पुणे में 5.72 फीसदी मौतों के लिए जिम्मेवार था ठंड का कहर, लू से ज्यादा लोगों की ले रहा है जान

यही स्थिति पूरे देश की भी है, जहां लू की तुलना में ठण्ड की वजह से कहीं ज्यादा लोगों की जान जा रही है

By Lalit Maurya

On: Thursday 06 January 2022
 

पुणे में तापमान और मृत्युदर के संबंध को लेकर किंग अब्दुल्ला यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी द्वारा किए एक अध्ययन से पता चला है कि ठंड का कहर लू और गर्मी से कहीं ज्यादा लोगों की जान ले रही है। शोध के अनुसार जहां पुणे में हुई कुल मौतों में से 5.72 फीसदी के लिए ठण्ड का कहर जिम्मेवार था। वहीं लू और गर्मी के चलते 0.84 फीसदी लोगों की जान गई थी। इस तरह पुणे में होने वाली कुल 6.5 फीसदी मौतों के लिए चरम मौसम जिम्मेवार था। 

अपने इस शोध में शोधकर्ताओं ने जनवरी 2004 से दिसंबर 2012 के आंकड़ों को शामिल किया है। जिसमें उन्होंने हर दिन के औसत तापमान और रोजाना होने वाली मौतों के आंकड़ों का विश्लेषण किया है। इन आंकड़ों में मरने वालों की उम्र या उनके व्यवसाय के बारे में बहुत सीमित जानकारी उपलब्ध थी। इसलिए विश्लेषण में मरने वालों के लिंग को आधार बनाया गया था।

वहीं यदि पूरे देश की बात करें तो इस अवधि में होने वाली करीब 6.83 फीसदी मौतों के लिए ठंड जबकि  0.49 फीसदी मौतों के लिए गर्मी का कहर जिम्मेवार था। 

महिलाओं की तुलना में कहीं ज्यादा पुरुषों की जान ले रही हैं शीत लहर

इस विश्लेषण से हैरान कर देने वाले नतीजे सामने आए थे, जिसके अनुसार पुरुष, महिलाओं की तुलना में ठंड या गर्मी के प्रति कहीं अधिक संवेदनशील थे। अनुमान है कि तापमान की इन विषम दशाओं के चलते जहां 7.37 फीसदी पुरुषों की मृत्यु हुई थी वहीं महिलाओं में यह आंकड़ा 5.72 फीसदी था।

इंगोले के अनुसार विकसित दुनिया के अधिकांश अध्ययन महिलाओं को पुरुषों की तुलना में अधिक कमजोर मानते हैं। ऐसे में उन्होंने पुणे में खुले में काम करने वाले प्रवासी श्रमिकों पर सामाजिक-आर्थिक कारकों को लेकर आगे के अध्ययन की वकालत की है।    

हालांकि जो निष्कर्ष सामने आए हैं वो जलवायु परिवर्तन को लेकर जारी चेतावनियों के विपरीत हैं, क्योंकि जिस तरह से तापमान में वृद्धि हो रही है उसके चलते यह अनुमान था कि गर्मी और लू कहीं ज्यादा लोगों की जान ले सकती है। हालांकि निष्कर्ष से इतना तो स्पष्ट है कि जिस तरह जलवायु में बदलाव आ रहे हैं, उसके चलते मौसम का कहर बढ़ता जा रहा है। 

इस बारे में डाउन टू अर्थ में छपी एक अन्य रिपोर्ट के हवाले से पता चला है कि देश में 2020 के दौरान शीत लहर ने लू की तुलना में 76 गुना ज्यादा जानें ली थी। इसी तरह 2017 से 2020 के बीच, जिन दिनों में शीत-लहर का प्रकोप था उनमें लगभग 2.7 गुना वृद्धि दर्ज की गई थी।

आईएमडी द्वारा जारी आंकड़ों से पता चला है कि देश में 2020 के दौरान 99 दिनों तक शीत-लहर दर्ज की गई थी। रिपोर्ट के मुताबिक 2017 के बाद से शीत-लहर वाले दिनों की तादाद साल दर साल लगातार बढ़ रही है। जहां 2018 में ऐसे दिनों की संख्या 63 थी, वो 2019 में डेढ़ गुना बढ़कर 103 हो गई थी।    

इस बारे में जानकारी देते हुए इस शोध और किंग अब्दुल्ला यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी से जुड़े शोधकर्ता विजेंद्र इंगोले ने जानकारी दी है कि भारत में अधिकांश अध्ययन और चेतावनी प्रणाली लू पर केंद्रित है। बेशक इसमें कोई शक नहीं की लू एक बड़ी समस्या है, जो बड़ी संख्या में लोगों को मार रही है। पर उसकी तुलना में ठंड और शीत लहर कहीं ज्यादा लोगों की जान ले रही है। ऐसे में आपदा को लेकर बनाए जाने वाली रणनीतियों में इसपर भी विशेष ध्यान देने की जरुरत है।    

वहीं बढ़ता तापमान किस तरह से भविष्य में लोगों के जीवन को नुकसान पहुंचा सकता है, इस बारे में शोध का कहना है कि जिस तरह से तापमान में वृद्धि हो रही है, उसके चलते गर्मी से होने वाली मौतों में तेजी से वृद्धि हो सकती है, जबकि ठंड से होने वाली मौतों का जोखिम धीरे-धीरे कम होता जाएगा। यह शोध जर्नल एनवायर्नमेंटल रिसर्च में प्रकाशित हुआ है। 

देखा जाए तो ठंड और लू के कारण होने वाली मौतों को टाला जा सकता है, बस इसके लिए सही नीतियों और स्थानीय स्तर पर उठाए गए कदम महत्वपूर्ण हैं, जिनपर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि चाहे अमीर हो या गरीब हर किसी का जीवन महत्वपूर्ण होता है, जिसे बचाना न केवल सरकार बल्कि हर किसी की जिम्मेवारी है। 

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