चौमास कथा: कहीं खत्म न हो जाए मानसून का पारंपरिक ज्ञान

कई बार मौसम वैज्ञानिकों के पूर्वानुमान गलत हुए लेकिन पारपंरिक ज्ञान खरे उतरे हैं

By Raju Sajwan

On: Monday 19 September 2022
 
पेंटिंग्स: योगेन्द्र आनंद

ह मारे लिए मानसून जितना जरूरी है, उससे भी ज्यादा जरूरी है मानसून का पूर्वानुमान यानी भविष्यवाणी। जून से शुरू होने वाले मानसून के पूर्वानुमान की घोषणा लगभग एक माह पहले भारतीय मौसम विज्ञान विभाग द्वारा की जाती है। इस पूर्वानुमान का इंतजार पूरे देश को रहता है। क्योंकि इससे अनुमान लगाया जाता है कि देश की अर्थव्यवस्था कैसी रहेगी? वजह यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि पर आधरित है और देश की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि की हिस्सेदारी 18 फीसदी के आसपास है और अगर आबादी की बात करें तो लगभग 70 फीसदी आबादी भी कृषि पर निर्भर करती है। चूंकि देश में लगभग 56 प्रतिशत कृषि भूमि सिंचाई के लिए पूरी तरह से बारिश पर निर्भर रहती है और देश में साल भर में होने वाली कुल बारिश में से 70 प्रतिशत बारिश मानसून के दौरान होती है, इसलिए मानसून का इंतजार हर किसी को रहता है। पूर्वानुमान के आधार पर केंद्र व राज्य सरकारें अपनी नीतियां बनाती हैं। किसान अपने साल भर की योजना बनाता है और व्यापारी किसान से होने वाली आमदनी का लेखाजोखा तैयार करता है। लेकिन इसके लिए बहुत जरूरी है कि मानसून की भविष्यवाणी सटीक हो। बहुत बार मौसम विज्ञान विभाग की भविष्यवाणी सटीक नहीं रहती तो लोगों का भराेसा पारंपरिक तरीकांे से की जाने वाली भविष्यवाणी के प्रति बढ़ जाता है। और आदिम काल के ये तारीके अभी भी कारगर साबित होते हैं।

दरअसल, जब विज्ञान नहीं था, तब भी जीवन था। मानसून का इतिहास ही 8 करोड़ साल पुराना है। तब हमारे पूर्वज बादल, हवा, सूरज, कीट पतंगों, जीव-जंतुओं के व्यवहार से अनुमान लगाते थे कि कब बारिश होगी। बारिश होगी तो कितनी होगी। छठी शताब्दी में उज्जैन के आचार्य वराहमिहिर द्वारा संस्कृत में लिखे गए विश्व कोष बृहत्संहिता की एक पंक्ति है, “आदित्यत जयति वृष्टि”, जिसका मतलब है कि सूरज ही बारिश को जन्म देता है। प्राचीन भारत में बारिश का अनुमान लगाते वक्त भविष्यवक्ता और गणितज्ञ वराहमिहिर की इस पंक्ति को आधार बनाया जाता था। उपग्रहों द्वारा पृथ्वी का नक्शा बनाने से बहुत पहले, मौसम की भविष्यवाणी ऐसे ही कई प्राचीन ग्रंथों और स्थानीय ज्ञान में दी गई जानकारी के आधार पर की जाती थी। इसकी पुष्टि करने के लिए कई उदाहरण हैं। सात सौ से तीन सौ ईसा पूर्व के दौरान रचित उपनिषदों में बादल बनने पर चर्चा होती थी।

दसवीं-ग्यारहवीं सदी के सौराष्ट्र क्षेत्र के विद्वान, भडाली ने बारिश के मौसम संबंधी दस संकेतकों - बादल, हवाओं, बिजली, आकाश के रंग, गड़गड़ाहट, गड़गड़ाहट, ओस, बर्फ, इंद्रधनुष और सूर्य-चंद्रमा के चारों ओर परिक्रमा पर गीत लिखे थे। भडाली के एक गाने में कहा गया है- “अगर होली के दिन हवा उत्तर और पश्चिम से आती है तो उस साल तेज बारिश होगी। जब हवा पूर्व से आती है, तो उस साल सूखा रहेगा।” भडाली ने अक्षय तृतीया पर हवा और बारिश के मौसम की शुरुआत के बीच भी एकसमान संबंध बताया था।

सौराष्ट्र के किसान अभी भी मौसम के दीर्घकालिक पूर्वानुमानों के लिए भडाली के गीतों का इस्तेमाल करते हैं और पाया गया है कि उनके अनुमान काफी हद तक सही साबित होते रहे हैं। जूनागढ़ कृषि विश्वविद्यालय (जेएयू), गुजरात के कृषि विस्तार विभाग ने इस पर अध्ययन किया और पाया कि वर्ष 1990 में भारतीय मौसम विज्ञान विभाग ने पूर्वानुमान लगाया था कि उस साल देश में सामान्य बारिश होगी, लेकिन सौराष्ट्र में अगस्त के मध्य तक बिल्कुल बारिश नहीं हुई। जबकि भडाली का एक दोहा सच साबित हुआ, जिसमें कहा गया था, अगर ज्येष्ठ के दूसरे दिन (मई के दूसरे भाग में शुरू होने वाला हिंदू महीना) बिजली और बादलों के साथ बारिश होती है, तो 72 दिनों तक बारिश नहीं होगी। उस साल सौराष्ट्र में चार जून को बारिश हुई और उसके बाद 72 दिन सूखा रहा, फिर 15 अगस्त को बारिश हुई। ठीक उसी दिन, जैसा कि भडाली का पूर्वानुमान था।

मौसम का पूर्वानुमान लगाने के पारंपरिक तरीकों के प्रति अब वैज्ञानिकों, प्रोफेसरों और कृषि- विज्ञानियों की रुचि बढ़ रही है। और पिछले दो दशक के दौरान कई शोध भी प्रकाशित हुए हैं। जिनमें पारंपरिक भविष्यवाणियों और संकेतकों का अध्ययन किया गया है। जैसे कि 2011 में इंडियन जर्नल ऑफ ट्रेडिशनल नॉलेज में प्रकाशित एक पेपर में बारिश के 25 जैव-संकेतकों की सूची दी गई थी। इस सूची में शामिल कुछ संकेत हैं- मानसून की शुरुआत से ठीक 45 दिन पहले कैसिया फिस्टुला (गोल्डन शावर ट्री) खिलने लगता है। बारिश से ठीक पहले पक्षी असामान्य रूप से चहकते हैं या रेत में नहाते हैं। मेंढक दलदली इलाकों के पास रेंगते हैं या बारिश से पहले अपने अंडे छिपाने लगते हैं। इसी तरह का एक अध्ययन साइंस डोमिन इंटरनेशनल में अगस्त 2015 में प्रकाशित हुआ। वेदर फॉरकास्टिंग: ट्रेडशिनल नॉलेज ऑफ पीपल ऑफ उत्तराखंड हिमालय नाम के इस अध्ययन में उत्तराखंड के कुछ इलाकों में प्रचलित संकेतकों का विश्लेषण किया गया।

पेंटिंग्स: योगेन्द्र आनंदइसमें पौधों के खिलने, बादल के रंग और पैटर्न, नमी, सूर्य और चंद्रमा के आसपास के दृश्य, इंसानों में आ रहे बदलाव, तारामंडल और कीड़ों के व्यवहार को देखते हुए मौसम के पूर्वानुमान के बारे में लोगों में प्रचलित बातों का जिक्र किया गया है। पेपर के मुताबिक, स्थानीय लोगों की मान्यता है कि सुबह यदि आसमान लाल है तो बारिश होगी, लेकिन यदि शाम को आसमान लाल होगा तो बारिश नहीं होगी। अगर बादल काले हैं तो बहुत तेज बारिश होगी। मिट्टी आसानी से हाथ से उखड़ जाए तो मौसम शुष्क रहेगा। उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में इंसान के शरीर में आ रहे परिवर्तन को भी बारिश का संकेत माना जाता है। जैसे कि गठिया या हड्डी रोगियों के जोड़ों में दर्द बढ़ जाता है तो अनुमान लगाया जाता है कि बारिश आने वाली है। चंद्रमा और सूर्य के चारों ओर हल्की रोशनी दिखने पर स्थानीय लोग मानते हैं कि अगले दो या तीन दिन में बारिश होने वाली है। दिलचस्प बात यह है कि स्थानीय लोगों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले हुक्के के चारों ओर नमी दिखने पर लोग भारी उमस के साथ बारिश होने का अनुमान लगाते हैं।

आदिवासियों तक विज्ञान की पहुंच बहुत कम है। उन तक मौसम विज्ञान विभाग के पूर्वानुमान की सूचना नहीं पहुंच पाती। इसलिए वे अपने परंपरागत तरीकों का इस्तेमाल करके मानसून का अनुमान लगाते हैं। बिहार के गया जिले के फतेहपुर के मुंडा समुदाय के आदिवासी बारिश के बारे में जानने के लिए घड़े का इस्तेमाल करते हैं। वे लोग अप्रैल के महीने में नए घड़े में पानी डालते हैं और उसमें एक लकड़ी को खड़ा कर देते हैं। लकड़ी सीधी खड़े रहे, इसलिए दोनों तरफ दो लकड़ियां घड़े के ऊपर रखते हैं। लकड़ी जहां तक डूबी रहती है, वहां एक निशान लगा दिया जाता है। अगर घड़े का पानी लकड़ी में लगे निशान से नीचे चला जाता है तो इसका मतलब है कि बारिश कम होगी। वहीं अगर पानी ज्यों का त्यों रहा, तो इससे आदिवासी ये अनुमान लगाते हैं कि बारिश ठीक-ठाक होगी।

जयपुर में हर साल वरिष्ठ ज्योतिषाचार्यों का एक समूह यहां 1734 में बने प्राचीन वेधशाला- जंतर मंतर पर इकट्ठा होते हैं। इस सभा में तय होता है कि साल में मानसून की बारिश कैसी होगी। इस साल भी आषाढ़ पूर्णिमा के दिन 13 जुलाई 2022 को ज्योतिषाचार्यों की एक सभा बुलाई गई। सूर्यास्त के वक्त 7 बजकर 19 मिनट में एक झंडा लेकर ज्योतिषाचार्यों का यह दल वेदशाला में लगभग 105 फुट ऊंचे सम्राट यंत्र पर पहुंचे और वहां झंडे की मदद से वायु परीक्षण किया। जंतर-मंतर के अधीक्षक मोहम्मद आरिफ बताते हैं कि हवा का रुख उत्तर की तरफ था, जिससे अनुमान लगाया गया कि मानसून अच्छा रहने वाला है। इस यंत्र के माध्यम से केवल जयपुर व उसके आसपास लगभग 100 किलोमीटर क्षेत्र का ही अनुमान लगाया जाता है। अनुमान है कि कहीं-कहीं खंडीय वर्षा होगी, लेकिन कुल मिलाकर मानसून जयपुर और आसपास के ग्रामीण इलाकों के लिए अच्छा रहने वाला है। हालांकि उन्होंने कहा कि अभी तक जयपुर में अच्छी बारिश नहीं हुई है, लेकिन मौसम विभाग का भी अनुमान है कि 26 जुलाई के बाद यहां अच्छी बारिश होगी। आरिफ कहते हैं कि मानसून का अनुमान लगाने का काम राजा सवाई जय सिंह के समय से ही हो रहा है। ज्योतिष विज्ञान में वर्षा भी एक भाग है। उसमें कार्तिक शुदा प्रतिपदा (नवंबर से जून तक) का समय वर्षा का गर्भाधान काल कहलाता है। ज्योतिषाचार्य इस आठ माह के काल के योग को हवा के रुख से जोड़कर परिणाम निकालते हैं। जो लगभग सही रहता है। आरिफ कहते हैं कि वे पिछले पांच-छह साल से खुद इसका आकलन कर रहे हैं, जो 99 प्रतिशत तक सही रहा है।

मौसम की भविष्यवाणी का काम हिंदू ज्योतिषीय पंचांगों में किया जाता है। इसके लिए बकायदा एक फार्मूले पर काम किया जाता है। जैसे कि - पंचांग की नौ तरह की बादलों की सूची में शामिल नीलम और वरुणम बादल तेज बारिश लाने वाले माने जाते हैं जबकि कालम और पुष्करम से हल्की बारिश की संभावना होती है। पंचांगों में बादलों की श्रेणियां, आधुनिक श्रेणियों के जैसी ही हैं। हालांकि इसका ठोस अनुमान नहीं है कि देश मंे कितने पंचांग निकलते हैं, लेकिन कई पारंपरिक पंचांगों की मान्यता बहुत अधिक है। इनमें काशी से निकलने वाले हृषिकेश पंचांग, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से प्रकाशित विश्व पंचांग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय से प्रकाशित पंचांग प्रमुख हैं। दरअसल पंचांग के चक्र को खगोलकीय तत्वों से जोड़ा जाता है। बारह मास का एक वर्ष और 7 दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से शुरू होता है। महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पर रखा जाता है। पंचांग नाम पांच प्रमुख भागों से बने होने के कारण है, यह है- तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण।

पंचांग में आर्द्रा, आश्लेषा, उत्तराभाद्रपद, पुष्य, शतभिषा, पूर्वाषाढ़ा और मूल नक्षत्रों को जल का नक्षत्र माना जाता है और इन्हीं नक्षत्रों में कुछ विशेष ग्रहों के योग होने से बारिश की भविष्यवाणी की जाती है। जब सूर्य पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में प्रवेश करता है और तब यदि आकाश में बादल छाए हुए हो तो रोजाना बारिश हो सकती है। लेकिन यदि सूर्य रेवती नक्षत्र में प्रवेश कर रहा होता है तो उस अवधि में अगर वर्षा हो जाती है तो उससे दस नक्षत्र आगे यानी रेवती से अश्लेषा तक वर्षा न होने के संकेत मिलते हैं। मानसून की भविष्यवाणी करते वक्त नवग्रहों की भी भूमिका देखी जाती है। जैसे कि बुध और शुक्र किसी भी राशि में एक साथ होते हों और उन पर गुरु बृहस्पति की दृष्टि हो तो इसका मतलब है कि अच्छी बारिश हो सकती है। लेकिन अगर इस वक्त शनि या मंगल जैसा कोई उग्र ग्रह अपनी दृष्टि डाल दे तो बारिश होने की उम्मीद बहुत कम रह जाती है।

जलवायु परिवर्तन बनी चुनौती

वैज्ञानिक या विज्ञान पर भरोसा करने वाले लोग पंचांग और परंपराओं के आधार पर बारिश या मौसम की भविष्यवाणयों को सिरे से नकार देते हैं। परंतु लाल बहादुर राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय से प्रकाशित पंचांग के संपादक प्रो. प्रेम कुमार शर्मा कहते हैं कि हमारे पंचांगों में की गई घोषणाएं अकसर सही साबित होती हैं, हालांकि वर्तमान दौर में जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग की वजह से पंचांग की भविष्यवाणियां भी प्रभावित होती हैं, क्योंकि पंचांग में प्राकृितक घटनाओं को ही आधार जाता है, परंतु जलवायु परिवर्तन की वजह से इन घटनाओं में अप्रत्याशित बदलाव आ रहा है। पंचांग की सटीकता को लेकर कई शोध भी हो चुके हैं।

2012 में, श्री वेंकटेश्वर विश्वविद्यालय और तिरुपति में राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ के शोधकर्ताओं ने इंडियन जर्नल ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी में 1992 और 2004 के बीच तिरुपति में पंचांगों और वास्तविक समय के अवलोकनों में मौसम संबंधी भविष्यवाणियों की तुलना करते हुए एक पेपर प्रकाशित किया। जिसमें कहा गया कि पंचांगों में बारिश की भविष्यवाणी और रिकॉर्ड की गई बारिश के बीच 63.6 फीसदी सहसंबंध था। इसी तरह जनवरी 2002 में एक अध्ययन प्रकाशित हुआ। इसमें 1946-95 के पांच दशक के दौरान वाराणसी के चार सबसे पुराने पंचांगों (पंचांग) (द्रिक-सिद्ध पंचांग, श्रीगणेश पंचांग, हृषिकेश पंचांग, और विश्व पंचांग) में वर्षा की भविष्यवाणी और प्राचीन ज्योतिष-मौसम विज्ञान के सिद्धांतों का अध्ययन किया गया। अध्ययन में भविष्यवाणियों का आंशिक रूप से सही का 79.58 फीसदी, जबकि पूर्ण रूप से सही का प्रतिशत 82.89 था। इस अध्ययन में एक कृषि पंचांग तैयार करने की सलाह दी गई, ताकि किसानों और कृषि योजनाकारों को मदद पहुंच सके।

अक्टूबर 2002 में, चेन्नई स्थित गैर-लाभकारी एम एस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन (एमएसएसआरएफ) ने मौसम के पूर्वानुमान पर पारंपरिक ज्ञान का दस्तावेजीकरण करने और इसकी विश्वसनीयता की जांच करने के लिए एक परियोजना शुरू की। परियोजना के दौरान बादल के आकार और रंग के आधार पर बारिश के कई संकेतकों की परिकल्पना की गई। उदाहरण के लिए, अगर बादलों में छोटी धारियां हैं तो दो दिनों में बारिश की उम्मीद की जा सकती है। या फिर अगर दिसंबर या जनवरी में काले बादल दिखाई देते हैं तो उनके दिखने के तीसरे दिन बारिश हो सकती है।

इसी तरह के शोध आंध्र प्रदेश में किए गए। 2008 में सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर ड्रायलैंड एग्रीकल्चर (सीआरआईडीए) ने राज्य में किसानों द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले तमाम संकेतकों का दस्तावेजीकरण किया। किसानों का कहना था कि पूर्व की ओर बढ़ते काले बादल, उत्तर-पश्चिम दिशा में बादल, पश्चिम और दक्षिण में काले विशाल बादल, निचले बादल, आच्छादित बादल और विपरीत दिशा में चलते हुए कम बादल बारिश के कम-दूरी के संकेतक हैं यानी बारिश 1-2 दिन में हो सकती है।

गुजरात के आनंद कृषि विश्वविद्यालय (एएयू) के 2009 के एक पेपर में, शोधकर्ताओं ने छह महीने से अधिक समय तक बारिश की भविष्यवाणी करने में सटीकता के लिए 16 ‘लक्षणों’ का परीक्षण किया। जिसमें बरसात के बादल, सूर्योदय से 15-20 मिनट पहले पूर्वी आकाश का रक्त-लाल रंग, आकाश का रक्त-लाल रंग सूर्यास्त के 15-20 मिनट बाद, आंधी, हवा की दिशा, गरजते बादल, बिजली, आंधी का मौसम, बारिश के निशान, इंद्रधनुष, अंडे ले जाने वाली चींटियां, पतंगबाजी, चंद्रमा के चारों ओर प्रभामंडल, सूर्य के चारों ओर प्रभामंडल, गर्म व आर्द्र मौसम और धुंध शामिल थे। इस अध्ययन में पाया गया कि बारिश के बादल (निचले वालेे, भूरे या गहरे भूरे बादल) उन 44 दिनों में से 34 दिनों में सहसंबंध दर्शा रहे थे, जिनमें बारिश हुई थी। विश्वविद्यालय के कृषि-मौसम विज्ञान विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर विद्याधर वैद्य कहते हैं, “दिलचस्प बात यही है कि जब दुिनयाभर में जलवायु परिवर्तन का दौर चल रहा है और मौसम विज्ञान विभाग भी पूरी तरह से मौसम का अनुमान नहीं लगा पा रहे हैं। तब भी पूर्वानुमानों के लिए पारंपरिक तरीके कुछ हद तक उपयोगी साबित हो रहे हैं और यह किसानों के बहुत काम आ रहे हैं।” वैद्य कहते हैं कि दिक्कत यह है कि इस पारंपरिक ज्ञान को वैज्ञानिक पूरी तरह से खारिज कर देते हैं, जबकि इसे व्यवस्थित तरीके से सहेजने और इस्तेमाल करने की जरूरत है। वैद्य और उनके सहयोगी 2012 तक गुजरात के 26 जिलों का जिलावार पंचांग निकालते थे, जिसमें रोजाना और मासिक पूर्वानुमान जारी किए जाते थे। उनका कहना है कि यह पूर्वानुमान लगभग सटीक रहते थे, लेकिन वित्तीय कमियों के कारण यह काम आगे नहीं चल पाया। उत्तराखंड में स्थानीय प्रचलित परंपराओं के आधार पर मौसम के पूर्वानुमान लगाने वाले अध्ययन में भी कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव के कारण मौसम के पारंपरिक ज्ञान की सटीकता पर असर पड़ा है। इससे मौसम की भविष्यवाणी करने वाली पारंपरिक कला तेजी से खो रही है। चूंकि यह ज्ञान लंबे समय तक प्राकृतिक घटनाओं के गहन अवलोकन के बाद प्रचलित में आई हैं, इसलिए इन संकेतकों का वैज्ञानिक दस्तावेजीकरण करने की जरूरत है।

मौसम विभाग का पंचांग

खास बात यह है कि मौसम विभाग की ओर से भी हर साल राष्ट्रीय पंचांग जारी किया जाता है। इसका इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। 1945 में भारत सरकार द्वारा गठित योजना समिति ने खगोलीय पंचांग एवं नौ पंचांग तैयार करने की सिफारिश की, ताकि भारत में खगोल एवं खगोल भौतिकी अध्ययन को बढ़ावा मिले और ग्रेगोरिअन कैलेंडर की बजाय देश के विभिन्न राज्यों में त्योहारों को मनाने की विभिन्न प्रथाओं के लिए कैलेंडर बनाया जाए। आजादी के पश्चात चूंकि लगभग 30 अलग-अलग पंचांग प्रचलन में थे, तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने बेहद सटीक खगोलीय आंकड़ों पर आधारित एकीकृत राष्ट्रीय कैलेंडर बनाने को कहा। कोलकात्ता स्थित खगोल विज्ञान केंद्र द्वारा इस पंचांग का प्रकाशन किया जाता है। इस केंद्र के निदेशक संजीब सेन कहते हैं कि उनका केंद्र खगोल विज्ञान के आधार पर पंचांग का प्रकाशन करता है, लेकिन इसमें ज्योतिष का कोई स्थान नहीं है और ना ही खगोल विज्ञान केंद्र की ओर से कोई भविष्यवाणी की जाती है।

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