था।” इससे चुरु और हिसार के बीच पुराने ऊंटों वाले मार्ग पर चलने वाले यात्रियों को काफी राहत मिलती थी।
एक अन्य प्रसिद्ध सार्वजनिक कुंड डाडरेवा में, जो चुरु और बीकानेर के बीच या़त्रा करने वाले लोगों का नामी पड़ाव हुआ करता था, सन 1957 में तैयार करवाया गया था। इसकी देखभाल करने वाले सुंगा राम शर्मा काफी गर्व से बताते हैं, “यह यात्रियों की साल भर सेवा करने के अलावा योद्धा संत गोगाजी चौहान की समाधि पर सावन के महीने में आने वाले करीब 15 लाख तीर्थयात्रियों की भी सेवा करता है।”
पिछले वर्ष इस गांव को राजस्थान नहर से जोड़ा गया था और एक 10,000 लीटर की क्षमता वाली एक टंकी का निर्माण भी गांव में करवाया गया था, फिर भी यहां पानी की सप्लाई काफी अनियमित है। गर्मी के दिनों में यहां सप्ताह में सिर्फ एक ही दिन पानी आता है। चंद्रावती देवी के अनुसार, “इसके बाद कुंड का ठंडा पानी ही हमारी प्यास बुझाने का एकमात्र सहारा होता है। नल के पानी का उपयोग पशुओं की जरूरतों को पूरा करने के लिए किया जाता है।”
कुंड का पानी पशुओं की भी प्यास बुझाता है। चुरु-बीकानेर राजमार्ग पर स्थित न्यांगली गांव के थोड़ा बाहर एक बड़े कुंड का निर्माण सोबाक सिंह ने सन 1957 में करवाया था, जिसका हौज 7 मीटर गहरा और इसका आगोर कोयला-राख से तैयार किया गया था। इस कुंड के बाहर एक छोटा हौज था, जिसे एक नाली के द्वारा जोड़ा गया था। इसमें पशुओं के पीने के लिए पानी रखा जाता था। चंद्रावती के अनुसार, आज यह नाली क्षतिग्रस्त हो गई है। अब हम पास के छोटे कुंड के पानी को अपने जानवरों के लिए प्रयोग में ला रहे हैं।
राजस्थान नहर के आने से कुंडों की हालत काफी खराब है और लहसेडी में पिछले पांच वर्षों के दौरान, सिर्फ गिने-चुने कुंडों की खुदाई की गई है। यहां पानी की आपूर्ति काफी अनियमित है, इसलिए गांववालों ने कुंडों की पूरी तरह उपेक्षा नहीं की। न्यांगली के कंवरपाल सिंह बताते हैं, “अब हम इन्हें पानी के एक अतिरिक्त स्त्रोत की भांति देखते हैं।” पर डाडरेवा में, जहां पानी की सप्लाई थोड़ी अधिक नियमित है, अधिकतर घरों में कुंड नहीं रह गए हैं।
हालांकि राजस्थान सरकार ने सत्तर के दशक के शुरू से ही कुंडों को छोटे स्तर पर की जाने वाली सिंचाई और पीने के पानी जैसी जरूरतों के लिए बढ़ावा देना शुरू किया था, परंतु उसने कुडों को पीने के पानी के संकट को दूर करने के एक अनुपूरक स्त्रोत की भांति ही माना है। चुरु के लगभग 950 गांवों में पानी उपलब्ध कराने के बाद सरकार का मानना है, “कुंड सीमित मांग की ही पूर्ति कर सकते हैं।” ऐसा ही कुछ चुरु के जिला कलक्टर, आर. एन. अरविंद भी मानते हैं।
पिछले वर्ष सरकार ने व्यक्तिगत रूप से कुंडों के निर्माण के लिए दी जाने वाली आर्थिक सहायता पर रोक लगा दी थी। पर अरविंद का मानना है, “इस जिले के लोग इस व्यवस्था को जारी रखना चाहते हैं और जिला प्रशासन भी इसका समर्थन करता है।” केंद्र सरकार द्वारा चलाई जा रही जवाहर रोजगार योजना के तहत पंचायतों को, सार्वजनिक उपयोग के लिए कुंडों का निर्माण कराने के लिए, आर्थिक सहायता दी जाती है।
अभी, पंचायतों द्वारा निर्मित कुंड पीने के पानी की सार्वजनिक स्त्रोत व्यवस्था प्याऊ की भांति काम कर रहे हैं। इससे यात्रियों को भी काफी सहायता मिल रही है। गांववालों को अपनी दैनिक जरूरतों की पूर्ति के लिए इन कुंडों को उपयोग में लाने की अनुमति नहीं दी गई है। पंचायत के कुंड की देखभाल करने वाले लहसेडी गांव के 65 वर्षीय महावीर प्रसाद शर्मा कहते हैं, “मैं प्रतिदिन कई लोगों की प्यास बुझाता हूं, पर मुझे अपने परिवार के लिए इस कुंड को उपयोग में लाने की अनुमति नहीं है।”
चूंकि अधिकतर कुंडों पर स्वामित्व अलग-अलग लोगों का है, इसलिए गरीब लोगों के लिए मीठा पानी एक दुर्लभ वस्तु है। न्यांगली के दुलाराम खेद प्रकट करते हुए कहते हैं, “मेरे जैसे गरीब लोगों को कुंड के पानी को उपयोग में लाने की अनुमति नहीं दी गई है।” इसी तरह, राम सिंह जिन्होंने एक मजदूर की तरह 15 वर्ष की आयु से ही इन कुंडों को तैयार करना शुरू किया था, के पास कोई भी अपना कुंड नहीं है और वे अब भी अपने परिवार की पीने के पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए अनियमित पानी की आपूर्ति पर निर्भर हैं। (“बूंदों की संस्कृति” पुस्तक से साभार)