वनवासियों के हकों को नजरअंदाज करके नहीं किया जा सकता वनों का विकास

उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के 30 करोड़ लोग उन क्षेत्रों में रहते हैं जो जंगलों की बहाली के लिए उपयुक्त हैं, जबकि इस जमीन के 5 मील के दायरे में एक अरब से ज्यादा लोग रहते हैं

By Lalit Maurya

On: Thursday 27 August 2020
 

वनवासियों और स्थानीय समुदायों को नजरअंदाज करके वनों की बहाली और विकास मुमकिन नहीं है। वनों की बहाली के लिए बनाई गई योजनाओं में उन स्थानीय समुदायों का भी साथ जरुरी है जिनपर इनका सबसे ज्यादा असर पड़ेगा। यदि उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है तो इससे गंभीर नैतिक समस्याएं पैदा हो सकती हैं। खासकर जो लोग जंगलों की बहाली के लिए चलाई जा रही परियोजनाओं के कारण विस्थापित होते हैं उन्हें इन योजनाओं में शामिल किया जाना जरुरी है। इस तरह का विस्थापन उन लोगों को गरीबी में धकेल देगा, ऐसे में उनके मन में रोष उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है।

जलवायु परिवर्तन के असर को सीमित करने में इन जंगलों की है महत्वपूर्ण भूमिका

जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभाव को कम करने में जंगलों का बहुत बड़ा हाथ होता है। जंगल अपने आप में ही एक अलग संसार को समेटे होते हैं, ऐसे में पूरा इकोसिस्टम उनसे जुड़ा होता है। अमूल्य जैवविविधता को बचाए रखने के लिए भी इन जंगलों को बचाए रखना जरुरी है। यही वजह है कि हाल के दशकों में जंगलों की बहाली, विशेषकर ट्रॉपिकल वनों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है।

लेकिन इन जंगलों की बहाली के लिए चलाई जा रही परियोजनाओं और अनुसन्धान में बहुत कम ही वहां रहने वाले लोगों और उनके विकास पर ध्यान दिया जाता है। इनमें उन लोगों से जुड़े सामाजिक आयामों और उनके हक़ को नजरअंदाज कर दिया जाता है। हाल ही में किए नए शोध से पता चला है कि उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के 30 करोड़ लोग उन क्षेत्रों में रहते हैं जो जंगलों की बहाली के लिए उपयुक्त हैं। जबकि इस जमीन के 5 मील के दायरे में एक अरब से ज्यादा लोग रहते हैं, जोकि गरीबी में जीवन बसर कर रहे हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार यह क्षेत्र अगले 30 वर्षों तक जंगलों की बहाली के लिए उपयुक्त हैं।

यह शोध जर्नल नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन में प्रकाशित हुआ है। जिसके शोधकर्ताओं का मानना है कि जंगलों को बचने और उनकी बहाली के लिए चलाई जा रही योजनाओं में वनवासियों को भी शामिल किया जाना जरुरी है। उनके अनुसार वनों के प्रबंधन और उपयोग के लिए वहां के स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाना जरुरी है। जिसमें उनकी वनों तक पहुंच, वन संसाधनों का उपयोग और सामुदायिक लाभ के लिए भूमि का प्रबंधन करने के अधिकार शामिल हैं।

इस शोध में जंगलों की बहाली, वहां रहने वाले मूल निवासियों के विकास और वनों के सामुदायिक स्वामित्व सम्बन्धी राष्ट्रीय नीतियों के सम्बन्ध का विश्लेषण किया गया है। इस शोध से जुड़े शोधकर्ता अरुण अग्रवाल के अनुसार दुनिया भर में जंगलों को फिर से बहाल करना वहां रहने वाले समुदायों के विकास और सशक्तिकरण पर निर्भर है। साथ ही यह जंगलों में रहने वाले लाखों-करोड़ों वंचितों के जीवन को फिर से एक नया आधार प्रदान कर सकता है। इससे न केवल उन लोगों का कल्याण होगा, साथ ही पर्यावरण को भी लाभ पहुंचेगा।

यह शोध भारत, ब्राज़ील, इंडोनेशिया सहित कई अफ्रीकी देशों पर आधारित है, जहां उष्णकटिबंधीय जंगलों और उसकी सीमा पर बड़ी संख्या में आज भी मूल निवासी रहते हैं। यह जंगल कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने में अहम् भूमिका निभा सकते हैं। साथ ही इनकी बहाली की संभावनाएं अभी भी बची हुई हैं। यहां के कम आय वाले देशों में करीब 12 फीसदी आबादी उन क्षेत्रों में रहती है जो जंगलों की बहाली के लिए उपयुक्त है।  इसकी मदद से लाखों लोगों की जीविका और बेहतर भविष्य दिया जा सकता है जिन्हें आमतौर पर विकास और बुनियादी ढांचे के निर्माण में नजरअंदाज कर दिया जाता है।

शोधकर्ताओं के अनुसार स्थानीय समुदायों को वनों के प्रबंधन और उनकी बहाली में शामिल करना जलवायु परिवर्तन से निपटने का एक उचित और स्थायी तरीका है। अध्ययन से पता चलता है कि वनों की बहाली के अधिकांश अवसर उन क्षेत्र में हैं जहां स्थानीय आबादी को सामुदायिक वन अधिकार सम्बन्धी मजबूत कानून हैं। शोध के अनुसार भारत सहित 22 देशों में पहले से स्थानीय लोगों और सामुदायिक वन स्वामित्व से जुड़े कानून मौजूद हैं। इन देशों में जंगलों की बहाली के अवसर का कुल दो तिहाई क्षेत्र शामिल हैं। साथ ही इन देशों में जंगलों को बहाल करने की सम्भावना वाले क्षेत्रों की 70 फीसदी आबादी रहती है।

योजनाओं में स्थानीय लोगों की हिस्सेदारी भी है जरुरी

जर्नल वर्ल्ड डेवलपमेंट के प्रधान संपादक अग्रवाल के अनुसार मध्य, पूर्वी और दक्षिणी अफ्रीका में जंगलों को बहाल करने और कई तरह की समस्याओं का सामना कर रहे स्थानीय लोगों को सामाजिक आर्थिक और बुनियादी ढांचा प्रदान करने के कई अवसर मौजूद हैं। उनके अनुसार जंगलों की बहाली में स्थानीय लोगों का योगदान मायने रखता है। इसकी मदद से जलवायु परिवर्तन के असर को कम किया जा सकता है। इससे पर्यावरण को बचाया जा सकता है। साथ ही यह सतत विकास के लक्ष्यों को भी हासिल करने में अहम् भूमिका निभा सकता है। इसके लिए स्थानीय लोगों को जंगलों के प्रबंधन और बहाली का अधिकार देना होगा।

वहीं दूसरी ओर शोधकर्ताओं का मानना है कि यदि स्थानीय लोगों को निर्णय लेने की शक्तियों से वंचित कर दिया जाता है तो उससे गंभीर नैतिक समस्याएं पैदा हो सकती हैं। खासकर जो लोग जंगलों की बहाली के लिए चलाई जा रही परियोजनाओं के कारण विस्थापित होते हैं उन्हें इन योजनाओं में शामिल किया जाना जरुरी है। इस तरह का विस्थापन उन लोगों को गरीबी में धकेल देगा, ऐसे में उनके मन में रोष उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है।

इसका सबसे ज्यादा असर उन पिछड़े देशों में रह रहे उस गरीब तबके पर पड़ेगा, जिसका उस ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कोई हाथ ही नहीं है। पर उसकी कीमत उनलोगों को चुकानी पड़ती है। ऐसे में इन लोगों को जंगलों की बहाली के लिए सशक्त किया जाना चाहिए जिससे वो उनके प्रबंधन का हिस्सा बन सके। इसके साथ ही जंगलों के सामुदायिक स्वामित्व के विस्तार के अवसरों को भी तलाशना चाहिए।

अग्रवाल के अनुसार यह शोध वनवासियों और पारिस्थितिकी तंत्र की अधिक से अधिक भलाई पर जोर देता है। इसके लिए शोधकर्ताओं, नीति निर्माताओं और स्थानीय समुदायों को मिलकर काम करना जरुरी है। जंगलों में काम करने वाले - चाहे वो सरकारी एजेंसियां हों या शोधकर्ता बहुत बार यह भूल जाते हैं कि पर्यावरण को बचाने के लिए लोगों के साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता होती है, न की उनके खिलाफ।

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