क्या जल होगा जंग का हथियार?

भारत और पाकिस्तान के तल्ख होते रिश्तों के बीच प्राकृतिक संसाधनों के सामरिक इस्तेमाल को लेकर छिड़ी बहस

By Sushmita Sengupta

On: Friday 22 February 2019
 

बिगड़े हुए भारत-पाकिस्तान संबंधों में, हमेशा से ही असहमति रही है। यह इतनी आम बात है कि हम अक्सर मजाक में पूछते हैं: आखिर दोनों देश किस बात पर सहमत हैं? वास्तव में, इस प्रश्न का एक उत्तर मौजूद है, भले ही यह सुनने में कितना अपवाद क्यों न लगे! विगत 56 वर्षों से दोनों देशों के बीच तीन युद्ध और द्विपक्षीय संबंधों में कई कमजोर बिन्दुओं के बावजूद भी सिंधु जल संधि बरकरार रही है। इसलिए, जम्मू कश्मीर के उरी में सैनिक अड्डे पर आतंकवादी हमले के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वक्तव्य दिया कि “पानी और खून एक साथ नहीं बह सकते” और उन आयुक्तों की बैठक रद्द कर दी जो इस संधि के कार्यान्वयन की देखरेख करते हैं। यहां से इस मुद्दे ने जो मोड़ लिया है और जिस तरह की रणनीति निकलकर सामने आ रही है, उसे लेकर आज हर कोई चिंतित दिखाई दे रहा है।

क्या भारत को अपने पड़ोसी के साथ लंबी अवधि के सैन्य संघर्ष में पानी का इस्तेमाल एक रणनीतिक हथियार के तौर पर करना चाहिए? यह पहली बार नहीं है कि इस संधि की बात पाकिस्तान को आर्थिक तौर पर अपंग बनाने के साधन के रूप की जा रही है। पाकिस्तान की 90 प्रतिशत कृषि सिंधु पर निर्भर है। अतीत में भी ऐसे कई मौके आए जब इस प्रकार के बड़े कदम उठाने की बात कही गई। लेकिन सरकार के आक्रामक रवैये और पीएम मोदी द्वारा सिंधु बैठक को स्थगित करने के कारण ऐसा लगता है कि सरकार इस विकल्प को लेकर काफी गंभीर है।

अक्सर कहा जाता है कि अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर लड़ा जाएगा। दुनिया भर में देश नदी जल को लेकर आपस में लड़ रहे हैं और दुश्मन देशों के खिलाफ लंबे संघर्षों में जल का इस्तेमाल घातक हथियार के तौर पर किया जा रहा है (अगले पन्ने पर नक्शा देखें)। जल बंटवारे पर कानूनी समझौतों के बावजूद यह सब हो रहा है।

भारत में जब सिंधु जल संधि को लेकर बहस छिड़ी थी, चीन ने ब्रह्मपुत्र की एक सहायक नदी की दिशा बदल दी, जो भारत में लाखों लोगों के लिए जीवनदायिनी है। सुरक्षा विशेषज्ञ इसका सीधा अर्थ यह निकालते हैं कि आजकल देश रणनीतिक सौदेबाजी में जल का इस्तेमाल पूरी गंभीरता से कर रहे हैं। सुष्मिता सेनगुप्ता देश के चुनिंदा जल एवं सामरिक विशेषज्ञों के बीच छिड़ी बहस को आप तक पहुंचा रही हैै कि क्या भारत को जल का इस्तेमाल एक सैन्य हथि‍यार के तौर पर करना चाहिए:

“सिंधु जल का उपयोग सामरिक साधन के तौर पर करना न नैतिक रूप से सही है और न ही तर्कसंगत”

पानी पृथ्वी पर सर्वाधिक व्यापक रूप से बंटने वाले वाले संसाधनों में से एक है। पाकिस्तान को जवाबी हमले के तौर पर सिंधु जल संधि विवाद, उरी हमले के बाद सामने आया है। सामान्यतः पानी का उपयोग ‘रणनीतिक साधन’ के रूप में नहीं होना चाहिए, खासतौर पर सिंधु जल संधि का। हमें यह समझना चाहिए कि एक चीज को बेवजह दूसरे मसले में घसीटने का कोई लाभ नहीं है।

हालांकि ‘स्ट्रेटेजिक’ या ‘सामरिक’ शब्द की कोई सर्वसम्मत स्वीकृत परिभाषा नहीं हो सकती है, लेकिन पाकिस्तान और चीन जैसे लड़ाकू पड़ोसियों के साथ जुड़ाव के चलते मौजूदा विमर्श में इस शब्द का लापरवाही से प्रयोग किया जा रहा है। इस तरह की बातें नेपाल, भूटान या बांग्लादेश के साथ कभी नहीं हुईं। रणनीतिक संसाधन के दायरे को लेकर मुश्किल से ही कोई सहमति बन पाती है। मोटे तौर पर रणनीतिक संसाधनों को इस तरह परिभाषित कर सकते हैं: अ) आपात स्थिति के दौरान सैन्य, औद्योगिक और नागरिक जरूरतों को पूरा करने वाली वस्तुएं; ब) राज्य की इन जरूरतों को पूरा करने हेतु पर्याप्त मात्रा में उत्पादन या उपलब्धता का अभाव; स) सरकार द्वारा नियंत्रण, प्रबंध एवं संरक्षण।

वर्तमान परिस्थिति में यदि हम जल को सामरिक उपकरण मानते हैं तो राष्ट्र को न सिर्फ इससे जुड़े खतरे बल्कि इसकी उचित जवाबी कार्रवाई को भी परिभाषित करना पड़ेगा, जो “जल ही जीवन” वाली भावना पर एक बड़ा आघात होगा। यह सिंधु नदी के दोनों ओर रहने वाले सभी लोगों को नाराज कर सकता है क्योंकि आसपास का पूरा जीवन नदियों पर निर्भर होता है। इस तरह सामरिक साधन के तौर पर जल का उपयोग अपने आप में प्रतिबंधात्मक है।

क्या है सिंधु जल संधि

सिंधु जल संधि, विश्व बैंक की मध्यस्थता में भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु नदी के जल वितरण को लेकर हुई एक संधि है। 19 सितम्बर, 1960 को कराची में भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अय्यूब खान ने इस संधि पर हस्ताक्षर किए थे।

इस समझौते के अनुसार, तीन पूर्वी नदियों (ब्यास, रावी और सतलुज) पर नियंत्रण करने का अधिकार भारत को दिया गया, जबकि तीन पश्चिमी नदियों (सिंधु, चिनाव और झेलम) का नियंत्रण पाकिस्तान को दिया गया है। इस जल बंटवारे के जरिये भारत के जम्मू एवं कश्मीर राज्य को सिंचाई के लिए बहुत थोड़ी मात्रा में पानी दिया गया, जबकि यह संधि पाकिस्तान के सिंधु नदी बेसिन की 80 फीसदी भूमि को सिंचित करने के लिए पर्याप्त पानी मुहैया कराती है। संधि भारत को सिंचाई, परिवहन और बिजली उत्पादन की अनुमति देती है, जबकि नदी परियोजनाओं के निर्माण के लिए स्पष्ट नियम-कायदे तय हैं।



पाकिस्तान पूरी तरह से सिंधु नदी के पानी पर निर्भर है, जबकि भारत के पास जल स्रोतों के कई विकल्प मौजूद हैं। सिंधु का पानी पाकिस्तान की 90 फीसदी खेती के काम आता है, जिससे वहां के 42.3 फीसदी लोगों की आजीविका चलती है। पाकिस्तान में गरीबी उन्मूलन सीधे तौर पर सिंधु जल के उचित बंटवारे और उपयोग से जुड़ा मामला है।

भारत में पानी के अधिकार को सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित जीवन के अधिकार के तहत मूल अधिकार के तौर पर संरक्षित किया है। अपनी राष्ट्रीय सीमाओं के बाहर भी भारत को इसी तरह का आचरण करना होगा। इसे सामरिक भावना से नहीं जोड़कर नहीं देखा जा सकता है। इसके अलावा, भारत की राष्ट्रीय जल नीति भी साझा जल संसाधनों पर राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखते हुए पड़ोसी देशों के साथ बातचीत का रास्ता अपनाने पर ही जोर देती है।

इस संदर्भ में देखा जाए तो, सिंधु जल संधि के जरिये जल को एक सामरिक हथियार मानना न तो तर्कसंगत है और न ही उचित।

“नदियों काे एक बड़े पारिस्थिकी तंत्र के रूप में देखना चाहिए। यह करोड़ों लोगों के जीवन का आधार हैं”

कूटनीति की कला आपसी हित के मुद्दों पर सहयोग से काम करने पर जोर देती है। अक्सर उपयोग की जाने वाली शब्दावली “जल विवाद” ने हाल ही के कूटनीति की कला आपसी हितों वाले मुद्दों को असहमतियों को दरकिनार कर हल करने पर जोर देती है। सिंधु जल संधि तोड़ने को लेकर पैदा हालिया विवाद ने अक्सर इस्तेमाल होने वाली शब्दावली “वाटर डिप्लोमेसी” की तरफ ध्यान खींचा है। हालांकि, वाटर डिप्लोमेसी को दो देशों के बीच विश्वास बहाली की प्रक्रिया के तौर पर देखा जा सकता है, लेकिन यह उत्तेजक तनाव का साधन भी बन सकती है।

सिंधु जल संधि को लेकर विवाद खड़ा करना एक दुधारी तलवार जैसा साबित हो सकता है। इसके लिए कश्मीर के लोगों और विभिन्न पक्षों को साथ में लेना पड़ेगा। जम्मू एवं कश्मीर विधान सभा के सदस्यों ने हाल ही में इस संधि के पुनः मूल्यांकन का प्रस्ताव पारित किया है।

कूटनीति की कला में परंपराओं का बड़ा महत्व है। भारत सिंधु नदी का ऊपरी इलाका न होकर, बीच का क्षेत्र है। इसके पानी को सामरिक हथियार के तौर पर इस्ते माल करना चीन को गलत संदेश देगा, जहां से यह नदी निकलती है। इससे नदी के निचले इलाकों में बसे बांग्लादेश जैसे देशों में असुरक्षा की भावना पैदा हो जाएगी। इसके अलावा, संस्थागत व्यवस्था का सम्मान न करना भारत द्वारा अब तक अपनाई गई रणनीति के खिलाफ होगा। पड़ोसी देश के साथ कूटनीति से कुछ समय के लिए समझौता किया जा सकता है लेकिन इससे भारत की एक जिम्मेदार शक्ति की छवि लंबे समय के लिए प्रभावित होगी।

नदी को एक पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा न मानकर राजनीति का साधन मानने से उतना फायदा नहीं होगा, जितना नुकसान हो जाएगा। बल्कि अफगानिस्तान और चीन को शामिल कर सिंधु बेसिन की परिभाषा का विस्तार संवाद के दायरे को बढ़ाने में मददगार साबित हो सकता है। चीन और अफगानिस्तान दोनों अहम पक्ष हैं। चीन तिब्बत में वनों की अंधाधुंध कटाई के लिए जिम्मेदार है जबकि काबुल नदी सिंधु की एक महत्वपूर्ण सहायक नदी है। इन मुद्दों पर बातचीत की शर्तों को लेकर विचार-विमर्श होना चाहिए। भारत और पाकिस्तान भूजल के गंभीर संकट के गवाह रहे हैं।

भूजल का अत्यधिक दोहन व प्रदूषण, भारत और पाकिस्तान दोनों तरफ के पंजाब में, लोगों के स्वास्थ्य के लिए खतरा बन गया है। इससे पहले कि पानी दोनों देशों के बीच गलतफहमी का स्रोत बने और पानी की राजनीति गरीबी, बेरोजगारी और शासन से जुड़े मुद्दों से ध्यान हटाने वाली बहस बन जाए, पानी को राजनीति से अलग करना होगा। इस बहस को पर्यावरण प्रबंधन और पानी के प्राकृतिक प्रवाह से जोड़कर देखना एक रास्ता हो सकता है, जिससे आगे चलकर दोनों देशों के कूटनीतिक संबंधों के मिजाज में बदलाव आ सकता है।

“ऐसे तो भारत वास्तव में पाकिस्तान की ही मदद करेगा”

क्या भारत सिंधु जल संधि को तोड़ सकता है? संधि में खत्म करने का कोई प्रावधान नहीं है। दिलचस्प बात है कि संधि की कोई समय सीमा भी नहीं है। यह संधि सिर्फ विवाद के समाधान का तंत्र प्रदान करती है। इसके अनुसार, “इस संधि की व्याख्या या क्रियान्ववयन अथवा किसी अन्यं मुद्दे पर मतभेद अगर साबित हो जाते हैं तो इसे संधि का उल्लंंघन माना जा सकता है। एक आयोग ऐसे मामलों पर विचार करता है। इसलिए, भारत को सबसे पहले सिंधु जल संधि तोड़ने के अपने इरादे अथवा इसके पुनः मूल्यांकन के बारे में संधि की निगरानी कर रहे आयुक्तों को औपचारिक रूप से सूचित करना होगा। भारत की दलीलों से पाकिस्तान शायद ही सहमत हो। यदि ऐसा होता है तो संधि के प्रावधानों के तहत एक तटस्थ विशेषज्ञ निर्णय करेगा कि क्या इस मामले को तकनीकी रूप से हल किया जा सकता है या फिर इसे विवाद माना जाए। दोनों की सहमति अथवा यदि किसी एक पक्ष को लगे कि दूसरा पक्ष अनावश्यक रूप से प्रक्रिया को लटका रहा है, तब यह विवाद आबिट्रेशन (मध्यस्थ) में जाएगा। आबिट्रेशन कोर्ट में सात सदस्य होते हैं, दो प्रत्येक देश द्वारा चुने हुए जाते हैं और तीन तटस्थ सदस्यग दोनों देशों द्वारा सुझाए एक पैनल से लिए जाते हैं। जरूरी नहीं कि इस अदालत का फैसला भारत के पक्ष में आए। इस प्रक्रिया में कई वर्ष लग सकते हैं। निश्चित तौर, भारत को मुआवजा देने के लिए कहा जाएगा। संभवत: यह राशि बहुत बड़ी होगी। याद रखिए, भारत ने इस संधि में शामिल होने के लिए पाकिस्तान को काफी भुगतान किया था। यह पैसा पाकिस्तान में नहरों की व्यंवस्था को दुरुस्ति करने के लिए दिया गया था।
अगर मान भी लें कि भारत प्रक्रिया के जरिये अथवा इसका पालन किए बगैर एकतरफा इस जल संधि के हाथ खींच लेता है। तब क्या भारत अपने मकसद में कामयाब हो पाएगा? क्या सीमा पार से भारत में आतंकवादियों की घुसपैठ रूक जाएगी?

भारत के पास दो विकल्प हैं। पहला, पश्चिमी नदियों (सिंधु, झेलम और चिनाव) का पानी रोक देना। क्या यह संभव है? हां, किंतु पानी के बहाव को रोकने या इसका रूख बदलने के लिए बांध, नहरें आदि बनाने में काफी समय लगेगा। इस पर भारी खर्च आएगा। अगर ऐसा हो भी गया तो, रोके गए पानी का हम क्या करेंगे? इसे कहां ले जाएंगे? अब नहरों की पूरा व्यवस्थाा ही बदल चुकी है। इसलिए रोके गए पानी का उपयोग करना और इसके जरिये पाकिस्तान के आर्थिक हितों को नुकसान पहुंचाना मुश्किल है। इससे थोड़ा-बहुत नुकसान तो पहुंचाया जा सकता है लेकिन क्या इससे सीमा पार से हो रहे हमलों और आतंकवाद पर रोक लग सकेगी?
दूसरा, भारत उत्तरी नदियों (रावी, ब्यास एवं सतलुज) से पानी छोड़कर पाकिस्तान में बाढ़ ला सकता है। क्या हम ऐसा कर सकते हैं? यदि यह पानी छोड़ा जाता है, तो पंजाब की सिंचाई बुरी तरह से प्रभावित होगी। इस परिदृश्य में, यह भी सुनिश्चित नहीं है कि पाकिस्तान को कितना आर्थिक नुकसान होगा और भारत को कितना।

इसके अलावा, इस कदम से भारत की अंतरराष्ट्रीय साख पर भी बुरा असर पड़ेगा। किसी भी तरीके से नदी के बहाव को बदलना बाढ़ का कारण बनेगा। वहीं दूसरी तरफ, यह कदम अंतरराष्ट्रीय निंदा को न्यौता दे सकता है। इससे भारत की एक जिम्मेदार लोकतंत्र की अंतरराष्ट्रीय छवि बुरी तरह प्रभावित हो सकती है। क्या भारत को एक ऐसा मुद्दा उठाना चाहिए जिसके बारे में कुछ भी सुनिश्चित नहीं है? हो सकता है, भारत सरकार के पास कोई स्पष्ट रणनीति हो, जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं। लेकिन पाकिस्तान पर नकेल कसने के हथियार के तौर पर सिंधु जल संधि का मुद्दा उठाकर भारत एक अनजान राह की ओर बढ़ रहा है। ऐसा कर भारत अपनी स्थिति मजबूत करने के बजाय पाकिस्तान को अधिक मदद करता दिखाई पड़ रहा है।

“यह जल आतंकवाद है”

किसी संधि या समझौते के बगैर भी अंतरराष्ट्रीय जल का प्रवाह रोकना, इसे धीमा करना अथवा कट्टर राष्ट्रवाद के लिए इसका उपयोग या दुरुपयोग करना अतंरराष्ट्रीय मर्यादा का सरासर उल्लंघन है। यह बर्बर रूख ‘जल आतंकवाद’ से कम नहीं है। इसके लिए पीड़ित देश अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है। इस संदर्भ में विधि विशेषज्ञ और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता ए.जी. नूरानी ने रेखांकित किया है, “कोई अंतरराष्ट्रीय नदी पहले जहां से गुजरती है, उन देशों को अब इसके जल पर असीमित अधिकार प्राप्त नहीं हैं। ऐसे देश नदी जल के उपयोग के बारे में निर्णय लेते समय निचले इलाकों के हितों को ध्यान रखने के लिए बाध्य हैं।
उल्लेखनीय है कि भारत के कर्नाटक और तमिलनाडु राज्यों के बीच कावेरी नदी के जल बंटवारे का विवाद अभी तक नहीं सुलझा है, जिससे कानून-व्यवस्था की समस्या खड़ी हो गई, आर्थिक नुकसान हुआ और इन राज्यों में हालात बिगड़ गए। एक राज्य द्वारा नदी जल के मनमाने इस्तेमाल को दूसरे राज्य ने स्वीकार नहीं किया और सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा।

खुद जम्मू और कश्मीर भी अपने पानी से बनने वाली बिजली बंटवारे के मामले में भारत के जबरन पक्षपात से पीड़ित है। जम्मू-कश्मीर की नदियों के सारे फायदे भारत झपट लेता है और सिर्फ 12 फीसदी बिजली राज्य को मिलती है। भारत का यह अन्याय जम्मू-कश्मीर को ऊर्जा से वंचित कर देता है। घरेलू जरूरतों के अलावा भीषण सर्दियों में कृषि, बागवानी, उद्योग-धंधों, व्यापार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों को बिजली की किल्लत का सामना करना पड़ता है। हैरानी और दुर्भाग्य की बात है कि भारत यह सब क्यों कर रहा है? अपने ‘अटूट अंग’ के साथ वह किस तरह के संबंध रखना चाहता है? भारत क्या जम्मू-कश्मीर के साथ पाकिस्तान जैसा बर्ताव नहीं कर रहा है?

और अब सियाचिन...

ग्लेशियर पिघटने के साथ बदल सकती है भारत और पाकिस्तान के बीच दुनिया के सबसे दुर्गम युद्ध क्षेत्र की सामरिक भूमिका 

सियाचिन ग्लेशियर को दुनिया के सबसे ऊंचे युद्ध के मैदान के रूप में जाना जाता है। लंबे समय से यह पाकिस्तान और भारत के बीच सैन्य संघर्ष की धुरी रहा है। जब से भारत के सशस्त्र बलों ने सालतोरो चोटी और 1984 में काराकोरम पर्वत शृंखला में गुजरने वाले कम से कम तीन पहाड़ों को अपने कब्जे में ले लिया है तब से यह दुर्गम क्षेत्र दोनों देशों की उच्च सैन्य इकाइयों की तैनाती के साथ एक सामरिक हॉटस्पॉट बन गया है। इस लंबी लड़ाई में सबसे बड़ा प्राकृतिक जोखिम हैः ग्लेशियर का पिघलना। वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि सियाचिन ग्लेशियर पिघल रहा है। इस बारे में श्रीशन वेंकटेश ने विदेश और सामरिक मामलों के विशेषज्ञों से जाना कि पिघलते ग्लेशियर दोनों देशों के भू-राजनैतिक संबंधों को कैसे प्रभावित कर सकते हैं

गोपालस्वामी पार्थसारथी, पूर्व राजदूत और एक सुरक्षा विशेषज्ञ: निस्संदेह यह सच है कि सियाचिन ग्लेशियर का पिघलना एक पारिस्थितिकी एवं पर्यावरणीय आपदा है। क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिग निश्चित ही चिंता का विषय हैं। लेकिन सियाचिन ग्लेशियर के पिघलने से इस क्षेत्र में भारत की रणनीतिक उपस्थिति या भारत-पाकिस्तान संबंधों पर बहुत असर पड़ने वाला नहीं है। सामरिक दृष्टि से सियाचिन ग्लेशियर का महत्व कमोबेश अकादमिक है। मैं कहना चाहूंगा कि सियाचिन ग्लेशियर के पश्चिम में सालतोरो पर्वत श्रेणी इस लिहाज से अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह पश्चिम में पाकिस्तान और पूर्व में चीन के बीच की विभाजन रेखा का काम करती है। सियाचिन ग्लेशियर के पिघलने से ज्यादा सालतोरो रेंज में सैन्य मौजूदगी कम होने का रणनीतिक असर भारत-पाक संबंधों पर अधिक पड़ेगा।


मनोज जोशी, आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशनः लगता नहीं कि ग्लेशियर का पिघलना भारत-पाक संबंधों को प्रभावित करेगा। हालांकि, पाकिस्तान सियाचिन के आसपास हिमालय ग्लेशियर पिघटने के लिए इस क्षेत्र में भारत की सैन्य उपस्थिति पर उंगली उठाता रहा है। लेकिन ग्लेशियर पिघलने के बावजूद सालतोरो रेंज और सियाचिन में भारत के सैनिकों की उपस्थिति बनी रहने के आसार हैं। नुबरा और सिंधु नदियों में पानी का एक बहुत बड़ा हिस्सा इन ग्लेशियरों से आता है, और इनके पिघलने के भयानक परिणाम होंगे, खासकर पाकिस्तान पर। फिर भी रणनीतिक तौर पर ग्लेशियर के पिघलने से कोई बड़ा असर पड़ने की उम्मीद कम है। सियाचिन जैसी कठिन परिस्थितियों में सैन्य उपस्थिति एक बड़ा जोखिम है, लेकिन यह भी देखना चाहिए कि लगातार हिमस्खलन और प्रतिकूल परिस्थितियां सिर्फ सियाचिन तक सीमित नहीं हैं। कई ऊंचे सीमावर्ती क्षेत्रों में भी इसी प्रकार की स्थितियां हैं। निस्संदेह, सियाचिन से सैनिकों का हटना एक आदर्श विकल्प होगा, जिससे दोनों तरफ होने वाली जान-माल की क्षति थम सकेगी। लेकिन फिलहाल ऐसा होता दिखाई नहीं पड़ रहा है।

अनिमेष रॉल, सोसाइटी फॉर द स्टडी ऑफ पीस एंड कॉन्फ्लिक्टः दोनों पक्षों की ओर से सशस्त्र बलों की उपस्थिति ग्लेशियरों के लिए भारी पर्यावरणीय नुकसान है। सियाचिन ग्लेशियर पर अपनी मजबूत किलेबंदी के कथित रणनीतिक लाभ के अलावा यह क्षेत्र भारत व पाकिस्तान के लिए शुद्ध पानी का प्रमुख स्रोत है। रिमो नाम के एक सहायक हिमनद के साथ सियाचिन ग्लेशियर नुबरा, श्योक और आखिर में सिंधु नदी में पानी पहुंचाता है। विवादास्पद सवाल यह है कि सियाचिन में ग्लेशियर पिघल गए तो क्या होगा? यह एक ऐसी आशंका है कि जो पहले पिघल रहे ग्लेशियरों और अचानक बाढ़ व भूस्खलन के खतरे को देखते हुए की जा रही है। पहले भी सियाचिन से सैनिकों को हटाने के लिए कई बार प्रयास हुए, जो नकाम रहे। कई लोगों का तर्क है कि इस क्षेत्र को एक शांति पार्क में बदल देना चाहिए या फिर यहां भौगोलिक एवं हिमनद अध्ययन के लिए एक वैज्ञानिक शोध केंद्र की स्थापना की जाए, जिसका फायदा दोनों देशों को मिले। क्षेत्र में व्यापक सैन्य उपस्थिति के चलते पर्यावरण को हो रहे नुकसान को देखते हुए दोनों देशों को आगे आकर समझना चाहिए कि सियाचिन किसी का नहीं है। सियाचिन ग्लेशियर के समृद्ध एवं विविधता से भरपूर संसाधनों खासकर पानी का फायदा लेने के लिए मिलजुलकर प्रयास करने होंगे।

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