तमिलनाडु के दो जिलों में 127 साल बाद मिले कीट

कीटों का मिलना उस इलाके में जैव विविधता की समृद्धता को दर्शाता है।   

By Anil Ashwani Sharma

On: Friday 31 March 2023
 

तमिलनाडु के दो शोधकर्ताओं ने भारत में पहली बार कलाक्कड़-मुंडनथुराई टाइगर रिजर्व के बफर जोन में एक दुर्लभ प्रजाति के कीट को देखा है। इसे आखिरी बार 127 साल पहले श्रीलंका के त्रिंकोमाली में 1893 में देखा गया था। दिलचस्प बात यह है कि अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (एटीआरईई) के शोधकर्ता थलवाइपंडी सुब्बैया और तमिलनाडु वेटलैंड मिशन के प्रशांत प्रखालथन ने माइम्युसेमिया सीलोनिका कीट की तस्वीर ली है। ये दोनों शोधकर्ता विश्व के पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने इस कीट की तस्वीर उतारने में सफला पाई है।

माइम्युसेमिया सीलोनिका एक कीट प्रजाति है जो उपप्रजाति एग्रीस्टेनी और नोक्यूटीडे परिवार से संबंधित है। इस कीट को पहली बार 1893 में अंग्रेज कीटविज्ञानी जॉर्ज हैम्पसन द्वारा सचित्र रूप से वर्णित किया गया था। थलवाइपंडी और प्रशांत ने बताया कि 11 अक्टूबर, 2020 तिरुनेलवेली जिले के बफर जोन में स्थित अगस्त्यमलाई समुदाय आधारित संरक्षण केंद्र में किए गए एक कीट सर्वेक्षण के दौरान इस प्रजाती को फिर से खोजा गया। और थलवाइपंडी ने 5 नवंबर, 2022 को थूथुकुडी जिले के वल्लनाडू ब्लैकबक अभयारण्य में इसे फिर से देखा। उनका कहना था कि त्रिंकोमाली में पहली बार देखने के बाद यह कीट भारत में 2022 से पहले नहीं देखा गया था। इस प्रजाति के इतिहास के बारे में डेटा की कमी है। हम इन सभी मौकों पर केवल एक ही पतंगा देख सकते थे।

तिरुनेलवेली और थूथुकुडी जिलों में माइमुसेमिया सीलोनिका की खोज के महत्व पर थलवाइपंडी ने कहा कि यह इस क्षेत्र की समृद्ध जैव विविधता का स्पष्ट रूप से एक महत्वपूर्ण प्रमाण है। उनका कहना है कि हमने अकेले मनिमुथर बांध के पास लगभग 300 पतंगों की प्रजातियां देखीं और इनकी मौजदगी दर्ज की हैं। इसलिए हमारा ऐसा अनुमान है कि आसपास कई और पतंगों की प्रजातियां होनी चाहिए। कायदे से तमाम सरकारों को पतंगों पर अध्ययन को प्रोत्साहित करना चाहिए क्योंकि तितलियों जैसी प्रजातियों की तुलना में इन कीटों पर बहुत कम अध्ययन हुए हैं।

इसी प्रकार से पश्चिमी घाटों में रोव बीटल कीट (रोव बीटल भृंगों का एक परिवार है) की प्रजातियां 120 वर्षों के बाद फिर से खोजी गईं है। रोव बीटल की मेनोएडियस एंड्रूवेसी प्रजाति, नीलगिरी में  पहली बार 1903 में एक सड़ते हुए संतरे के नीचे खोजी गई थी। इसके निरंतर अस्तित्व की पुष्टि करते हुए 120 वर्षों के बाद इस प्रजाति को एक बार फिर से उधगमंडलम शहर के पास एक रेलवे लाइन के पास पुनः खोजा गया है। उदगमंडलम के पास 120 से अधिक वर्षों के बाद फिर से घुमक्कड़ भृंग पाया गया है।

रोव बीटल पहली बार 1903 में पाया गया था। इसकी दो अन्य प्रजातियां भी भारत में पाई जाती हैं, हालांकि उनके सटीक भौगोलिक स्थानों की पहचान अब तक नहीं हो पाई है।

हालांकि, जब पहली बार इसकी खोज की गई थी, उसके बाद से एक सदी से अधिक समय तक इसे नहीं देखा गया। इस प्रजाति को एक बार फिर से एन. मोइनुद्दीन, सैमसन अरोकियानाथन और ए. वीरमणि जैसे शोधकर्ताओं द्वारा पुनः खोजा गया है। इन्होंने ऑस्ट्रियाई कीटविज्ञानी हेराल्ड शिलहैमर की मदद से इसकी अन्य प्रजातियों की पहचान करने में भी कामयाबी पाई है।

द हिंदू से बात करते हुए जर्नल के लेखकों में से एक सैमसन एरोकियानाथन ने कहा कि 1903 में दर्ज किए जाने के बाद से प्रजातियों का कोई रिकॉर्ड दर्ज नहीं है। हमें उधगमंडलम शहर के पास एक रेलवे लाइन के साथ यह विशेष नमूना मिला। अरोकियानाथन ने कहा कि आम तौर पर भृंग पौधों और पेड़ों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

शोधकर्ता एन. मोइनुद्दीन ने कहा कि कीट प्रजातियों के रिकॉर्ड को बनाए रखना बेहद महत्वपूर्ण है, विशेष रूप से जिनके पश्चिमी घाटों में रहने की प्रबल संभावनाएं हैं। उन्होंने कहा कि दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन और मानवजनित कारक कीट आबादी में गिरावट का कारण बहन रहे हैं और कई मामलों में पूरी तरह से मिटा दिए जा रहे हैं। यह महत्वपूर्ण है कि शोधकर्ता उन प्रजातियों को सूचीबद्ध करें जो पश्चिमी घाटों और वास्तव में पूरे देश के विभिन्न इलाकों में रहते हैं।

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