साहित्य में पर्यावरण: बाहर-भीतर के हरेपन को तलाशता-बचाता है साहित्य

प्रकृति को कविताओं की जद से बाहर लाकर उसके प्रति लोगों को जिम्मेदार बनाने का काम बहुतेरे कथाकारों ने किया 

On: Monday 25 October 2021
 
इलस्ट्रेशन: रितिका बोहरा

- धनंजय चोपड़ा -

बरसों पहले बुंदेलखंड में बहती केन नदी के ऊपर से गुजर रहा था कि अचानक कवि केदारनाथ अग्रवाल की ये पंक्तियां कौंध सी गईं थीं- ‘मैं घूमूंगा केन किनारे/ यों ही जैसे आज घूमता/ लहर-लहर के साथ झूमता/ संध्या के प्रिय अधर चूमता/ दुनिया के दुख-द्वंद्व बिसारे/ घूमूंगा केन किनारे।” रेतीले पत्थरों और चट्टानों से जूझती केन, कवि केदार के समय से रेत की लालच का शिकार होकर सिकुड़ने लगी थी, तभी तो अपनी केन को गाते-सुनाते कवि केदार गम्भीर हो जाया करते थे। ऐसा कोई पहली बार नहीं था। नदी की बात करते-करते तो कबीर भी बहुत तल्ख हो जाया करते थे- “गंगा नहाइन, जमुना नहाइन, नौ मन मैल लिहिन चढ़ाय।” जाहिर कि कबीर नदियों के प्रदूषण की बात कर रहे थे। कह यह भी सकते हैं कि कबीर आदतन मन में समाए मैल की भी बात कर रहे थे, तो भी यह किसी नदी की अस्मिता के प्रति किसी चेतावनी से कम नहीं। और, यही तो है हमारे रचनाकारों की अपनी प्रकृति और मनुष्य के बीच की पारस्परिक नातेदारी के प्रति वह संवेदनशीलता, जो हमें बनाती-मांजती चली आ रही है।

अब देखिए न, दुनिया पानी के लिए हाहाकार मचाती कि उससे कहीं पहले हमारे हिस्से में यह पंक्ति आ गई थी- “रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।” कालखण्ड कोई भी हो भारतीय साहित्यकारों ने यदि प्रकृति के सौन्दर्य से हमारा परिचय कराया तो साथ ही चेतावनी देने के अंदाज में प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने के नतीजे भी गिना दि,। कबीर, तुलसी, जायसी हों या फिर सुमित्रानंदन पंत, महादेवी, निराला, प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद और मैथिलीशरण गुप्त सहित ऐसे ढेर सारे नाम हैं, जिन्होंने साहित्य में प्रकृति और पर्यावरण की थाती को मजबूत आधार देने का काम किया। इसके बाद तो दुनिया बदलती गई और प्रकृति को लेकर चिंताओं का दायरा भी बड़ा होता चला गया। यही वजह रही कि हमारे समय के बड़े कवि केदारनाथ सिंह यह लिखना नहीं भूले- ‘मैं देख रहा हूं दूर-दूर/लम्बे छरहरे दौड़ते सूखे देवदार/ जलते चन्दन/ भागते खेत पर्वत पर्वत / कंधों पर नदियों का लादे/ क्रमशः विलीन।’

यह कहना गलत न होगा कि प्रकृति को कविताओं की जद से बाहर लाकर उसके प्रति लोगों को जिम्मेदार बनाने का काम बहुतेरे कथाकारों ने भी किया। मसलन प्रेमचन्द, फणीश्वर नाथ रेणु, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, अमरकांत जैसे कई कथाकार व उपन्यासकार अपने-अपने ढंग से सीध-सीधे या फिर गाहे-बगाहे पर्यावरण से जुड़े मद्दों को अपने लेखन का विषय बनाने से नहीं चूके। याद कीजिए रेणु के उपन्यास ‘ऋणजल धनजल’ को, जिसमें वे पटना की 1975 की बाढ़ और 1966 के बिहार के सूखे का आंखों देखे हाल की तर्ज पर जिंदा लेखन का सुबूत देते हैं। उनके ये शब्द व्यवस्था पर तो चोट करते ही हैं, साथ ही हर समय के लोगों के लिए भी बहुत जरूरी जान पड़ते हैं- “यों, पटना शहर भी बीमार ही है। इसके एक बांह में हैजे की सुई का और दूसरे में टाइफायड के टीके का घाव हो गया है। पेट में ‘टेप’ करके जलोदर का पानी निकाला जा रहा है।

आंखें जो कंजक्टिवाइटिस (जोय बांग्ला) से लाल हुई थीं तरह-तरह की नकली दवाओं के प्रयोग के कारण क्षीणज्योति हो गई हैं। कान तो एकदम चौपट ही समझिए, हियरिंग एड से भी कोई फायदा नहीं। बस आइरन लंग्स अर्थात रिलीफ की सांस के भरोसे अस्पताल के बेड पर पड़ा हुआ किसी तरह ‘हुक-हुक’ कर जी रहा है।” रोचक यह बात है कि रेणु अपने समय में ही जलवायु परिवर्तन की विभीषिका से लोगों को आगाह कर रहे थे। इसी उपन्यास में वे यह भी कहते हैं, “तुम लोग थोड़ी-सी मस्ती में जब चाहो तब राह-चलते कमर दुलिए-दुलिए (कमर लचकाकर, कूल्हे मटकाकर) ट्वीस्ट नाच सकते हो। रंबा-संबा-हीरा-टीरा और उलंग नृत्य कर सकते हो और बृहत सर्वग्रासी महामतता रहस्यमयी प्रकृति कभी नहीं नाचेगी?.. ..ए-बार नाच देख! भयंकरी नाच रही है-ता-ता थेई-थेई, ता-ता थेई-थेई। तीव्रा तीव्रवेगा शिवनर्तकी गीतप्रिया वाद्यरता प्रेतनृत्यपरायणा नाच रही है। जा, तू भी नाच!”

सच तो यह है कि बीसवीं सदी के जाते-जाते हमारे साहित्यकारों ने बदलती दुनिया के हाव-भाव को पहचानने में तनिक भी देर नहीं लगाई। सूचना क्रांति के साथ बाजार की गलबहियों से यह तय हो गया था कि यदि मानवीय समाज को बचाना है तो हमें नदी, पानी, हवा, जंगल और वृक्षों की बात करनी होगी। यह वही समय था कि जब लोगों ने बरास्ते सोशल मीडिया अपने समय को इतिहास को रचना शुरू कर दिया था। हर कोई अपने समय और समाज पर कुछ न कुछ रच रहा था। इनमें कोरी बकवास भी थी तो बहुत जरूरी मुद्दे भी शामिल थे। एक बदलाव यह भी था कि शब्दों के बरक्स विजुअल्स की दुनिया पहले से कहीं अधिक मजबूत हो रही थी। कहा तो यह भी गया कि यह समय ‘विजुअल एक्सप्लोजन’ का है। ऐसे में हमारे बहुतेरे साहित्यकारों ने अचानक जन-संचारक की भूमिका को अपनाया और जिम्मेदारी के साथ जल-जंगल-जमीन को अपने लेखन का मुद्दा बनाना शुरू कर दिया। कथाकार काशीनाथ सिंह ने यदि ‘जंगल जातकम’ जैसी कहानियां लिखनी शुरू कीं तो वंदना राग जैसी लेखिकाओं ने ‘बिसात पर जुगनू’ के बहाने दूसरे अफीम युद्ध के बाद चीनी जनजीवन के कठिन संघर्ष की बात करके अपने ढंग से अपने लोगों को चेताने का काम किया।

पिछले दो दशकों में बहुत से ऐसे संघर्ष सामने आए हैं, जिन्हें यदि साहित्य स्वयं में शामिल करने से चूक गया होता तो संभवत: वह अपने ऑडियंस खो बैठता। लगातार हो रहे तकनीकी विकास ने सहूलियतों के साथ मुसीबतें भी दी हैं। बिना प्रतिभागी ऑडियंस के ही सामाजिक विकास को सफल बताने-बनाने की मुहिम चल पड़ी है। जलवायु परिवर्तन और महामारियों की मार से दुनिया के अधिसंख्य लोग परेशान हैं। नदियों की सिकुड़न और पीने के पानी का अकाल, एक डर के रूप में सताने लगा है। शहर को रहने लायक बनाए रखने की जद्दोजहद बढ़ते जाने और इसमें फेल होती व्यवस्था साफ नजर आने लगी है।

लेकिन हो यह रहा है कि बहुतेरी सत्ताएं अपने-अपने देश के इतिहास को नया करने में जुटीं हैं और उन्हें मानवीय इतिहास की वर्तमान त्रासदियों से बहुत कुछ लेना-देना नहीं है। दूसरी तरफ लोगों को प्राकृतिक सौन्दर्य से कहीं अधिक उन चिंताओं से रू-ब-रू होने और उनके समाधान पाने की ललक अधिक होने लगी है, जो उनकी पीढ़ियों को बचाने के लिए जरूरी हैं। अब यह कहकर हम जरूरी मुद्दों को साहित्य से खारिज नहीं कर सकते कि तकनीकी विकास और बाजार की हाहाकारी ने लोगों को बेपरवाह बना दिया है। कम से कम वर्तमान सदी के अब तक बीते दो दशकों में जन्में और युवा हो रहे लोगों के सम्बन्ध में यह बात कतई लागू नहीं की जा सकती। बड़ी बात यह है कि ऐसे में देश-दुनिया के ढेर सारे साहित्यकारों ने हमेशा की तरह मशाल लेकर आगे चलने की भूमिका निभाना शुरू कर दिया है। उपन्यासकार अमिताभ घोष कहानियों के बहाने जलवायु परिवर्तन करने की बात कहने के लिए ‘द ग्रेट डीरेंजमेन्ट : क्लाइमेट चेन्ज एण्ड द अनर्थिकेबल’ जैसा कथेतर साहित्य रच रहे हैं तो रणेन्द्र अपने बहुचर्चित उपन्यास ‘ग्लोबल गांव के देवता’ और ‘गायब होता देश’ के बहाने जंगल, अवैध खनन और आदिवासी समाज की दुरूहताओं को सामने लाने का काम कर रहे हैं। इसी तरह आदिवासियों की बढ़ती पर्यावरणीय दुरूहताओं की बातें लोक बाबू के उपन्यास ‘बस्तर-बस्तर’ में भी मिलती है।

दरअसल साहित्य अपने समय और समाज की उन ध्वनियों को पकड़ने का काम करता है, जिसमें उनके सुख-दुख से जुड़ी आवाजें होती हैं। ये आवाजें खो जाएं, इससे पहले ही साहित्यकार इन्हें दर्ज कर देता है, व्यवस्था-सत्ता को चुनौती देता हुआ और आने वाली पीढ़ियों के लिए सबक रचता हुआ। यह हमेशा से होता आया है, चाहे वह कबीर हों या फिर प्रेमचन्द। हर समय का साहित्यकार इस चुनौती से मुठभेड़ करता और जीतता आया है। हम यह भी कह सकते हैं कि हर रचनाकार स्वभावत: व्यवस्था विरोधी होता है, क्योंकि उसे अपने पाठकों की दुरूहताओं के खिलाफ आवाज बुलंद करनी ही होती है। हर समय का और हर तरह का ऑडियंस अपने रचनाकार से यही उम्मीद भी करता है। जाहिर है कि आने वाले दिनों में ऑडियंस और रचनाकार के बीच की यह नातेदारी बनाए रखने की जरूरत है, वरना इस नातेदारी का नमक चाट जाने के लिए बाजार और बाजार के चालाक और हमेशा सतर्क रहने वाले अलम्बरदार, दोनों पहले से ही तैयार बैठे हैं।

सच तो यह है कि पर्यावरण का मुद्दा जितना जरूरी बेहतर जीवन की आकांक्षाओं को रखने और उसे लोगों को मुहैया कराने वालों के लिए है, उतना ही जरूरी उस पर निगाह लगाए बाजार के अलम्बरदार मुनाफाखोरों के लिए भी है।

पूंजी और मुनाफे की मुठभेड़ में जन-आकांक्षाओं को हमेशा की तरह बचाने में लगा रहेगा भारतीय साहित्य, यह उम्मीद तो करनी ही होगी। इस बड़े सच के साथ कवि प्रियदर्शन की ये पंक्तियां, जो यह बताने के लिए काफी है कि साहित्य में जल,जमीन और जंगल की परवाह हमेशा की जाती रहेगी- “एक दिन / अपनी लुप्त होती संवेदनाओं की शाखें / टटोलते हुए तुम / जब उस रास्ते तक पहुंचोगे / जो जंगल को जाता है / तब समझोगे ... अपने भीतर का हरापन कहां मर गया है / एक दिन जब तुम खुद को ढूंढ़ना चाहोगे / तुम्हें जंगल तलाशने की जरूरत महसूस होगी / और तब तुम्हें पता चलेगा / कि सिर्फ जंगल ही नहीं कटा है/ तुम्हारी जड़ें भी कट गई हैं / और तुम ठूंठ होकर खड़े हो / उस बलुआहे मैदान में/ जहां हर उर्वर सम्भावना मर चुकी है।”

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं)

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