क्यों अधूरे रह जाते हैं मनरेगा के काम

विशेषज्ञों का कहना है कि ग्राम पंचायतों की क्षमता की कमी के चलते मनरेगा के काम अधूरे रह जाते हैं

By Sushmita Sengupta

On: Wednesday 24 March 2021
 
राजस्थान के एक गांव में मनरेगा के तहत काम करती एक महिला। फोटो: अनिल अश्वनी शर्मा

बेशक महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) का जल संरक्षण की दिशा में काफी हद तक अच्छा काम हुआ है, लेकिन मनरेगा की कुछ खामियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इनमें से एक है अधूरे पड़े कार्य। डाउन टू अर्थ ने अपनी पड़ताल के दौरान पाया कि बड़ी संख्या में पानी से संबंधित कार्य अधूरे पड़े हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि इसका एक बड़ा कारण ग्राम पंचायतों की क्षमता की कमी है। 

मनरेगा की वेबसाइट में एमआईएस पर उपलब्ध कराए गए ताजा आंकड़ों के मुताबिक, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में वित्त वर्ष 2019-2020 में पानी से संबंधित दो कार्यों में सबसे ज्यादा काम अधूरे रहे, जो वित्तवर्ष 2020-2021 तक खिंच गए। आंध्र प्रदेश में ये दोनों कार्य लघु सिंचाई (55,439 अधूरे कार्य) और पारंपरिक जलस्रोतों का पुनरोद्धार (26,225 अधूरे कार्य) हैं। तेलंगाना में सूखा से बचाव (3,89,567) और जल संरक्षण तथा संचयन (1,11,321) कार्य अधूरे रहे।

इसी वित्त वर्ष यानी साल 2019-20 में पश्चिम बंगाल में सबसे ज्यादा कार्य जो अधूरे रहे, वे बाढ़ नियंत्रण और सुरक्षा (54,818) से जुड़े थे। तमिलनाडु में सबसे ज्यादा अधूरा कार्य ग्रामीण पेयजल (1,265) से जुड़ा था। वित्त वर्ष 2019-2020 में पानी से संबंधित 20 लाख संपत्तियों का काम अधूरा था, जो साल 2020-2021 तक जारी रहा।

1 अक्टूबर 2019 से अधूरे कार्यों में प्रगति के आंकड़ों से पता चलता है कि आंध्र प्रदेश ने जलस्रोतों के जीर्णोद्धार के तहत 28,623 कार्यों को पूरा किया। इसका सीधा अर्थ है कि लंबित कार्य पूरे हुए हैं। लेकिन, जल संरक्षण और जल संचयन के तहत कार्यों की बात करें, तो साल 2019-2020 में सबसे ज्यादा कार्य तेलंगाना में अधूरे थे। राज्य में 1 अक्टूबर 2019 से अब तक 36,737 कार्य ही पूरे हो पाए हैं।

मनोज पांडा बताते हैं, “ग्रामीण इलाकों में जल संबंधी समस्याओं के समाधान में मनरेगा की क्षमता का दोहन करने के लिए ग्रामसभा को निर्णय लेने की प्रक्रिया में प्रभावी तरीके से शामिल करना चाहिए। वित्त आयोग से पंचायतों को मिले अनुदान में पानी फोकस एरिया है। योजना, कार्यान्वयन और जवाबदेही में आपसी तालमेल स्थापित करने के लिए इन दोनों खर्च को एक साथ मिलाने की गुंजाइश है।”

पूर्णचंद्र किशन कहते हैं, “हर कार्य को टैग करने के लिए जीआईएस आधारित तकनीक इस्तेमाल करना चाहिए। ग्राम पंचायत को चाहिए कि वह निर्माण कार्य में लगी सामग्री और श्रमिकों की पूरी जानकारी रखे और इसी के अनुरूप पैसा खर्च करे। इससे कार्यक्रम रिसाव मुक्त और ज्यादा प्रभावी होगा।” उन्होंने बताया कि राजस्थान इसी तर्ज पर काम कर रहा है।

लेकिन क्या कार्यक्रम सही रास्ते पर है? विशेषज्ञ, अर्थशास्त्री और योजना आयोग के पूर्व सदस्य मिहिर शाह के अनुसार, मनरेगा को लागू करने में सबसे कमजोर कड़ी इसे लागू करने वाली संस्था ग्राम पंचायत के पास अपेक्षित क्षमता की कमी है। शाह के मुताबिक, एक तरीका है जिससे इस कमजोरी को प्रभावी तरीके से दूर किया जा सकता है और वह है कलस्टर फैसिलिटेशन टीम (सीएफटी)। इसे जहां भी आजमाया गया है, वहां सफल रहा है।

शाह के मुताबिक, सीएफटी बहुविषयक पेशेवरों की टीम है, जो ग्राम पंचायतों के कलस्टरों को मांग के अनुरूप होने वाले कार्यक्रमों को प्रभावी तरीके से लागू करने, उच्च गुणवत्तापूर्ण संपत्तियों के निर्माण के प्रावधानों के बारे में जागरूक करने और सोशल ऑडिट करने में मदद करती है। मनरेगा सफलतापूर्वक लागू हो, ये सुनिश्चित करने के लिए सीएफटी को व्यापक स्तर पर ले जाने की जरूरत है और खासकर उन राज्यों में, जहां इसकी जरूरत है और जहां राज्य की क्षमता कमजोर है।

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