कोरोना काल और बालकनी में सिमटी प्रकृति

यह भी सच है कि घरों में भी वही बैठ सकते हैं जो कि एक अलग किस्म के 'पूंजीवाद' में शामिल हैं

By Swasti Pachauri

On: Tuesday 04 August 2020
 

आजकल पेड़, पौधे, फूल, चिड़ियों की आवाज, सूरज की तीखी रोशनी, खुले आकाश के नीचे बेफिक्र हो घूमना, सब कुछ नीरस हो उठा है। इस बार तो मौसम के फ़ल भी नसीब नहीं हो पाए जैसे कि फालसे, लीची, जामुन। फिर झमाझम बारिश जो पत्तों को नया सा कर जाया करती है,  गुलमोहर के फूलों को गिरा जाया करती है, जिनको फिर जमीन की गीली मिट्टी पर पड़ा देख हम सोचा करते हैं, जैसे हमारे लिए ही किसी ने फूलों का कालीन बिछाया हो, वे दृश्य तो देखने को बेहद कम मिले।  
 
जिस इंसान को जीने की ऊर्जा ही प्रकृति के बीच रहने से मिलती हो, फूल, पौधों की फोटो खींचने से मिलती हो, उसके लिए तो सच में यह आपदा किसी जेल से कम नहीं। हालांकि यह भी सच है की घरों में भी वही बैठ सकते हैं जो कि एक अलग किस्म के  'पूंजीवाद' में शामिल हैं। लेकिन अभी तो बात प्रकृति और अपने आपको ढूंढ़ने की ही की जानी चाहिए।
 
नीति निर्माताओं ने तो कह दिया 'वर्क फ्रॉम होम' लेकिन बड़े-बड़े लॉन्स और बंगलों में रहने वालों को क्या पता कि सोसाइटी या 'स्काईस्क्रैपर्स' के घरों में बंद बिना किसी सूरज, आकाश, और घास के रहना किसको कहते हैं? जब मुंबई में रहा करती थी तो दिल्ली के घर की हरी-भरी फूलों, गमलों से संवरी बालकनी और गार्डन को मिस करती थी। और अब जब दिल्ली में हूं तो अपने सिवनी जिले की बांह फैलायी प्रकृति की हरियाली, पहाड़, झरने, नदियों को याद करती हूं, जिनको संजोकर रखने का मन भी करे, तो भी कोई न रख पाए, क्योंकि छोटे शहरों की प्राकृतिक सुंदरता और सहजता का अपनापन इतना गहरा होता है, की संभालें नहीं संभालता और आपको शर्मिंदा भी करते हुए निकल जाता है।
 
हां, लेकिन हम में से कई लोगों को बालकनी नसीब हो जाती है फ्लैट और घरों में, इसीलिए थाली और ताली पीटने में भी ज़्यादा कठिनाई नहीं होती । लेकिन सारी  प्रकृति को कैसे बॉलकनी में स
मेट लिया जाए? या फिर आंखों में समेट लिया जाए जिसको 'मैडिटेशन' पर ट्रेनिंग देने वाले लोग एक 'पिल' कि तरह 'प्रिसक्राईब' करके निकल जाते हैं ? 
 
बीते चार महीनों में कई बार मैंने अपने मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में बिताये दिनों को याद किया। क्योंकि प्रकृति के बीचों-बीच रहना किसे कहते हैं, यह मैंने तभी जाना था। सागौन, तेंदू, सहजन, महुआ, बांस,अर्जुन, आम, सीताफ़ल, पलाश के पेड़ों के बीच से निकलती हुई सड़कें। ट्रेन में सफर करते हुए पलाश के घने जंगल। एक बार सौभाग्यवश मार्च के महीने में ट्रेन से सफर किया था, और आसमान को छूते पलाश के गाढ़े, लाल फूल, सूरज की लालिमा में और भी निखर उठे थे। फिर पंचमढ़ी की खामोश ठंडी पहाड़ियां जहां बादलों और जंगली वृक्षों के बीचों-बीच कभी कोई सांभर सड़क  पार करता दिख जाया करता था।
 
और फिर कई ऐसी जगह जहां का नाम तक नहीं पता था। जैसे कि छिंदवाड़ा जिले का पातालकोट। आज भी याद है, सुबह-सुबह पातालकोट के लिए मैं और  मेरी दोस्त रुक्खसाना निकले थे। तकरीबन सुबह के 8 बजे हम पहुंचे। हरी- भरी वादियों के बीचों बीच, तामिया तहसील में नीचे पातालकोट के गांव; और पहाड़ पर ऊपर खड़े हम लोग। इतनी ख़ामोशी में सिर्फ बैलों की घंटियों की आवाज़ दूर कहीं सुनायी दे रही थी। चारों और फैली खुली वादियां और हवा इतनी साफ।
 
अपनी खुद की आवाज़ की गूंज के अलावा चारों तरफ सिर्फ प्रकृति की ही आवाज़ें थी।  एक तरफ गांव जहाँ आज भी आदिवासी रहा करते थे, और दूसरी  
तरफ़ शहर से महज कुछ घंटों के लिए आये हम लोग। 
इन्हीं गहरी घाटियोंके बीचों-बीच, फोटो खींचते वक़्त मैं और रुक्खसाना 'सोशल सेक्टर' की इस दो मुंही हकीकत के बारे में सोच कर फ़िर उदास हो उठे थे कि क्या हमें कभी भी असली गरीबी की समस्यायें समझ आएंगी? 
 
जब दिल्ली से सिवनी जाती थी, तो नागपुर-सिवनी हाईवे (NH -7) के बीच गुजरते हुए मेरे मोबाइल फ़ोन में बड़ी मुश्किल से नेटवर्क मिलता था। उन सड़कों पर दूर से ही पता चल जाता था कि 'पेंच नेशनल पार्क' आने वाला है
। 
 
मिटटी की सोंधी- सोंधी खुशबू आने लगती थी, क्योंकि सड़क के किनारे थोड़ा अंदर जाकर, मशहूर पचधार गांव पड़ता था, जहां काली मिटटी के बर्तन बेचते कुम्हार भाई-बहन अपनी कलाकृतियां बनाते और खेती करते। नागपुर से सिवनी का सफर 6 घंटों में तय होता था। तकरीबन चार घंटे गाड़ी जंगलों के बीचों बीच, लाल और काली मिटटी की खुशबू से भरी, सरसों के खेत, और ऊंचे-ऊंचे वृक्षों के बीच से होती हुई गुज़रती थी। बीच में छोटी दुकानें भी पड़ती थीं, और बस स्टैंड पर इंतज़ार करते यात्री भी मिलते थे। आज भी याद है कि बारिश के मौसम में सड़क के किनारे कुछ किसान जामुन, नीबू और जंगली फल बेचा करते थे।
 
नागपुर से निकलते वक़्त कई बड़ी दुकानें भी पड़ती थीं, और मैं कुछ और खरीदूं न खरीदूं, लेकिन इतने बड़े जामुनों को मैं बारिश हो या चिलचिलाती धूप, जरूर ही खरीदा करती थी। और तो और किसान अपना एक ख़ास मिर्ची वाला मसाला भी बना कर रखते थे और मुफ्त ही दे देते थे, इन काली बड़ी चमकदार जामुनों के साथ। मैं कई बार जिद्द करती कहती , 'थोड़ा और दे दो भैया बड़ा टेस्टी है।'  फिर गाड़ी में बैठ खुश होते हुए इन जामुनों का स्वाद लेते हुए घर निकल जाया करती।
 
कह लीजिये की इन रास्तों पर ग्रामीण एवं शहरी दोनों अनुभव एक साथ ही हो उठते थे। घने जंगलों के बीचोंबीच लम्बी काली सड़कों की शान्ति, बहुत अलग प्रकार की होती है। शहरों वाली सड़कों की चमक-धमक से दूर, शुद्ध हवा, नीला आसमान। और मान लीजिये सड़क नई-नवेली  बनी हो तो 'कोलतार' की भीनी-भीनी खुशबू भी मोहक लगने लगती है।
 
गाड़ियों की रफ्तार भरी आवाज, ट्रक के हॉर्न, कहीं दूर कूकती कोयल। जंगल के इस लुभावने सन्नाटे को शायद हम सब ने कभी न कभी अनुभव किया है जो की पत्तों की सरसराहट, बारिश के छोटे-छोटे झरने और जंगल की विविध आवाजों से और गूंज उठता है।
 
लेकिन सिवनी जैसे-जैसे पास आता था, वैसे -वैसे शहरी होने का आभास हो उठता था, जैसे कि पता नहीं किसी ने आकर गहरी नींद से उठा दिया हो। मैं भी अपने इस होने में अपनी 'आइडेंटिटी' खोजती थी। कल तक दिल्ली में, और आज एक फ्लाइट लेकर सीधा रूरल इंडिया में।
 
क्या मैं शहर को पूरी तरह से समझ गयी हूं? क्या मैं गांव को पूरी तरह से समझ गयी हूं? अगर नहीं तो फिर कब समझूंगी? क्योंकि ग्रामीण विकास मंत्रालय की ये 'फेलोशिप' तो अब बस चंद दिन की ही रह गयी है।  

समाजशास्त्र में इस विडम्बना को 'एक्सिस्टेंटशियल क्राइसिस' कहते हैं, जिसको आजतक सोशल सेक्टर में काम करते-करते ढूंढा करती हूँ, की विकास किसके लिए और क्यों? विकास की अपनी क्या पहचान हो सकती है? क्या 'आइडेंटिटी' और 'विकास' केवल 'ब्रांड' हैं जिन्हे हमें जल्दी से समझ लेना है, और एक रिसर्च पेपर लिख देना है? ताकि गरीबी को समझते हुए हम भी अपनी एक 'आइडेंटिटी' बना लें, और ट्विटर पर 'ब्लू टिक' जल्दी से जल्दी पा लें?
 
इन सब सवालों के जवाब मेरे पास नहीं है। लेकिन एक बार एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया था  ' जब भी कभी किसी विडम्बना में हो, तो प्रकृति की तरफ देखना वहां तुम्हें तुम्हारे सभी जवाब मिल जाएंगे। '  वाकई बीते चार महीने में इन जवाबों को प्रकृति के बीच न होते हुए भी ढूंढ़ने की कोशिश की है, लेकिन सारे जवाब तो नहीं मिले। लेकिन अब मन खुश हो उठता है। क्यूंकि इकॉनमी के धीरे-धीरे खुलने पर नीचे कदम्ब का पेड़, चंपा के फूल और बेल फल से लदा वृक्ष 'अर्बन इंडिया' के पार्क में दिख जाया 
करते हैं। हो सकता बारिश और सावन ख़तम होने के पहले जामुन बेचते कोई भैय्या भी मिल जाएं !
 
चलते चलते - सिवनी जाते हुए जैसे-जैसे रोड पर जिले का साईनबोर्ड दिखता था, वैसे- वैसे एक और रोचक कहानी आंखों के सामने उमड़ती थी। दरअसल 'जंगलबुक' का मोगली, जिसको गुलज़ार जी के गीत 'जंगलजंगल बात चली है' की धुन ने आज भी हमारे दिलों में जीवित रखा है, वह सिवनी का ही अपना 'लोकल' ब्रांड है ! गांव वाले बताया करते थे कि मोगली की कहानियां तो यहीं मध्य प्रदेश के सतपुड़ा जंगलों में लिखी गयी हैं। रुडयार्ड किपलिंग के उपन्यास 'जंगल बुक' की संरचना 'सीओनी', कान्हा, बालाघाट के जंगलों में ही तो हुई थी।

और वाकई में इस ब्रांड को जिला प्रशासन एवं अन्य संस्थानों ने बखूबी जीवित रखा है। चाहे जिला पंचायत का मोगली गेस्ट हॉउस, या मोगली महोत्सव, या फिर पेंच के आस पास के 'जंगल बुक' के जीव जंतु के नामों वाले होटल। बघीरा रिसोर्ट, किपलिंग कोर्टयार्ड, मोगली डेन।

अपने बिताये सालों में मैंने भी इस कड़ी में एक भूमिका निभाई ! एक छोटा योगदान दिया। हम लोगों ने प्रशासन की मदद से 'मोगली सोवेनीर (हस्तशिल्प) शॉप' शुरू की जिसमे सभी स्वसहायता समूहों के द्वारा बनाये गए सुन्दर हस्तशिल्प का प्रबंध कराया गया। मकसद यह था की प्रकृति के बीचों -बीच पेंच नेशनल पार्क में हस्तशिल्पों की खूबसूरती को सभी पर्यटकों के बीच उपलब्ध करवाना, एवं शहरों से कोसों दूर रहने वाले लोगों को विकास के और करीब ले आना। उसी तरह जैसे वे लोग मुझे अपने आप से और प्रकृति के निकट ले आये थे।

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