विलुप्त होने की कगार पर हैं एक तिहाई शार्क और रे, जरुरत से ज्यादा मछलियों का शिकार है जिम्मेवार

मनुष्यों द्वारा मछलियों का बढ़ता शिकार इन मछलियों पर मंडराते संकट की सबसे बड़ी वजह है उसके साथ ही उनके आवास को हो रहा नुकसान, जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण उन्हें विलुप्त होने की कगार पर ले जा रहा है

By Lalit Maurya

On: Tuesday 07 September 2021
 

वैश्विक स्तर पर शार्क और रे मछलियों की करीब एक तिहाई से ज्यादा आबादी विलुप्त होने की कगार पर है। जिसके पीछे  की सबसे बड़ी वजह बड़े पैमाने पर किया जा रहा मछलियों का शिकार जिम्मेवार है। यह जानकारी हाल ही में किए एक शोध में सामने आई है जोकि जर्नल करंट बायोलॉजी में प्रकशित हुआ है। 

2014 में शार्क, रे और काइमेरा पर किए अध्ययन से पता चला था कि 1,199 प्रजातियों में से करीब 24 फीसदी (181) प्रजातियों पर संकट मंडरा रहा था, पर इस नए अध्ययन के अनुसार इन मछलियों की 32.6 फीसदी प्रजातियां अब खतरे में हैं, जिनकी कुल संख्या करीब 391 है। 

इस अध्ययन में जिन 1199 प्रजातियों में से 611 रे की, 536 शार्क की 52 प्रजातियां काइमेरा की शामिल हैं। वहीं यदि खतरे में पड़ी 391 प्रजातियों को देखें तो उनमें से करीब 56.3 फीसदी प्रजातियां (220) रे की, 42.7 फीसदी (167) शार्क की और एक फीसदी (4) प्रजातियां काइमेरा की हैं। 

गौरतलब है कि इनमें से तीन प्रजातियों लॉस्ट शार्क (कारचारिनस ऑब्सोलेटस), जावा स्टिंगरी (यूरोलोफस जावनिकस) और रेड सी टॉरपीडो (टारपीडो सुसी) को पिछले 80 से ज्यादा वर्षों से देखा नहीं गया है, जिनके बारे में यह धारणा है कि वो अब विलुप्त हो चुकी हैं। इनमें से जावा स्टिंगरी को 1868, रेड सी टॉरपीडो को 1898 और लॉस्ट शार्क को 1934 से नहीं देखा गया है।  

गैर-जिम्मेदाराना तरीके से किया जा रहा शिकार है इनपर मंडराते खतरे की सबसे बड़ी वजह

अध्ययन के अनुसार इसकी सबसे बड़ी वजह जरुरत से ज्यादा किया जा रहा मछलियों का शिकार है, जो करीब-करीब सभी 391 प्रजातियों को प्रभावित कर रहा है। यह 67.3 फीसदी प्रजातियों के लिए अकेला खतरा है। वहीं इन मछलियों के आवास को हो रहा नुकसान और उसमें आ रही गिरावट 31.2 फीसदी, जलवायु परिवर्तन 10.2 फीसदी और प्रदूषण 6.9 फीसदी प्रजातियों के लिए खतरा है।    

अनुमान है कि इन मछलियों पर मंडराता खतरा कहीं कम तो कहीं ज्यादा है। शोधकर्ताओं के अनुसार यह उष्ण और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में अन्य के मुकाबले कहीं ज्यादा है। विशेष तौर पर उत्तरी हिन्द महासागर और मध्य-पश्चिम और उत्तर पश्चिमी प्रशांत महासागर में यह भारत से लेकर इंडोनेशिया और जापान तक काफी ज्यादा है।

जिसकी सबसे बड़ी वजह तटों पर रहने वाली बड़ी आबादी की मछलियों पर निर्भरता है। यहां फिन जैसे महंगें उत्पादों की मांग कहीं ज्यादा है, साथ ही शिकार के लचर कानून भी इनपर मंडराते खतरे की एक वजह हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार महासागरों के इन हिस्सों में तीन-चौथाई से अधिक प्रजातियों पर खतरा मंडरा रहा है।

इस शोध से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता निकोलस के डल्वी के अनुसार इन मछलियों विशेष रूप से शार्क और रे में आ रही व्यापक कमी पूरी महासागर के इकोसिस्टम को नुकसान पहुंचा रही है। यही नहीं इनसे दुनिया के कई देशों पर खाद्य संकट मंडराने लगा है। 

इससे पहले अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर में छपे एक शोध में सामने आया था कि 1970 के बाद से पिछले 50 वर्षों में शार्क और रे मछलियों की वैश्विक आबादी में करीब 71.1 फीसदी की कमी आई है। यही नहीं शोध के मुताबिक समुद्री शार्क की 31 में से 16 प्रजातियां गंभीर खतरे में हैं, जबकि इनकी तीन प्रजातियों समुद्री वाइटटिप शार्क, स्कैलप्ड हैमरहेड शार्क और ग्रेट हैमरहेड शार्क पर विलुप्त होने का गंभीर संकट मंडरा रहा है। 2013 में कनाडा की डलहौसी यूनिवर्सिटी द्वारा किए एक शोध से पता चला है कि हर साल करीब 10 करोड़ शार्कों को मार दिया जाता है जोकि दुनिया भर में शार्कों का करीब 7.9 फीसदी है।

दुनिया भर में शार्कों को उनके हमलावार स्वाभाव के लिए जाना जाता है, पर इसके साथ ही वो समुद्र के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए बहुत मायने रखती हैं। वह एक महत्वपूर्ण समुद्री शिकारी है, जो समुद्र के इकोसिस्टम को स्वस्थ बनाए रखती हैं। इन शिकारियों के बिना पूरा इकोसिस्टम ही नष्ट हो सकता है। ऐसे में इन जीवों को बचाना बेहद जरुरी है।

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