चौमास कथा-2: मानसून को क्यों कहा जाता है देश का असली वित्त मंत्री?

देश में 44 फीसदी खाद्य का उत्पादन 56 फीसदी वर्षा क्षेत्र पर आधारित है

By Vivek Mishra

On: Wednesday 17 August 2022
 
पेंटिंग्स: योगेन्द्र आनंद

हमारी खेती का बड़ा हिस्सा मानसूनी वर्षा पर ही निर्भर है। यानी खेती-किसानी को एक अच्छे मानसून की हर साल जरूरत पड़ती है। वहीं, देश की लगभग दो-तिहाई आबादी का जीवनयापन खेती से ही चलता है। पिछले कुछ दशकों में भले ही भारतीय अर्थव्यवस्था ने अपने आर्थिक प्रदर्शन के लिए कृषि पर निर्भरता में कमी की हो लेकिन आर्थिक सर्वेक्षण 2022 के मुताबिक अब भी हमारी अर्थव्यवस्था में कृषि संबद्ध क्षेत्र की लगभग 18 फीसदी तक हिस्सेदारी है। यानी मानसून अब भी एक खुशहाल वर्ष के लिए निर्णायक कारक बना हुआ है।

अतीत के अनुभवों से यह बात साबित होती रही है कि एक खराब मानसून लोगों को अकाल जैसी परिस्थितियों में रहने के लिए विवश कर सकता है। यह हमारे अन्न भंडार से लेकर उद्योग-धंधों तक को चौपट कर सकता है। शायद इसीलिए गांव से लेकर संसद तक और नुक्कड़ की दुकान से लेकर पांच सितारा होटल तक मानसून के आगमन और विदाई दोनों हमेशा चिंता और चर्चा का विषय बने रहते हैं।

इसे ऐसे समझ सकते हैं। हमारे देश की कुल खेती का लगभग 56 फीसदी क्षेत्र वर्षा आधारित है जो कि 44 फीसदी खाद्य उत्पादन के लिए जिम्मेदार है। वर्षा में कोई भी कमी फसल उत्पादन और पूरी अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। भारत की खाद्य और जल सुरक्षा भी मानसून पर ही निर्भर है क्योंकि कृषि उत्पादन मिट्टी की नमी और भूजल भंडारण से प्रभावित होता है जिनका वर्षा से सीधा संबंध है।

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के मुताबिक भारत के लिए 1971-2020 की लंबी अवधि की औसत वार्षिक वर्षा 116 सेमी है जबकि दक्षिण-पश्चिम मानसून (जून से सितंबर) के दौरान लंबी अवधि की औसत वर्षा 86 सेमी है। यानी भारतीय उपमहाद्वीप में 75 फीसदी वर्षा जून से सितंबर के दौरान चार महीनों में होती है।

इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (आईसीएआर)-नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चरल इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी रिसर्च में कृषि वैज्ञानिक दिनेश चंद मीणा बताते हैं कि दक्षिण-पश्चिम मानसून देश में कृषि उत्पादन, खेतिहर परिवारों की आय और मूल्य स्थिरता के लिए काफी अहम है। यह उपभोक्ता वस्तुओं, ट्रैक्टरों और कृषि उपकरणों एवं अन्य इनपुट (कीटनाशक, उर्वरक और बीज) की मांग को प्रभावित करता है क्योंकि कृषि उत्पादन खेतिहर परिवारों की आय और क्रय शक्ति को प्रभावित करता है। मानसून की वर्षा भले ही पहेली बना हुआ हो, लेकिन यह बहुत अच्छे से समझा जा चुका है कि हमारे जलभंडार और खाद्य सुरक्षा के लिए यह बहुत जरूरी है।

मानसून से होने वाली जलसुरक्षा को लेकर आईआईटी, मद्रास के प्रोफेसर श्रीकांत कानन बताते हैं कि कुल चार महीनों (जून-सितंबर) में होने वाली वार्षिक वर्षा का तीन-चौथाई भाग देश भर में भूजल संसाधनों के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

वह बताते हैं कि मानसून 140 प्रमुख और महत्वपूर्ण जलाशयों को भरने के लिए काफी अहम है। पिछले 10 वर्षों में दक्षिण-पश्चिम मानसून की शुरुआत के दौरान इन 140 जलाशयों का औसत संचयी भंडारण एक-चौथाई से कम रहता है, जबकि दक्षिण-पश्चिम मानसून के 30 सितंबर को आधिकारिक रूप से समाप्त होने तक भंडारण कुल क्षमता का लगभग तीन-चौथाई हो जाता है। पिछले 10 वर्षों में औसतन इन जलाशयों ने 133 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) के संचयी भंडारण तक पहुंचने में कामयाबी हासिल की है, जो इन महत्वपूर्ण जलाशयों में पानी के भंडारण को फिर से भरने में दक्षिण-पश्चिम मानसून की महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर करता है।

कानन बताते हैं कि मानसून से होने वाली जल सुरक्षा के उदाहरण को भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई में सबसे बढ़िया समझा जा सकता है। ग्रेटर मुंबई को 96 फीसदी पानी तुलसी, विहार, ऊपरी वैतरणा, भाटसा आदि झीलों से मिलता है जिनका जलस्तर हर साल दक्षिण-पश्चिम मानसून के महीनों के दौरान रिचार्ज हो जाता है। इस प्रकार चार महीने की यह बारिश जल प्रबंधकों को अगले 9 महीनों तक पीने की जरूरतों के लिए पानी जमा करने की अनुमति देती है। जून के दूसरे पखवाड़े में जल प्रबंधक अगले मानसून के मौसम की प्रतीक्षा करने लगते हैं और अगले साल के लिए पानी जमा करने की योजना बनाते हैं।

वहीं, खाद्य सुरक्षा में भी मानसून का किरदार काफी बड़ा है। इस दौरान न सिर्फ वर्षा की शुरुआत बल्कि सामान्य स्थानिक (स्पेशियल) वर्षा का वितरण भी महत्वपूर्ण होता है। कृषि वैज्ञानिक मीणा के मुताबिक देश का लगभग 90 फीसदी धान, 70 फीसदी मोटे अनाज और 70 फीसदी तिलहन मानसून के दौरान खेती से आते हैं। इसके अलावा रबी की फसलें भी मानसून से प्रभावित होती हैं क्योंकि रबी के मौसम में सिंचाई के पानी की आपूर्ति जलाशयों में जमा पानी और मौसमी वर्षा के साथ ग्राउंड वाटर रिचार्ज पर निर्भर करती है।

कानन बताते हैं कि तमिलनाडु के चावल उगाने वाले डेल्टा जिले हों या गेहूं उगाने वाले पंजाब और मध्य भारतीय जिले, एक अच्छा मानसून वर्ष भारत जैसे देश को बहुत अधिक खाद्य सुरक्षा प्रदान करता है। मानसून के पूर्वानुमान के आधार पर खेती के क्षेत्र में सालाना लगभग 20 से 25 फीसदी तक भिन्नता हो सकती है। भारत में खेती के तहत लगभग 60 फीसदी क्षेत्र वर्षा पर निर्भर है और देश में खाद्यान्न उत्पादन का लगभग आधा हिस्सा वर्षा आधारित फसलों से आता है, जो एक बार फिर देश की खाद्य सुरक्षा में दक्षिण-पश्चिम मानसून की महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर करता है।

मानसून इसलिए भारत में वरदान माना जाता है। हालांकि, जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम न सिर्फ अनिश्चत हुआ है बल्कि वर्षा वितरण में भी विसंगतियां पैदा हुई हैं। मानसून के दौरान वर्षा की लंबी अवधि के लिए रुक जाना ऐसा ही एक संकट है, जो जल और खाद्य सुरक्षा पर संकट पैदा कर देती है।

पेंटिंग्स: योगेन्द्र आनंदमानसून ब्रेक

मानसून कई बार देर से आता है और कई बार मानसून आगमन के बीच में लंबे समय तक ब्रेक यानी शुष्क अवधि हो जाती है। इससे अपर्याप्त बारिश और वर्षा के स्थानिक वितरण में विषमता होती है जिसके के बहुआयामी परिणाम होते हैं। मानसून ब्रेक के दौरान कुल सामान्य बुआई क्षेत्र की तुलना में वास्तविक बुआई क्षेत्र में गिरावट, सतही जल स्रोतों का सूखना और धारा प्रवाह में कमी, भूजल स्तर में कमी, चारे की कीमत में वृद्धि और ग्रामीण आबादी का पलायन इस दौरान आम है।

आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर सच्चिदानंद त्रिपाठी बताते हैं कि वर्ष 2002 में जुलाई के दौरान लंबे समय तक मानसून ब्रेक की स्थिति देखी गई, जिसके परिणामस्वरूप वर्षा में 50 फीसदी की भारी कमी आई थी। इससे न केवल कृषि उत्पादन में कमी आई बल्कि जीडीपी में भी गिरावट दर्ज की गई।

शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में अल्प और अनियमित मानसून के वर्षों में यह स्थिति स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है । कभी-कभी, लम्बा सूखा या रुक-रुक कर भारी से अत्यधिक बारिश के छोटे-छोटे दौरों के कारण बारिश पर निर्भर कृषि के लिए समस्या बढ़ जाती हैं क्योंकि हमें सही समय पर सही मात्रा में बारिश नहीं मिल पाती है।

इसके अलावा, अत्यधिक गर्मी से भी कृषि उत्पादन को नुकसान पहुंचता है। इस बार रबी सीजन में गेहूं संकट के बाद मानसून की अनियमित वर्षा ने खरीफ संकट भी पैदा कर दिया है। धान के प्रमुख उत्पादक राज्यों में मानसूनी वर्षा बेहद कम होने के कारण किसानों के पास सिंचाई के लिए पानी की व्यवस्था नहीं है। मानसूनी वर्षा का न होना सूखे की आफत के रूप में भी कई बार सामने आता है।

मानसून की विफलता का मतलब

मानसूनी वर्षा की मात्रा में कमी के कारण अक्सर सूखा पड़ जाता है, जो ग्रामीण आबादी की आजीविका को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। इसका असर विशेष रूप से कम आय वाले और गरीब परिवारों पर होता है। ये परिवार फसल से संबंधित अन्य आर्थिक गतिविधियों, पानी की कमी और सूखे से जुड़े आवश्यक खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि से उत्पन्न किसी भी झटके के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। अतः देश के कृषि उत्पादन, खाद्य सुरक्षा और खेतिहर परिवारों की आजीविका के लिए मानसूनी वर्षा महत्वपूर्ण है।

मीणा बताते हैं कि 2002-03 में लगभग 3 करोड़ लोगों की आजीविका और 1.5 करोड़ मवेशी सूखे से प्रभावित हुए थे। वह बताते हैं कि भारत को अक्सर मानसून की विफलता का सामना करना पड़ता है और हमारे यहां औसतन हर तीन साल में कहीं न कहीं सूखा पड़ता है। 2020 में प्रकाशित पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, देश के शुष्क क्षेत्रों में सूखे की आवृत्ति ( 1960 से 2018 तक प्रति दशक दो से अधिक सूखे औसतन) में वृद्धि हुई है।

इसके आलावा वर्षा की बारंबारता, तीव्रता और भारी बारिश वाले इलाकों में और वृद्धि हो सकती है। 1960 के बाद से, हर दशक में कम से कम 2-3 ऐसे साल हुए हैं जिनमें सूखे या बाढ़ का सामना करना पड़ा हो। पिछले दशक में, हमने 2015 और 2018 में सूखे और 2019 में अत्यधिक वर्षा का अनुभव किया है। दक्षिण भारत (तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश, अक्टूबर और दिसंबर के बीच, उत्तर-पूर्वी मानसून से अपनी वार्षिक वर्षा का बड़ा हिस्सा प्राप्त करते हैं) पूर्वोत्तर मानसून के दौरान वर्षा की कमी के कारण 2016 से 2018 तक गंभीर सूखे की चपेट में रहा। 1874-76 के दूसरे सबसे भीषण सूखे के कारण फसल का काफी नुकसान हुआ जिसके परिणामस्वरूप मद्रास में भीषण अकाल (1876 से 1878) आया। हालांकि, देश के स्तर पर खरीफ फसल उत्पादन का प्रतिशत विचलन सकारात्मक था क्योंकि उत्तर-पूर्वी मानसून कुल वर्षा में केवल 27 फीसदी योगदान देता है।

सच्चिदानंद बताते हैं कि फसल उत्पादन को नुकसान पहुंचाने के अलावा, वर्षा की मात्रा और समय में थोड़े से बदलाव के भी अन्य गंभीर सामाजिक परिणाम भी हो सकते हैं। 1999 और 2000 में लगातार सूखे की स्थिति के कारण उत्तर-पश्चिम भारत के भूजल स्तर में भारी गिरावट आई थी। इस बीच, 2000-2002 के दौरान फसल बर्बाद होने के कारण ओडिशा में 1.1 करोड़ लोगों को भयानक अकाल का सामना करना पड़ा। इसके अलावा, 2005 में आई मुंबई की बाढ़ जलवायु परिवर्तन एवं बारिश के दुष्परिणामों का एक स्पष्ट उदहारण थी। इसलिए, हफ्तों से लेकर वर्षों तक के टाइम स्केल पर मानसून परिवर्तनशीलता का पूर्वानुमान लगाना बहुत आवश्यक बात है। इतना ही नहीं मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) द्वारा सकारात्मक मानसून पूर्वानुमान ने कई मौकों पर शेयर बाजारों को मदद पहुंचाई है। अच्छे या बुरे मानसून का प्रभाव न केवल शेयर बाजारों में बल्कि ट्रैक्टर, एफएमसीजी उत्पादों, दोपहिया वाहनों, ग्रामीण आवास जैसे कृषि उत्पादों की मांग में भी दिखाई देता है। इस तरह मानसून वास्तिवकता में हमारी पूरी अर्थव्यवस्था का संचालक बन जाता है। लेकिन जब मानसून ज्यादा ही अनिश्चित हो गया है तो इसकी विफलताओं से निपटने के लिए कारगर कदम भी उठाए जाने की जरुरत है।

यह होनी चाहिए रणनीति

मीणा बताते हैं कि सबसे प्रभावी रणनीति यह हो सकती है कि देश में सिंचित क्षेत्र को बढ़ाया जाए ताकि सूखे के दौरान भारी फसल उत्पादन के नुकसान से बचा जा सकता है। हालांकि, सिंचाई की अतिरिक्त लागत के कारण किसानों का शुद्ध लाभ कम हो जाता है। अधिकांश सिंचाई स्रोतों का भरण-पोषण अंततः मानसून की बारिश पर निर्भर करता है, लेकिन मानसून की विफलता के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने के लिए यह एक लंबी अवधि की रणनीति है। इसके अलावा सिंचाई दक्षता में सुधार के लिए माइक्रो-इरिगेशन को अपनाना और वाटरशेड, तालाबों और पारंपरिक जल संचयन संरचनाओं का विकास और कायाकल्प करके वर्षा जल का संरक्षण और संचयन भी किया जाना चाहिए।

इसके अलावा वह बताते हैं कि सूखा-रोधी और कम अवधि वाली किस्मों और टिकाऊ कृषि पद्धतियों को अपनाने से भी मानसून की विफलता का सामना किया जा सकता है। आमतौर पर किसान अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए सामान्य मौसम के लिए विकसित उच्च उपज देने वाली किस्मों (एचवाईवी) की खेती करते हैं।

शायद ही कोई किसान अन्य फसलें या किस्में उगाता है क्योंकि ये सामान्य वर्षा की स्थिति में अन्य फसलों या किस्मों की तुलना में अपेक्षाकृत कम रिटर्न देने वाली होती हैं। इस प्रकार नई किस्मों या फसलों को अपनाना मानसून की उपलब्धता, सामयिक एवं विश्वसनीय जानकारी और बीज और अन्य इनपुट्स में नए निवेश करने की किसानों की क्षमता पर निर्भर करता है। दक्षता में सुधार के लिए माइक्रो इरीगेशन को अपनाना और वाटरशेड, तालाबों और पारंपरिक जल संचयन संरचनाओं का विकास और कायाकल्प करके वर्षा जल का संरक्षण और संचयन करना कुछ अन्य कदम हो सकते हैं। इस तरह एक खराब मानसून हमारी तरक्की को काफी पीछे ढकेल सकता है। साथ ही एक अच्छा और समान वर्षा वितरण वाला मानसून हमारी तरक्की में चक्रवृद्धि बढ़ोत्तरी कर सकता है।

(इस आलेख को नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चरल इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी रिसर्च के कृषि वैज्ञानिक दिनेश चंद मीणा- प्रेमचंद और आईआईटी मद्रास के प्रोफेसर श्रीकांत कानन, आईआटी कानपुर के प्रोफेसर सच्चिदानंद त्रिपाठी के लेखों के आधार पर तैयार किया गया है)

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